अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

इंतज़ार

 

सुलोचना तीन बहनों में सबसे बड़ी थी और पढ़ने-लिखने में काफी तेज़ थी। उसकी माँ को घर वाले हमेशा ताने मारते थे कि उसने लड़के को क्‍यों नहीं जनमा। शायद सुलोचना के भाग्‍य में भाई और माँ के भाग्‍य में बेटे का सुख लिखा ही नहीं था। वह जैसे-जैसे बड़ी हो रही थी उसका रूप निखरता जा रहा था। 10 वर्ष की सुलोचना दीपावली के पर्व पर अपने पिताजी का बड़ी बेसब्री से इंतज़ार कर रही थी कि पिताजी आएँगे और वह उनके साथ बाज़ार जाएगी और ख़ूब मिठाई व पटाखे ख़रीदेगी। लेकिन नियति को शायद यह मंजूर न था, ख़बर आई कि उसके पिता जी की सड़क दुर्घटना में मौत हो गई। ऐसी ख़बर सुनकर मानों उसके और उसकी माँ के ऊपर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा, गहरा सदमा लगा, उनके शरीर बेजान से हो गए थे। पूरा परिवार शोकाकुल हो गया था। काल के क्रूर पंजों ने उसके सिर से पिताजी का साया छीन लिया था । वह और उसकी माँ पूरी तरह टूट चुकी थीं। नियति ने जो घाव दिया था वह भरने का नाम ही नहीं ले रहे थे। लेकिन समय सबसे बड़ा मरहम है, जैसे-जैसे समय बीतता गया घर-परिवार सामान्‍य होने लगा। इस घटना ने तो उसकी माँ के दिलोदिमाग पर ऐसा गहरा असर किया कि वह बेचारी अपनी सुध-बुध ही खो बैठी थी और दरवाज़े की तरफ हमेशा अपने पति के आने का इंतज़ार करती रहती थी।

सुलोचना जब यह याद करती थी कि पिताजी उसको कितना प्‍यार करते थे और उसे कैसे अपने कंधें पर बिठाकर मेला घुमाने ले जाया करते थे, उसकी हर ज़िद को कितने प्‍यार से पूरा करते थे तो उसकी आँखों में आँसू छलक आते थे। पिताजी के स्‍वर्गवास होने से उसके परिवार की आर्थिक स्थिति ख़राब हो गई थी। उसने कॉलेज में दाखिला ले तो लिया किंतु उसके पास फ़ीस भरने के भी पैसे नहीं थे। परिवार की आर्थिक स्थिति इतनी ख़राब हो गई थी कि कॉलेज की फ़ीस जमा करना तो दूर की बात दो वक़्त के भोजन का भी बड़ी मुश्किल से जुगाड़ हो पाता था। उसके मोहल्‍ले के एक अमीर परिवार का लड़का गिरीश जो उसका बचपन का दोस्‍त था जो उसको बहुत पसंद करता था। उसने भी उसके कॉलेज में दाखिला लिया था। सुलोचना को फ़ीस जमा करने के चिंता सताए जा रही थी और वह इसी उधेड़बुन में बस स्‍टॉप की ओर चली जा रही थी। तभी उसको एहसास होता है कि उसका कोई पीछा कर रहा है। वह और कोई उसके बचपन का दोस्‍त गिरीश था।

गिरीश ने सुलोचना से कहा, “तुम्‍हारे पिताजी के बारे में सुनकर मुझे बहुत दुख हुआ, तुम इतना चिन्‍ता क्‍यों करती हो? मुझे बताओ शायद मैं तुम्‍हारी कुछ मदद कर सकूँ।”

सुलोचना ने कहा, “नहीं, कोई बात नहीं।”

