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संकट

जहाँ तक संकटों का प्रश्न है तो उसकी कभी कमी रही नहीं इस सृष्टि में। कल्प के आदि से लेकर अंत तक यह सृष्टि संकटों में लिपटी रही है। सृष्टि का संकट से नाता पुराना... अगर जो 'सृष्टि और संकट' नाम की कोई हिन्दी फिल्म बनती तो शायद यह टाईटल सांग (शीर्षक गीत) होता। भगवान भी तभी आते हैं जब संकट बहुत गहरा हो जाता है। संस्कृति का संकट, भाषा का संकट, राजनीतिक संकट, राष्ट्रीय संकट, अंतर्राष्ट्रीय संकट, आर्थिक संकट, धार्मिक संकट, सामाजिक संकट, पर्यावरण का संकट आदि-आदि। संकटों के कितने नाम लेंगे और लेने की आवश्यकता भी क्या है जो बिना बुलाये अथवा आह्वान के आ जाये।

हर किसी का अपना-अपना संकट है। जो मेरा संकट है वह मेरे पड़ोसी का नहीं। बिहार का संकट यूपी के संकट से अलग है। महाराष्ट्र और केरल का तो बिल्कुल ही अलग। संकट के संवेदनशील मामले में विभिन्न देशों के संकट भी अलग-अलग हैं। अब अमेरिका का संकट भारत से कितना अलग है। भारत में लोग दुबले हुए जा रहे हैं और अमेरिका मोटापे के संकट से जूझ रहा है। भारत में स्वाईन फ़्लू का टीका नहीं बन पाया और अमेरिका जैसे कई देशों में टीके बर्बाद हो गए। एशिया में जब चीन अपना प्रभुत्त्व बढ़ा रहा है तो अमेरिका को चिंता हो रही है। भारत तो पहले से ही पाकिस्तान और चीन से चिंतित रहा है। लेकिन अमेरिका को संकट का आभास अब हो रहा है। खैर, पौ फटने से पहले नहीं जगे तो दोपहर तक तो जग ही लें। संकट उत्पन्न करने और पालने में हम में से हर कोई उतना ही रचनात्मक है। हम में से हर कोई अपनी अभिरुचि, सामर्थ्य, श्रद्धा, बुद्धि, देश और काल के हिसाब से कोई न कोई संकट पैदा कर लेता है। कभी संकट पैदा कहीं होता है पाला कहीं और जाता है। संकट के प्रति यह वात्सल्य भाव माँ यशोदा की याद दिलाता है। कुछ संकट स्वयं-भू होते हैं। कुछ संकट पैदा किये जाते हैं। कुछ संकट अन्य संकटों के साथ चले आते हैं, साथ निभाने के लिये। कुछ संकट रक्तबीज की तरह होते हैं। कभी-कभी एक संकट का समाधान (समाप्त) होते ही उससे सैकड़ों-हज़ारों संकट पैदा हो जाते हैं।

संकट का उत्पन्न होना जितना सहज है उसका समाधान उतना ही कठिन। संकट का समाधान हम कई बार चाहते भी नहीं। कभी जो सभी संकटों का निदान भूल से हो गया तो सृष्टि में उथल-पुथल हो जायेगा। कितने लोग जो संकट के सहारे जी रहे हैं वे तो जीते-जी ही मर जायेंगे। वैसे तसल्ली की बात तो यही है कि ऐसा न कभी हुआ है और ऐसा कभी होगा भी नहीं - न भूतो न भविष्यति के तर्ज़ पर। जब तक माया का जाल फैला हुआ है संकट अजर-अमर है।

