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गांधीजी खड़े बाज़ार में

दो अक्टूबर का दिन- कितने ही लोगों के महीनों से संजोये छुट्टी बिताने के सपने को साकार करता हुआ तेज़ी से सरक रहा था। हफ़्‍ते में छह दिन ऑफिस जाना अपने में एक अश्वमेध यज्ञ की तरह है। अश्वमेध का घोड़ा जिस तरफ निकल जाता है वहाँ तक की ज़मीन पर राजा का कब्ज़ा हो जाता है। आधुनिक युग की नौकरशाही पद्धति में फैक्ट्री का मालिक या सरकार ऐसे ही राजाओं की तरह हैं जिनके कर्मचारी अश्वमेध यज्ञ के घोड़े की तरह फैक्ट्री, ऑफिस और बाज़ार में दौड़ते रहते हैं। दौड़ते तो घोड़े ही हैं लेकिन जमीन पर कब्ज़ा उनके मालिक का होता है। इसलिये कि ये घोड़े उनके चारे पर पलते हैं। फ़र्क सिर्फ इतना है कि प्राचीन समय में अश्वमेध यज्ञ के घोड़े स्वतंत्र होते थे कहीं भी और किसी भी दिशा में जाने के लिये, लेकिन आज के घोड़े फाइलों के ढेर के पीछे चरमराती कुर्सियों पर पड़े रहते हैं, उत्पादन रेखा की बेल्ट पर मुस्तैद होते हैं या फिर धूप में चमचमाती गलियों में सामान बेचने के लिये दौड़ते हैं। इनकी दिशा, दशा और नियति सब इनके मालिक के कब्ज़े में होती हैं। अब न वैसे राम रहें न उनके अश्वमेध यज्ञ के जैसे घोड़े। जब महाराणा प्रताप न हो तो चेतक भी कहाँ मिलेगा !

खैर, भारत में (या बाहर भी) हम महापुरुषों को इसलिये ही याद करते हैं कि इसके साथ हमें अपने काम से चन्द दिनों की नज़ात मिल सके। नहीं तो जयंती या शोक मनाने के लिये छुट्टी की जरूरत ही क्यों पड़ती। लेकिन शायद मैं गलत हूँ, अगर किसी को याद करना हो तो उसके लिये अवकाश तो चाहिये ही। अगर फुरसत में किसी को याद करे तो ठीक से याद कर सकते हैं। जितना महान् व्यक्ति को याद करना हो उतनी ही ज़्यादा छुट्टी की जरूरत पड़ती है। अब भगत सिंह को याद करने के लिये हमें छुट्टी नहीं मिलती। वैसे आदमी की बात तो छोड़ दे तो छुट्टी जैसे संवेदनशील मामलों में भगवान के बीच भी स्पर्धा कम नहीं है। रामनवमी की छुट्टी हो जाती है लेकिन कृष्णाष्टमी की छुट्टी नहीं मिलती। महावीर जयंती की छुट्टी होती है पर बुद्ध जयंती की छुट्टी नहीं होती। वैसे काम का क्या है, एक दिन न भी करें तो क्या फ़र्क पड़ जायेगा। लेकिन, महापुरुषों को अगर ठीक से न याद करें तो राष्ट्र का चरित्रि तहस-नहस हो सकता है। वैसे, जिस देश का प्रधानमंत्री अपनी छुट्टी मनाने मनाली की शीतल घाटियों में जाता हो वहाँ अगर हमने अपने हनहनाते-गुर्राते और गर्म हवा को बे-इंतहा फेंकते हुए पंखे के नीचे, दोपहर के खाने के बाद अपनी पीठ जरा सीधी कर ली तो क्या पहाड़ टूट पड़ेगा। वैसे भी ये छुट्टियाँ कौन से आये दिन मिलती है। वह तो भला हो अपनी संस्कृति का कि हर दिन-पखवारे-महीने इतने ही न पर्व त्योहार डाल रक्खे हैं हमने कि इन मालिक लोगों के नाक-भौं सिकोड़ने के बाद भी कुछ छुट्टियाँ तो हम चटखा ही लेते हैं।