लेकिन गिरीश के बार-बार कहने पर सुलोचना ने अपनी फ़ीस के बारे में बताया तो गिरीश ने कहा बस इतनी-सी बात और उसने रुपए निकालने के लिए अपना पर्स खोला और दो हज़ार रुपए निकालकर सुलोचना को देना चाहा परंतु सुलोचना ने रुपए लेने से मना कर दिया। गिरीश ने सुलोचना को समझाते हुए कहा कि तुम्‍हारे कैरियर का सवाल है जब तुम्‍हारे पास रुपए हो जाएँ तो वापस लौटा देना। सुलोचना इस शर्त पर रुपए लेने को तैयार हो गई और उसने गिरीश को धन्‍यवाद दिया साथ ही कहा कि वह थोड़े-थोड़े करके रुपए वापस लौटा देगी। गिरीश बोला मुझे इंतज़ार रहेगा। सुलोचना भी बड़ी उसूलों वाली लड़की थी । वह अब स्‍वयं पढ़ने के साथ-साथ छोटे बच्‍चों को ट्यूशन पढ़ाने लगी और घर पर ही एक छोटा-सा ब्‍यूटी पार्लर खोल लिया था । सुलोचना के कंधों पर बहनों की पढ़ाई तथा माँ के इलाज की भी ज़िम्‍मेदारी उसके ऊपर थी। जीवन की गाड़ी धीरे-धीरे चल पड़ी थी। लेकिन नियति को शायद कुछ और ही मंजूर था, उसकी माँ को हृदयाघात हुआ, आनन-फानन में माँ को चिकित्‍सालय पहुँचाया गया। डॉक्‍टर ने उसकी माँ को आई.सी.यू. में यह कहकर ले गए कि आपरेशन करना पड़ेगा और एक लाख रुपयों का इंतज़ाम करने को कहा। सुलोचना के लिए यह रक़म बहुत बड़ी थी। वह इतनी बड़ी रक़म का इंतज़ाम कहाँ से करे, बहुत चिंतित थी। तभी उसके कंधे पर किसी ने पीछे से हाथ रखा, वह और कोई नहीं बल्कि उसका बचपन का दोस्‍त गिरीश आज भी संकटमोचन बनकर उसके सामने खड़ा था। दोस्‍त ने एक बार फिर सुलोचना की सहायता की और उसकी माँ के इलाज हेतु रुपए काउंटर पर जमा करा दिए। सुलोचना ने गिरीश से कहा कि मैं यह एहसान कैसे उतार पाऊँगी। गिरीश व सुलोचना आई.सी.यू. के बाहर माँ का इंतज़ार करने लगे। तभी आपरेशन थियेटर का दरवाज़ा खुलता है और डॉक्‍टर ने दुखद समाचार दिया कि उसकी माँ को नहीं बचा सके। इस तरह उसके सिर से उसकी माँ का साया भी हट चुका था। वह अब पूरी तरह टूट चुकी थी, जीवन से निराश हो चकी थी। ऐसे समय में एक बार गिरीश ने फिर उसको सँभाला और उसकी ढांढस दिलाया।

समय बीतता गया सुलोचना ने अब एक बार फिर अपने आपको सँभाला। फिर अपने परिवार के भरण-पोषण में लग गई। इसी बीच गिरीश और सुलोचना एक-दूसरे को पंसद करने लगे थे। वे दोनों समाज से अनभिज्ञ थें। दोनों की जातियाँ भी अलग थीं। समाज के ठेकेदार हमेशा इसका विरोध करते आ रहे थे। दोनों एक-दूसरे को जी-जान से चाहने लगे थे। इस बात के चर्चे गिरीश के परिवार के पास पहुँच ही गए, फिर क्‍या था? परिवार वाले यह रिश्‍ता तोड़ने का दवाब बना रहे थे। लेकिन गिरीश के तो रोम-रोम में सुलोचना बसी थी। उसने अपने परिवार से कहा कि यदि विवाह करूँगा तो सुलोचना से नहीं तो विवाह ही नहीं करूँगा। परिवार वालों ने उसे दूर उसके मामा के पास भेज दिया। गिरीश जाने से पहले सुलोचना से कहा उसका इंतज़ार करना दिन, महीने तथा साल बीत गए और इस तरह पंद्रह साल बीत गए थे। सुलोचना टूट चुकी थी उसकी छोटी बहनें भी अब पढ़-लिखकर बड़ी हो गई थीं। सुलोचना ने उनका विवाह कर दिया। लोगों ने उसको भी सलाह दी वह भी अब विवाह कर ले, गिरीश अब उसके जीवन में कभी नहीं आएगा। ऐसा सुनकर बेचारी के आँखों में आँसू झलक आते थे। उसके चेहरे की चमक अब ग़ायब थी। वह अब बहुत दुबली हो गई थी। उसकी आँखें अंदर की तरफ़ धँस सी गई थीं। वह अब भी अपने गिरीश का इंतज़ार कर रही थी। गिरीश शायद आज आएगा . . . कल आएगा और उसकी माँग में सिंदूर भरकर उसको अपना लेगा। सुलोचना के जीवन में अकेलापन घर कर गया था। वह जाड़े के दिनों में अपने आँगन में धूप सेंक रही थी, तभी उसके नज़दीक एक युवक आया जिसके हाथ में मंगलसूत्र व सिंदूर की डिब्‍बी थी। वह धीरे-धीरे सुलोचना की तरफ़ ही आ रहा था। वह युवक और कोई नहीं उसका गिरीश था। मानो आज सुलोचना के पंद्रह वर्षों का इंतज़ार ख़त्‍म होने का समय आ गया था। गिरीश ने उसकी माँग में सिंदूर भरा और गले में मंगलसूत्र पहनाया और कहने लगा कि अब हम दोनों को दुनिया की कोई भी ताक़त अलग नहीं कर सकती है। दोनों की आँखों में आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। सुलोचना के जीवन में शायद यह पहली ख़ुशी थी। गिरीश ने कहा सुलोचना अब और इंतज़ार नहीं, हम दोनों इस शहर को छोड़कर दूसरे शहर में रहेंगे। जहाँ हमारे बीच में हमारा परिवार व समाज के ठेकेदार नहीं होंगे। इसी के साथ दोनों एक नई ज़िन्दगी की शुरूआत करने अपने नए सफ़र पर निकल पड़े। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

हास्य-व्यंग्य कविता

कहानी

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं