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जंग

सुन तो रहा था कुछ दिनों से मगर मन में विश्वास था कि मुझसे बात किये बिना बिल्डर कोई क़दम नहीं उठायेगा। भले ही मेरी पत्नी के नाम हो लेकिन उसे अच्छी तरह पता था कि दुकान मेरी है, कि वास्तविक मालिक मैं हूँ। फिर व्यवसाय कर रहा हूँ यहाँ पिछले छह सालों से। बात करने के लिये कोई मशक़्क़त भी नहीं करनी थी उसे। आदमी भेजकर केवल बुलवाना था। मैं मिल आता बिल्डर से। रौब से, विनम्रता से, लेन-देन के अन्दाज़ में या समझाकर जो कुछ कहना चाहे, कह सकता था। क्योंकि उसकी आयु लगभग साठ वर्ष है और मैं अभी तीस का भी नहीं हुआ हूँ, क्योंकि वह शहर के बेहद मशहूर काम्प्लेक्स का कर्णधार है और मैं काम्प्लेक्स की लगभग दो सौ दुकानों में से सिर्फ़ एक का मालिक हूँ, क्योंकि उसके रसूख़ात का एक छोटा सा हिस्सा भी मेरे नसीब में नहीं है, क्योंकि उसकी हैसियत के सामने मेरा वुजूद शून्य है इसलिये यदि बुलाकर बात करता तो मैं शायद ही उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ अपनी चलाने का साहस कर पाता। 

परन्तु बिल्डर ने न बात की और न बताया। अचानक मज़दूर आये और दुकान के सामने तोड़-फोड़ शुरू कर दी। देखा तो चौंक गया। भनक के बावुजूद क्योंकि भरोसा था कि बात किये बिना बिल्डर काम शुरू नहीं करायेगा, इसलिये एक बार तो लगा कि कुछ और करा रहा होगा। काम उसका इन्जीनियर करा रहा था। देखा-भाला था। मैं दुकान से नीचे उतरा। इंजीनियर से पूछा तो पता लगा, किसी दूसरे उद्देश्य से नहीं, तोड़-फोड़ बेसमेंट में जाने के लिये सीढ़ियाँ बनवाने के मक़सद से की जा रही है। दुकान के सामने वाली जगह का आधा भाग खोदकर वहाँ से नीचे उतरने के लिये सीढ़ियाँ बनाई जानी थीं। अगर यहाँ सीढ़ियाँ बनती हैं तो मुझे, केवल मुझे नुक़्सान होगा। दुकान की दस फीट की चौड़ाई घटकर पाँच फीट रह जायेगी। अन्दर आने का रास्ता तो संकड़ा होगा ही, दुकान की ख़ूबसूरती पर भी असर पड़ेगा। क़ीमत घट जायेगी। अगर किराये पर देना चाहूँगा तो आज की तुलना में लेने वालों की संख्या कम होगी। किराया कम मिलेगा। ग्राहक का ध्यान कम आकर्षित होगा। बिक्री कम होगी। मुनाफ़ा घटेगा। 

इंजीनियर को निवेदन किया कि मैं बिल्डर से बात करता हूँ। जब तक बात हो जाये, मेहरबानी करके काम रुकवा दे। उसने मेरा अनुरोध आसानी से स्वीकार कर लिया। निश्चय ही, बिल्डर को तोड़-फोड़ शुरू कराने के बाद संभावित मेरी प्रतिक्रिया का पूर्वानुमान था। इंजीनियर को नरम रहने के लिये पहले ही कह दिया होगा उसने। अन्यथा निवेदन क्या, गिड़गिड़ाने का भी ख़ातिरख़्वाह असर इंजीनियर के ऊपर पड़ता, यह बात असंभव थी। आख़िर नौकर तो बिल्डर का था वह! 

मैं गया तो बिल्डर ऑफ़िस में नहीं था। लौटकर इंजीनियर को बताया तो उसने ख़ुद ही कहा, “आप आजकल में सर से बात कर लीजियेगा। काम मैं आपके कहने के बाद ही शुरू कराऊँगा।” बिल्डर से मिलने की मैंने फिर कोशिश की, लेकिन शाम तक मुलाक़ात नहीं हो सकी। कोई विकल्प नहीं था बिल्डर से मुलाक़ात को दूसरे दिन पर डालने के अतिरिक्त। 