खैर, अक्टूबर के आने के बाद भी गुड़गाँव, जो दिल्ली के एक उपनगर की तरह है, की गर्मी में कोई कमी नहीं आयी थी। अब यह लिखना कि अक्टूबर की धूप सर पर चमक रही थी, साहित्‍यक शिष्टाचार को जैसे धक्का-सा लगेगा। जब कि साहित्य में सावन की झड़ी लगी रहती हैं हम यहाँ अगस्त में सुलगते रहते है। यह प्रदूषण का प्रताप है कि महाभारत की बारूद अभी तक ठंडी नहीं हुई, मुझ जैसे लोग जो पूर्व यानि कि बंगाल-बिहार से आये थे यहाँ पर, एक बार बारिश में भींगने के लिये तरस गये पिछले चार सालों में। मेरी तो हताशा एक बार इतनी बढ़ गयी कि मैंने अपने नल से एक पाइप निकाल कर छ्त पर लटका दिया और उसके नीचे सावन की गिरती तेज़ धार में नहा पाने का सुख लूटना चाहा। खैर, गर्मी हो या सर्दी पेट तो मानता नहीं और मेरा नौकर जो इत्तफाक से रसोई भी सम्भालता था आज उसने ऐन मौके पर गाँधीजी को याद करने की ठान ली। मैंने जब दोपहर तक देखा कि वह गाँधी जयंती मनाकर लौटता नज़र नहीं आता तो मैंने भी उस रोज बाहर से कुछ लाकर अल्पाहार करने का सोचा।