कुछ लोगों के लिये संकट का बादल हमेशा घिरा रहता है। कभी-कभी गरज-बरस भी पड़ता है - 'उमड़-घुमर कर आ रे बदरवा' की धुन पर। ऐसे लोगों की कई पीढ़ियाँ संकटों के साथ जन्मतीं, पलती और बढती समाप्त हो जाती हैं। ऐसे लोग हमेशा आक्रान्त दिखाई देते हैं। लगता है कि बस आज का दिन निकल जाये तो ही जान में जान आयेगी। कुछ लोगों के लिये संकट उनका अपना उतना नहीं जितना कि दूसरों के लिये होता है। ऐसे लोग भी आक्रान्त दिखते हैं लेकिन सिर्फ दूसरों के लिये। ऐसे लोग सार्वजनिक मंच पर संकट से अचानक घिर जाते हैं जैसे टेलीविजन, सेमीनार, सम्मलेन, व्यख्यान आदि के अवसर पर। उसके बाद घर, रेस्तरां अथवा पार्क में समोसे-चाट का आनंद उठाते हुए संकट का विचार त्याग देते हैं।

मेरा एक मित्र है बचपन का । बचपन से उसको संकट का आभास हो गया था। आभास तो क्या मुझे लगता है उसे सिद्धि प्राप्त थी अथवा उसे विरासत में मिली थी संकट की पहचान। गिल्ली-डंडा अथवा मोहल्ले की गली में क्रिकेट खेलते हुए वह अचानक खड़ा हो अथवा रुक जाया करता था जैसे संकट के अदृश्य तरंगों ने उसे छू लिया हो। कहने लगता कि अगर कल से लकड़ी का संकट हो गया तो गिल्ली-डंडा कैसे बनाएँगे। कभी कहने लगता कि वह गली जिसमें हम खेलते आये थे अगर बंद हो गयी अथवा नाले में तब्दील हो गयी तो क्रिकेट खेलने कहाँ जायेंगे आदि-आदि। तब संकट बहुत छोटे-छोटे होते थे। वे बचपन के दिन थे। फिर भी संकट तो संकट ही थे। जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया उसके संकट भी बड़े होते गए, हाई-स्कूल का संकट, कालेज का संकट, रोजगार तलाश का संकट, विवाह के संकटों को पार करता हुआ आज पूरी तरह संकटमय अथवा संकटाधीन हो चुका है। आज जब भी मिलता हूँ उससे (वह मिलने नहीं आता, संकटों से फुरसत जो नहीं..) तो वह लगभग बदहवास सा यही कहकर बात शुरू करता है - आज का सबसे बड़ा संकट...

हर बार नए संकट की बात करता है। मुझे कई बार ग्लानि होती है कि आजतक एक भी संकट मैं उसे गिना नहीं पाया और उसने संकट की झड़ी लगा दी है। हालाँकि हर चीज़ में मैं बचपन से उससे अव्वल ही रहा लेकिन यहाँ उसने मुझे मात दे दी। मुझे तो उसने मात दी बाकी को तो वह पटखनी देता रहता है।

ख़ैर, मैंने एक बार उसको अपने संकट गिनाने की कोशिश की लेकिन उसने उनपर कोई ध्यान नहीं दिया। बार-बार अपने संकटों की बात करता रहा। हार कर मैंने अपना संकट प्रकट करने का विचार छोड़ दिया। मैंने पलटवार करते हुए उससे पूछा - तुम्हारे बड़े-बड़े, हृदय से भी प्यारे, आँखों के तारे इन संकटों का समाधान भला क्या है? वह शून्य आँखों से मुझे देखता रहा। इतना खालीपन मैंने जीवित लोगों में कभी देखा नहीं और कहीं सुना भी नहीं। मुझे लगा या तो वह मुझे गायब कर देगा अथवा स्वयं अंतर्ध्यान हो जायेगा। जैसे कठिन प्रश्न का उत्तर दिए बिना अध्यापक चला जाता है अथवा वरदान देकर लेकिन बिना दुविधा सुने देवता चले जाते हैं। लेकिन दोनों में से कुछ भी नहीं हुआ। जब अपने संकटों का दैनिक कोटा पूरा कर चुका तो वह बोला – "संकट का समाधान होता थोड़े ही है। संकट तो बने ही रहते हैं चाहे आप जितने भी और जितनों का भी समाधान ढूँढे।" मैंने वह दर्शन स्वीकार कर लिया। संकट के बिना संसार भला कैसा होगा !!