कल बिल्डर से बात ज़रूर करूँगा मगर मुझे उससे कोई लाभ होने की सम्भावना नज़र नहीं आ रही थी। मेरे दुकान का रास्ता काटकर बेसमेंट में जाने के लिये सीढ़ियाँ बनवाने की इजाज़त उसे क़ानून नहीं देता। मैं वाद दायर करूँ तो सीढ़ियों के निर्माण पर रोक भी लगेगी और उस जगह से सीढ़ियाँ न निकालने के लिये बिल्डर को पाबन्द भी किया जायेगा। लेकिन मुझे कारोबार यहीं चलाना है, इसी काम्प्लेक्स में। कोई न कोई बहाना बनाकर बिल्डर मुझे तंग करेगा। दुकान ख़रीदी हुई है। छोड़कर कहीं और जाया नहीं जा सकता। बेचूँगा तो कायर कहलाऊँगा। वैसे पीठ दिखाना भी चाहूँ तो इस समय कौन मूर्ख होगा जो ख़रीदेगा यह दुकान मुझसे? काम्प्लेक्स के लगभग सभी दुकानदार बिना विरोध किये बिल्डर की सही-ग़लत सब बातें मानते हैं। अदालत जाऊँगा तो कोई भी दुकानदार साथ नहीं देगा। हो सकता है, बिल्डर के इशारे पर कुछ दुकानों के मालिक मेरा मुखर विरोध करें। जीना मुहाल हो जायेगा। 

जैसा अन्देशा है, बातचीत के बाद भी यदि बिल्डर नहीं मानता है तो क्या मैं उसे सीढ़ियाँ निकलवाने दूँ? अन्याय कर रहा है। ग़लत और ग़ैरवाजिब काम कर रहा है। ग़ैर क़ानूनी क़दम उठा रहा है। इसके बावुजूद चुपचाप नुक़्सान बर्दाश्त करूँ? हो सकता है, यहीं से सीढ़ियाँ निकलवाने के लिये बिल्डर ने नक़्शे अनुमोदित करा लिये हों। रुपये के बल पर क्या नहीं हो कराया जा सकता है आजकल? बात करूँगा तो तुरत फुरत जवाब देगा, “मैं क्या कर सकता हूँ? कारपोरेशन का आदेश है। मैं तो केवल पालन कर रहा हूँ उसका।” 

अगर मान लूँ, बेसमेंट में जाने के लिये मेरे दुकान के सामने से सीढ़ियाँ निकालने का आदेश सचमुच कारपोरेशन ने दिया है तब भी मूल रूप से प्रस्ताव तो बिल्डर का रहा होगा! मेरे आसपास सारी दुकानें बिल्डर की अपनी हैं। जिस भी दूसरी दुकान के सामने से सीढ़ियाँ निकलेंगी, वह बिल्डर की होगी। दुकान की क़ीमत गिरेगी तो नुक़्सान सीधा बिल्डर का होगा। नक़्शे अनुमोदित कराने के लिये जितनी रक़म ख़र्च हुई होगी, संभावित नुक़्सान की तुलना में बहुत कम है। बिल्डर हर तरह से फ़ायदे में है। मेरी दुकान के सामने सीढ़ियाँ बनेंगी तो नुक़्सान किसी दूसरे को नहीं, अकेला मुझे होगा। इसके बावुजूद भविष्य की सम्भावनाओं से डरकर बिल्डर की दादागिरी को बर्दाश्त कर लूँ? फिर ताक़त का इतना घमण्ड कि काम शुरू कराने से पहले बताने या बात करने की आवश्यकता भी महसूस नहीं हुई उसे? नपुंसक बनकर देखना रहूँ यह नाक़ाबिले बर्दाश्त घटना? 

शाम को वकील से सलाह ली। मौक़े पर ले जाकर उसे सारी स्थिति से अवगत कराया। सारा मामला समझने के बाद उसने विश्वास दिलाया कि अदालत से पहले काम रुकवाना और बाद में स्थायी निषेधाज्ञा लेना सम्भव है। काग़ज़ तैयार करने में एक दिन का समय लगेगा। किसी भी तरह एक दिन के लिये अपने स्तर पर प्रयत्न करके काम बन्द रखवाना पड़ेगा। काम शुरू हो गया तो अदालत की रोक के बाद, तब तक हुई ख़ुदाई या निर्माण अन्तिम निर्णय आने तक यथास्थिति में रखना पड़ेगा। स्वाभाविक है, इससे दीर्घकाल तक दुकान प्रभावित रहेगी। बिल्डर काम बन्द रखे, इसका उपाय भी वकील ने बताया। 

तदनुसार दूसरे दिन सुबह मैं और मेरी पत्नी बिल्डर के घर गये। पत्नी साथ थी इसलिये आवश्यकता पड़ने पर अदालत में दलील दी जा सकती थी कि दुकान मालिक ने स्वयं बिल्डर से अनुरोध किया था। थोड़ी ही सही, लेकिन यह सम्भावना भी थी कि महिला की उपस्थिति में बिल्डर कुछ नरमी दिखायेगा। हो सकता है, अन्यथा भी बिल्डर घर में सलीक़े से पेश आता! हो सकता है, पत्नी साथ थी इसलिये बिल्डर ने चाय पिलाकर शिष्टता से बातचीत की हो!! बहरहाल घुमा-फिराकर बिल्डर ने समझाने की पुरज़ोर कोशिश की कि सीढ़ियाँ निकलने से हमें नुक़्सान नहीं, फ़ायदा होगा। अगर सीढ़ियाँ निकालने की हम स्वीकृति देते हैं तो उसका भरपूर सहयोग और सहकार मिलता रहेगा। दूसरों को जिनकी अनुमति नहीं मिलती, ऐसे काम भी हमें करने दिये जायेंगे। प्रकारान्तर से नरम रेशमी कपड़े में लपेटकर बिल्डर धमकी दे रहा था, “सीढ़ियाँ बनवाने में अड़ंगा डालोगे तो छोड़ूँगा नहीं तुम्हें! कारपोरेशन का आदेश है। नक़्शे स्वीकृत हैं। तुम कुछ भी कर लो, सीढ़ियाँ हर हाल में बनेंगी।” 