घर से बाहर निकला ही था कि बाहर हर तरफ फैली रौनक को भाँप गया। जगह-जगह लोग रंगबिरंगे कपड़ों में घूम रहे थे। तभी मेरी नज़र पड़ी एक लम्बी कतार पर। मैंने सोचा गाँधी जयंती के मौके पर कोई जलसा तो नहीं हो रहा। कुछ ही दिन पहले मेरे साथ ऐसा ही सुखद संयोग हुआ था कि मैं सब्ज़ी लेने के लिये सेक्टिर-१४(जहाँ मैं रहता था) के बाज़ार की तरफ निकला तो देखा एक शामियाना तना था और आस-पास लोगों का हुजूम उमड़ा हुआ था। बाद में किसी से पूछने पर पता चला था कि पूजा बत्रा(चर्चित सिने तारिका) आयी थीं। तो मैंने भी थोड़ा पास जाकर उनके दर्शन कर लिये। यह सब पूर्व जन्म के सत्कर्म से हो पाता है। तब से ही मैं संयोग पर बहुत भरोसा करने लगा हूँ। वैसे भी दुनिया में सभी महान् उपलब्धियाँ संयोग से ही मिली हैं। अगर कोई योजना की दुहाई देता भी है तो वह भी एक संयोग ही है। खैर, मैं उस कतार के बगल से गुजरने लगा कि पता नहीं गाँधी जयंती के अवसर पर आज किस हस्ती के दर्शन हो जाये। वैसे मैंने देखा है कि जयंती कोई हो लेकिन लोग कुछ भजन गान करने के बाद समाज के लिये मनोरंजन की व्यवस्था कर ही देते हैं। वैसे ठीक भी है, पूरे दिन तो जयंती मनेगी नहीं अगर हम अपना मनोरंजन खुद नहीं करेंगे त मारे मनोरंजन के लिये कोई सोगा भी क्यों। तो मैं इसी आशा में आगे बढ़ रहा था, किसी अभूतपूर्व के घटित होने की आशंका, उत्साह और उन्माद में मेरे पैर रह-रहकर काँप जाते थे। मैंने जब पास जाकर देखा तो वह कतार एक विदेशी रेस्त्रां में जगह पाने वालों की थी। विदेशी ‘फूड चेन’ का जब से चस्का पड़ा है तब से लोगों ने अपनी रसोई ही बन्द कर दी है। वैसे भी गाँधी जयंती जैसी छुट्टी पर घर की औरतें कहाँ गैस की आँच के आगे अपना मेकअप कुर्बान करतीं। तो मेरी समझ में आया कि कतार इतनी लम्बी क्यों थी। मुझे तो उम्मीद है कि यह कतार आने वाले समय में दुगुनी रात चौगुनी बढ़ेगी। श्रद्धालुओं की संख्या भारत में वैसे भी कम नहीं रही है। हम किसी भी काम को अपना धर्म समझ कर करते हैं। भीड़ पर काबू रखने के लिये रेस्त्रां का एक गार्ड भी खड़ा था, जिसकी हिन्दी में दिये गये निर्देश को लोग वैसे भी नज़रन्दाज़ कर देते थे। लेकिन, भाषा के साथ-साथ वह अपने शरीर-भाषा का भी प्रयोग कर रहा था ताकि जिन्हें हिन्दी न समझ में आती हो वह उसके इशारे को समझ सकें। तभी मेरी नज़र पड़ी बाहर एक चबूतरे पर रखी गाँधीजी की मूर्ति पर, हू-ब-हू मिलती थी। गज़ब की महारत रही होगी उस कलाकार में। मूर्ति के एक हाथ में एक किताब, दूसरे में एक लाठी थी और कमर से घड़ी लटक रही थी। मूर्ति की मुद्रा में वह लाठी टेके और झुके हुए सामने की कतार में खड़े लोगों का अभिवादन करते हुए से लग रहे थे। ठीक भी था, वह जननायक थे और जनता का सम्मान करना उनके लिये आज भी जरूरी है। जिस जनता ने उन्हें ‘बापू’ और ‘राष्ट्रपिता’ का दर्ज़ा दिया उनका स्वागत करना उनका कर्तव्य भी है। खैर, मैंने हल्के से अपना सर झुकाया और आगे बढ़ गया। मैं अपना सर हनुमान जी के मन्दिर के सामने भी ज़्यादा नहीं झुकाता इस डर से कि लोग मुझे पुराने ख़्यालात के न समझ लें। लेकिन वह क्या है कि बचपन से जो संस्कार पड़े हैं वो जल्दी मिटते भी नहीं। इस कारण मुझे कई बार ख़ुद पर बड़ी शर्मिन्दगी भी आती है कि मैं अपने आपको समय के साथ आज तक ढालकर चलना सीख नहीं पाया। अब लोग हाथ जोड़ कर नमस्कार करने के बजाय दूर से ही ‘हाय-बाय’ कर लेते हैं। यहाँ तक कि अगर कभी सामाजिक या सांस्कृतिक दबाब में झुकना ही पड़ जाय तो लोग पाँव छूने की बजाय घुटने छू लेते है। झुकना भी हो गया और अकड़ भी थोड़ी बची रह गयी। एक बार सत्यनारायण कथा के उपरांत मैंने दक्षिणा देने के बाद पंडितजी के पाँव छू कर आशीर्वाद लेने चाहे तो वे भाव-विभोर हो गये। काँपते हाथों से उन्होंने मुझे मेरे कंधे से पकड़कर उठा लया और कहने लगे- अब इसका समय नहीं रहा जजमान, अब तो लोग दक्षिणा देकर पंडित को ऐसे भगाते हैं जैसे निवाला देकर कुत्ते को। सच में समय बहुत बदल गया है। आज पिछड़े लोगों के आँकड़े कभी उलट के देखे जायें तो उनमें वही लोग मिलेंगे जिनका अब तक संस्कार के साथ कहीं-न-कहीं दूर का या पास का रिश्ता बचा रहा हो।