सभी प्रकार के संकटों पर दृष्टि तो नहीं डाल सकते। अगर ऐसा जो किया तो वह संकट पुराण, संकट शास्त्र अथवा संकट का एन्साईक्लोपीडिया कहलायेगा। वैसे जिस तरह आजकल लोग हर चीज़ के पीछे पड़े हैं कोई न कोई ऐसा कर ही डालेगा।

फिलहाल कुछ संकटों पर विचार करें तो राजनीतिक संकट का स्मरण मुझे सबसे पहले आता है। मैं कोई राजनीतिज्ञ अथवा नेता नहीं हूँ लेकिन इस महान कर्म की प्रेरणाओं से मैं हमेशा ही ओत-प्रोत रहता हूँ। राजनीति शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है – राज और नीति। राज और राजा को तो हमने आधुनिक युग में पहला कदम रखते ही अपदस्थ कर दिया था। फिर उनकी जगह जो आये उनकी नीतियों ने हमें यानी आप और हम जैसे आम लोगों को अपदस्थ ही नहीं किया वरन अप्रासंगिक भी बना दिया। लेकिन फिर भी हम राजनीति से जुड़े रहते हैं। आम आदमी को ‘आम’ भी तो इसलिये कहा जाता है। वह जुड़े रहना चाहता है – उनसे भी जो उन्हें अस्पृश्य ही क्यों न मानते हों।

राजनीति संकटों का अखाड़ा है। दरअसल संकट राजनीति का ताज है। अगर संकट नहीं तो राजनीति का कोई मूल्य नहीं। एक प्रकार का राजनीतिक संकट वह है जब किसी देश का राष्ट्राध्यक्ष अचानक चल बसता है। हालाँकि उनके रहते भले देश संकटों से लदा रहा हो लेकिन उनके गुज़रते ही ‘राजनीतिक संकट’ देश में गहरा जाता है। हालाँकि उनके जैसे कर्मठ और त्यागी नेताओं की कमी नहीं होती जो अपनी सेवा अर्पण करने के लिये एड़ी-चोटी का प्रयास कर रहे होते हैं। ऐसे अवसर पर वे मन की प्रसन्नता को दबाए जनता और अपने राजीनितिक दल को संकट से उबरने के लिये, संयम बरतने के लिये प्रार्थना सभा कर रहे होते हैं।

एक दूसरे प्रकार का राजीनितिक संकट तब आता है जब चुनाव में किसी भी दल को बहुमत प्राप्त नहीं हो। ऐसा तब होता है जब जनता जान-बूझकर सभी दलों और नेताओं को देश की सेवा करने का सामान अवसर देना चाहती है। सभी दल कहते हैं कि देश पर राजनीतिक संकट आन पड़ा है लेकिन उसके लिये जनता को दोष नहीं देते बल्कि यह कहते फिरते हैं कि देश की सेवा करने का ‘मैनडेट’ (समर्थन) उन्हीं के पास है। हालाँकि संविधान के पितामहों ने दूरदर्शिता से काम लेते हुए ऐसी परिस्थितियों में संख्या और शक्ति प्रदर्शन का प्रावधान कर रखा है जिस कारण लाख गाल बजाने के बाद भी राजनीतिक दलों को एक साझी सरकार की छतरी तले एकजुट होने का अभिनय करना पड़ता है। अगर जो ऐसा न हो तो फिर चुनाव का सामना करना पड़े और मिला हुआ जनता का ‘मैनडेट’ हाथ से फिसल सकता है। वैसे भी जो उनके सबसे कर्त्तव्यनिष्ठ नेता होते हैं – उम्र, छल-कपट, कूटनीति, दोबोलेपन आदि की वरीयताक्रम में उनको अच्छे-अच्छे अवसर वाले पोर्टफोलियो (विभाग) वितरित कर दिए जाते हैं। जिनको मिला वो ख़ुश और जिनको नहीं मिला वे आस्तीन के साँप की तरह साथ-साथ रहते हैं ताकि मौक़ा मिलते ही मित्रता प्रकट कर दें (डंस लें)। जनता की दुविधा दूर हो जाती है यह देखकर कि किस तरह देश के राजसेवकों ने निजी स्वार्थ त्यागकर लूली-लंगड़ी ही सही पर एक साझा सरकार का निर्माण कर लिया है और जगह-जगह एलान कर रहे हैं कि देश का वर्तमान राजनीतिक संकट टल गया है। ऐसे बहुत से संकट राजनीति में आते रहते हैं जिन सबकी चर्चा यहाँ संभव नहीं। इतना कहकर लेखनी को विराम दूँगा कि राजीनीति में चाहे जितने ही संकट आयें राजनीतिज्ञ उनका समाधान अवश्य ढूँढ लेते हैं। वे संकटप्रूफ हैं संकटों से घिरकर भी संकट से निर्लिप्त रह सकते हैं। वैसे संकट पैदा कारणों वालों में उनका नाम सदा से अग्रणी रहा है और आगे भी उनका स्थान कोई नहीं ले पायेगा। अस्तु, सभी प्रकार के राजनीतक संकटों को सामूहिक अभिवादन...