सोचने के लिये दो दिनों का समय लेकर हम लौट आये। योजनानुसार दो दिन हमारे पास थे। इस बीच अदालती कार्रवाई करके बिल्डर को पाबन्द किया जा सकता था। 

माना, बिल्डर को अदालत काम करने से नहीं रोक सकती! सीढ़ियाँ भी बनेंगी और बिल्डर से हमेशा के लिये दुश्मनी भी तय हो जायेगी। पैसा बरबाद होगा। बेइज़्ज़ती होगी। काम्प्लेक्स के दुकानदारों की दृष्टि में उपहास का पात्र बनूँगा। तो फिर, चुप क्यों न रह जाऊँ? होने दूँ जो होता है। अगर विसाले सनम न हो और ख़ुदा भी न मिले तो इतनी मशक़्क़त क्यों की जाये? 

मैं मूल रूप से सिन्ध का रहने वाला हूँ। विभाजन के समय लाखों की संख्या में सिन्धीभाषी भारत आये। आर्थिक दृष्टि से लुटे-पिटे, रोटी-कपड़े-मकान की दृष्टि से मोहताज और भविष्य को लेकर अनेक आशंकाओं से घिरे उन लोगों के पास मेहनत के जज़्बे के अतिरिक्त कोई सम्पदा नहीं थी। बुद्धि से काम लेते हुए उन्होंने जी तोड़ परिश्रम किया। शर्म, लिहाज़ और अपना अतीत भुलाकर परिवार के हर छोटे–बड़े सदस्य ने वह सब किया जो सिन्ध में रहते हुए कल्पनातीत होता। स्थानीय लोग, पड़ौसी, व्यापारी, मिलने-जुलने वाले, परिचित क्या कहते या सोचते हैं इसकी चिन्ता न करके अपने पैरों पर खड़े होने के लिये उन्होंने संघर्ष किया। सर्दी, गर्मी, बरसात उनकी राह रोक नहीं पाई। परिश्रम किया ज़रूर मगर बुद्धि को जेब में रखकर नहीं, उसका खुलकर इस्तेमाल करते हुए। प्रगति की तलाश में दिन को दिन व रात को रात नहीं समझा उन्होंने। जहाँ आवश्यक लगा, झुके। जहाँ आवश्यक लगा, समझौते किये। जहाँ आवश्यक लगा, टकराये। 

इस बिल्डर ने जो किया है मेरे साथ, वह तो कुछ भी नहीं है। दुकान और मकान मालिक, सरकार और कारपोरेशन, पुलिस वाले और गुण्डे, छोटे और बड़े स्थानीय व्यापारी, भाषा और स्वभाव, सम्मान की आकांक्षा और अनुपलब्धता की अँधेरी कन्दराओं में से गुज़रते हुए साम, दाम, दण्ड, भेद सबकुछ आवश्यकतानुसार आज़माया था उन्होंने। समय साक्षी है कि आसमान से ज़मीन पर धड़ाम से आ गिरे सिन्धीभाषियों के कंठ का सफलता के उन सब पुष्पहारों ने वरण किया, जिनके वे हक़दार थे। हताश होकर हाथ-पाँव डाल देते, मैदान छोड़ देते तो जो गौरवपूर्ण स्थान आज उन्हें प्राप्त है, कभी नहीं मिलता। 

ठीक है कि मैंने वे कठिन दिन नहीं देखे हैं लेकिन मैं जानता हूँ कि मेरी रगों में दौड़ते ख़ून का रंग सब इन्सानों की तरह लाल होते हुए भी एक विशेष प्रकार की चमक लिये हुए है। चमक न होती तो संभवतः बहुत पहले मैं हार मान चुका होता। भले ही बिल्डर और काम्प्लेक्स के दुकानदार सदा के लिये वैरी बन जायें, भले ही बरबाद हो पैसा, लेकिन अन्याय बर्दाश्त नहीं करूँगा। ज़िला अदालत ने रोक नहीं लगाई तो उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय में अपील करूँगा। सच के सूरज को हथेली से नहीं छिपा सकता बिल्डर! 

मेरी मुट्ठियाँ ज़ोर से कस जाती हैं। मासपेशियां तन जाती हैं। कायरता नहीं दिखाऊँगा। लड़ूँगा, ज़रूर लड़ूँगा यह जंग मैं। 

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