मैंने सोचा कि अगर घर से बाहर निकला ही हूँ तो जरा बाज़ार का एक चक्कर लगाता ही चलूँ। लगभग एक घंटे के बाद मैं उसी जगह पर वापस आ चुका था। लोगों की कतार अभी भी लगी थी लेकिन उसकी लम्बाई थोड़ी कम हो गयी थी। मैंने देखा कि गाँधीजी की मूर्ति अब सीधी हो गयी थी। मुझे अच्छी तरह याद था कि पहले मैंने उसे झुकी देखी थी। लेकिन, फिर मैंने सोचा कहीं मेरा भ्रम तो नहीं। तभी मैंने देखा कि वह मूर्ति हिल भी रही थी। कहीं से कोई मक्खी उसके चेहरे के पास मंडराने लगी थी। भीतर से तभी कोई आदमी निकला और कहने लगा, ‘ये क्या कर रहा तू ताऊ?’

ओह, तो वह मूर्ति नहीं कोई बाबा थे जो गाँधीजी का मेकअप करके खड़े थे !

‘क्यों, क्या कर रहा हूँ मैं ?’ गाँधीजी ने चश्मे के पीछे से आँखे झपकाते हुए कहा।

‘तू सीधा कैसे हो गया है ताऊ ? तैने तो झुक के रहने थे।’

‘अरे भाई, झुके-झुके कमर दुखने लगी थी, तो जरा सीधा हो लिया’ गाँधीजी ने आग्रह और पुचकारने के स्वर में कहा।

‘ऐसा नहीं काम चलेगा ताऊ, लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे। ऐसे में तो तुझे कोई पहचान भी न पायेगा।’

‘जरा-सा समय की बात है। मैं फिर झुक जाऊँगा, नाराज़ क्यों हो रहे हो।’ गाँधीजी की आँखों में दर्द और चेहरे पर परेशानी साफ झलक रहे थे।

‘तू तो अभी भी सीधा ही है। मैं जाके मैनेजर को बताता हूँ ।’ कहकर वह हनहनाता हुआ अन्दर चला गया। दरवाजे के खुलने से अन्दर से निकली एयर कंडिशनर की ठंडी हवा बाहर की गर्म हवा में घुलमिल गयी। गाँधीजी मुस्कुराकर आने वालों का स्वागत करने लगे। तभी एक व्यक्ति सूट टाई में बाहर निकला जो रेस्त्रां का मैनेजर मालूम होता था।

‘यह सब क्या हो रहा है?’ उसने लगभग डाँटते हुए गाँधीजी से पूछा।

गाँधीजी जल्दी से झुक कर अपनी पुरानी मुद्रा में आ गये।

‘कुछ नहीं बाबूजी, थोड़ी देर कमर सीधी करने के लिये सीधा हो गया था।’

‘हमारा सौदा हुआ था कि तुम झुककर खड़े रहोगे पूरे समय। अभी आधा घंटा भी नहीं हुआ कि तुम्हारी कमर टूटने लगी।’ फिर रुककर उसने दूसरे आदमी से पूछा जो उसके पीछे खड़ा था, ‘कितने बजे आया था आज यह?

‘साढ़े ग्यारह बजे’

‘एक तो समय पर नहीं आये तुम और ऊर से काम भी सही नहीं कर सकत ह। ऐसे नहीं चलेगा। काम नहीं करना था तो पहले बता देते। तुम्हारे जैसे पचास मिल जायेंगे हमें। लेकिन हमारी ‘इमेज’ खराब करने की जरूरत नहीं।’ कहकर मैनेजर वापस मुड़ा था। गाँधीजी ने सर हिलाकर सहमति जतायी। दूसरा स्टाफ भी मैनेजर के पीछे-पीछे चला गया। ठंडी हवा का एक और झोंका बाहर लहरा गया। गाँधीजी फिर लाठी टेके और झुके हुए आने जाने वाले को देखकर मुस्कुराने लगे। हर आने-जाने वाले के चेहरे पर एक हल्की हँसी फैल जाती उन्हें देखकर। उनमें से कुछ लोग ध्यान भी नहीं देते थे और तेज़ी से आगे बढ़ जाते थे। तभी एक छोटा-सा लड़का कूदता हुआ आया और गाँधीजी को देखकर अचानक ठिठक कर खड़ा हो गया। वह उन्हें देखता रहा फिर उनसे पूछा,

‘ये आपके हाथ में क्या है अंकल ?