एक संकट आज कल बहुत फैशन में हैं और वह है संस्कृति का संकट। अब संस्कृति चीज़ ऐसी जिसकी न कोई आकृति, नाक-आँख-कान जिसे कोई सीधे-सीधे पहचान सके। न ही कोई घर-परिवार, माता-पिता, चाचा-मौसा, भाई-बहन जिनसे पूछा जाये कि कहीं यह संस्कृति बचपन के किसी मेले-ठेले में खो गयी हो। दूर-दराज में चचेरा-मौसेरा-फुफेरा यहाँ तक कि कोई संगी-साथी भी नहीं। ऐसी बेबस, अकेली भटकती लड़की के बारे में किसको क्या पता? इसलिए मनचले तो क्या अच्छे-अच्छे घर-परिवार वाले लोग हाथ धोकर पीछे पड़े रहते हैं। अब ऐसे में संस्कृति का संकट स्वभाविक ही है। सबकी अपनी-अपनी परिभाषाएँ और अपने-अपने संकट। सारे संस्कृतिकविद एकमत भी नहीं हैं। अब तो मूर्ख एक होकर नहीं रहते हैं विद्वानों की तो बात ही निराली है। एक संस्कृति वाले दूसरी संस्कृति वाले को पसंद नहीं करते। सबको अपनी संस्कृति सबसे प्यारी लगती है। सारी संस्कृतियाँ गुड़ियायें हैं और संस्कृतिप्रेमी बालाओं की तरह अपनी-अपनी संस्कृति के बाल बनाने, काजल लगाने और कुंडल-बाला पहनाने में लगे हैं।

अपने अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि सभी कहते यही है कि संस्कृतियाँ आज अवनति की ओर तेज़ी से बढ़ रही हैं। इतिहास के पन्नों से संस्कृति के विकास के पन्ने गायब हैं। जब से होश संभाले हैं अपसंस्कृति की ही बात सुनता रहा हूँ। मेरे होने के बहुत पहले ही संकृति का संकट गहरा गया होगा। आज तो इतना गहरा है कि संस्कृति कहीं दिखाई ही नहीं देती। हर तरफ संकट ही संकट और उनको गाने वाले लोग ही नज़र आते हैं।

दो नदियों के मिलन को संगम कहते हैं और उस स्थान पर तीर्थ बन जाता है। पर दो संस्कृतियों के मिलने से बनी नई संस्कृति सदैव दूषित ही कहलाती है। उनका हाल न घर का न घाट का वाला हो जाता है। भारत से आये अमेरिका और अन्यान्य देशों में बसे लोगों और उनकी संतति की संस्कृति के बारे में भी लोग ऐसा ही सोचते हैं। संस्कृति का संकट एक बार फिर गहरा हो जाता है। आशा है संकट का बादल कभी तो छंटेगा और हम संस्कृति का दर्शन कर पायेंगे एक दिन। तब तक के लिये इतना ही...।

संकटों में भाषा और साहित्य का संकट सबसे बड़ा है। ऐसा भाषा और साहित्य वाले कहते हैं, दूसरे नहीं। ऐसा इसलिए भी है कि भाषा और साहित्य वाले त्रिकालदर्शी हैं। दूसरे क्षेत्र वाले अगर संकट देखते और समझते भी है (कभी कभार गाते भी..) तो मात्र एक काल यानी वर्तमान को ही देख पाते हैं। उनमें से भी तो बहुत चश्मे के सहारे। । बेचारे...

साहित्यकारों में भी कवि कोमल हृदय होने के कारण संभावी संकट से समय से पहले ही आहत हो जाता है। एक कवि के काव्य संग्रह की लंबी (२०-२५ पृष्ठों के ऊपर) भूमिका में भाषा, संस्कृति, साहित्य और वर्तमान समय के तमाम संकटों का ऐसा विकट और विस्तृत (जीवंत भी) विवरण पढ़कर मैं हत्बुद्ध रह गया। लगा प्रलय आँख के सामने नाच रहा है। अब कुछ भी नहीं बचा हमारे पास। (कवि के पास कविता अंतिम आसारा थी..)। मेरे हाथ-पाँव सुन्न हो गए। आँखें अपने आप मुँद गयीं। धीरे-धीरे जब चेतना लौटी तो हृदय थाम कविताओं पर दृष्टि डाली – संकट ही संकट.. मैंने घबराकर किताब बंद कर दी। घर से बाहर निकलकर छाती भर साँस ली। देखा बच्चे खेल रहे थे, बकरी और गाय पास के मैदान में घास चर रही थीं। बगल में एक भैंस भी आराम से जुगाली कर रही थी। लोग सड़क पर सामान्य दिनों की तरह आ-जा रहे थे। आसमान नीला ही था, बादल भी सफ़ेद और चिड़ियाँ अन्य दिनों की तरह आसमान में और हरे-भरे पेड़ों की डालियों के आस-पास फुदक ही नहीं चहचहा भी रही थीं। मुझे संतोष हुआ की सृष्टि अभी तक कायम है।

साहित्य की बात चली है तो एक दृष्टांत और भी देख लें। एक नये नवेले कवि ने ‘बड़े अरमान से रखा है कदम..’ की धुन पर बचपन से वर्तमान तक की लिखी कविताओं की पांडुलिपि को प्रकाशक के यहाँ प्रकाशन के प्रस्ताव स्वरूप भेजा। प्रकाशक ने वापिस लिखा (बहुत लिखते भी नहीं..) – कविता की बिक्री का संकट बहुत बड़ा है। ऐसे में अगर कविता की पुस्तक की बिक्री दो सौ भी नहीं होती तो पुस्तक (कविता की अन्यथा पंचतंत्र के विष्णु शर्मा और प्रेमचंद को बिना रायल्टी दिये) छापने का साहस टूट जाता है। एक नए संकट से साक्षात्कार हुआ। कविता, कवि और समय के साथ संकट के बारे में अफवाहें सुनी थीं लेकिन इस संकट के बारे में जानकर संकट के प्रति अनुराग और भी गहरा हो गया। संकट ने अपने पैर कहाँ-कहाँ जमा रखे हैं यह तो समय भी नहीं बता पायेगा। ख़ैर, कवि ने प्रकाशक को लिख भेजा – आप चिंता न करें। अगर बाज़ार में चाय-समोसा, सिगरेट-शराब-हुक्का-पानी बिक जाते हैं (और बड़ी आसानी से कुछ तो ग्राहकों की लत और कुछ सरकारी/व्यावसायिक प्रोत्साहन से) तो मैं कविता भी बेच लूँगा। बिकाऊ चीज़ों की लिस्ट में कविता सबसे नीचे नहीं रह सकती।

कवि ने ‘लोकल’ मुद्रक की मदद से किताब ख़ुद ही छाप ली। अपने सम्बन्धियों, शुभचिंतकों और मित्रों (इन त्रियक को अलग-अलग इसलिये लिखा क्योंकि ये विरले ही एक साथ पाए जाते हैं) के सौहार्द्र से पुस्तक वितरित भी कर ली। इस तरह से इस होनहार (चिकने पात वाले भी) कवि ने वर्तमान कविता को ‘बिक्री के संकट’ से उबार लिया। साथ ही प्रकाशक का साहस भी टूटने से रह गया।