‘गीता की पुस्तक है बेटा’ गाँधीजी ने प्यार से झुके हुए कहा।

‘गीता क्या होती है अंकल ?’, गाँधीजी थोड़े परेशान हुए फिर सोचा कुछ तो बताना होगा।

‘यह धर्म की किताब है बेटा’

‘यह कॉमिक्स नहीं है फिर। आपने कॉमिक्स पढ़ी है क्या?’

‘नहीं। कॉमिक्स क्या चीज होती है ?’ झुके-झुके गाँधीजी की कमर फिर दुखने लगी थी शायद। उनके चेहरे पर दर्द की परछाईं गहरी होती गयी। लेकिन, लगता था ध्यान बँटाने के लिये ही उन्होंने बात-चीत जारी रखनी चाही। दर्द से ध्यान हट जाये तो उसकी अनुभूति कम हो जाती है।

‘उसमें पिक्चिर होती है। मैं आपको दिखाऊँगा। मेरे पास कॉमिक्स की बहुत-सी बुक्स है।’

बच्चे ने थोड़ा इठलाते हुए कहा।

‘ये आपकी कमर में क्या लटक रही है, अंकल’

‘वह घड़ी है’ ‘तो कमर में क्यों खोंस रखी है आपने’

गाँधीजी चुप रहे फिर बोले, ‘बेल्ट टूट गयी है इसलिये...’ गाँधीजी का चेहरा जर्द पड़ने लगा था। तभी दरवाजा खुला था और एक दम्पति सीढ़ियों से उतरते हुए पास आया।

‘हाऊ मेनी टाइम्स डिड आइ टेल यू टू नॉट टॉक को एनी स्ट्रेंजर(कितनी बार मैंने कहा है कि किसी अजनबी से बातें मत करो)’ महिला ने बच्चे के कंधे को पकड़कर झकझोर दिया।

‘ही इज नॉट स्ट्रेंजर। ही इज बापू ममी।(वह अजनबी नहीं हैं माँ, वह ‘बापू’ हैं)’ बच्चे ने जोर देकर कहा तो गाँधीजी ने अपना दर्द भूल महिला और बच्चे को देखकर मुस्कुरा दिया।

महिला ने मुँह फेरकर कहा,’ हाऊ डू यू नो दैट(तुम्हें कैसे मालूम)?’

‘माइ स्कूल टीचर टोल्ड मी। मिस ऑलसो सेड दैट ही वाज फादर ऑफ नेशन।(मेरी अध्यापिका ने मुझे बताया, उन्होंने यह भी बताया कि वे राष्ट्रपिता थे।)’ और बच्चा महिला के हाथों से अपना कंधा छुड़ा कर अलग खड़ा हो गया। उसके चेहरे पर नराजगी झलक रही थी।

‘यो हैव स्टार्टेड रिप्लाईंग मी अ लॉट(तुमने जबाब देन बहुत शुरू कर दिया है)....डोंट ट्राई टू बी अ स्पोइल्ड किड(ख़राब बच्चा बनने की कोशिश न करो)... अंडरस्टैंड(समझे)..’ महिला ने डाँटते हुए कहा तो बच्चा पैर पटकता हुआ आगे बढ़ गया। ‘स्टॉप, आई से स्टॉप देयर...मोनू...(मैं कहती हूँ रुक जाओ, रुक जाओ वहीं मोनू..)’ महिला ने लगभग चीखते हुए कहा तो उसका पति उसके कंधे को धीरे-धीरे सहलाने लगा। बच्चा अभी भी पैर पटकता हुआ आगे-आगे जा रहा था।

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