आर्थिक संकट संकटों में सबसे ऊपर रह सकता था लेकिन साहित्य वालों के चिल्लपों के बीच यह दूसरे पायदान पर आ गिरा। वैसे भी – जो बोले उसी का बोलबाला/जो चीखे उसी का चोला। अगर अर्थ लुप्त हो जाये तो अनर्थ ही तो होगा। पूरी दुनिया हमेशा की तरह चलती रहती है। कुछ भी बदला नज़र आता नहीं है। लेकिन आर्थिक संकट के आराधक टेलीविजन, किताब, पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से आर्थिक संकट के आवाहन में लगे रहते हैं। विकास की दर के चोटी पर पहुँचने से पहले ही लोग उसकी पूँछ पकड़ कर खींचने लगते हैं। आखिर वह है ही कितनी दूर एक दिन अचानक प्रगट हो जाता है। सरकारें और कंपनियाँ एलान कर देती हैं कि आज आर्थिक संकट की दूसरी सालगिरह है। लीजिए आर्थिक संकट हमारे घर दो साल से मेहमान बना है और मेज़बान को ख़बर ही नहीं। फिर त्राहिमाम मच जाता है। सब अपने-अपने तरीके से आर्थिक संकट के स्वागत की तैयारियाँ करने लग जाते हैं। कोई घर बेच रहा है पर बिक नहीं रहा। कोई कंपनी बंद करना चाहता है लेकिन कर्मचारी बंद करने नहीं दे रहे। कोई सबका वेतन घटा रहा है (अपने को छोड़कर)। कंपनियाँ कर्मचारी को निकाल रही हैं और प्रतिक्रया स्वरूप बाज़ार में उनके शेयर उछल रहे हैं। यह जानते हुए भी कि यह आर्थिक संकट कोई पहली बार नहीं आ रहा लेकिन सभी नए उत्साह के साथ स्वागत करने में लगे हैं। ऐसा भव्य स्वागत अभूतपूर्व है। ऐसा आदर-सत्कार पाकर आर्थिक संकट भी आसान जमाकर बैठ जाता है। एक-दो-तीन देखते-देखते कितने साल गुज़र जाते हैं, आर्थिक संकट मुँह ढाँके लेट जाता है। सरकारें गिर जाती हैं, लोग पहले सड़कों पर आते हैं, प्रदर्शन करते हैं फिर आग लगा देते हैं – हाय-हाय, ठायं-ठायं, बाय-बाय के बीच आर्थिक संकट अपने पैर जमा लेता है। आर्थिक संकट रूपी अंगद के पाँव को हिलाने में सारे अर्थशास्त्री (नोबेल पुरस्कार विजेता भी) लगे हैं लेकिन वह गदा लिये विजयी मुस्कान के साथ खड़ा है। अब इन अर्थशास्त्रियों को नोबेल पुरस्कार देते हुए यह अनुबंध तो कराया नहीं गया था कि जब-जब विश्व में आर्थिक संकट आएगा तब-तब ही उन्हें कोई समाधान देना होगा। वैसे भी पुरस्कार और सम्मान का सम्बन्ध साधन और समाधान से कितना ही रह गया है। अगर जो इन व्यावहारिक कसौटियों पर पुरस्कार के लिये लोगों को तौलने लगें तो पता लगा पुरस्कार देने वाली संस्थाएँ पुरस्कार के उचित अधिकारियों के अभाव में बंद होने लगीं। इसलिये उचित यही होगा कि पुरस्कार बँटते रहें और लोग पुरस्कृत होते रहे चाहे समाधान निकलें न निकलें। विश्वास कीजिये अर्थशास्त्रियों के प्रताप से नहीं भले पर समय के आदेशानुसार वह भी वापस चला जायेगा। इसके साथ ही संकट का यह सर्ग भी समाप्त करने की आज्ञा चाहता हूँ।

अन्त में एक नोट – ‘संकटशास्त्र’ के प्रेस में जाते ही अपनी प्रतियाँ बुक करा लें नहीं तो आपको तो पता ही है कि संकटप्रेमी ऐसी चीज़ों को हाथों-हाथ ले लेते हैं। । और आप पुस्तक की अनुपलब्धता के संकट में न पड़ जाये...

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