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समीक्षित पुस्तक: ऐ वहशते-दिल क्या करूँ (संस्मरणात्मक उपन्यास) 
लेखक: पारुल सिंह 
प्रकाशक: शिवना प्रकाशन, सम्राट कॉम्प्लैक्स बेसमेंट, सीहोर मप्र 466001
प्रकाशन वर्ष: 2024
मूल्य: ₹300/-
पृष्ठ संख्या: 234

 

पारुल सिंह मूलतः एक कवयित्री है, यह बात उसके पुस्तक के शीर्षक से ही स्पष्ट हो जाती है। ‘ऐ वहशते-दिल क्या करूँ’ उसका प्रथम संस्मरणात्मक उपन्यास है। इस उपन्यास का विषय दिल की सर्जरी के समय और बाद में हस्पताल में बिताए कुछ दिनों का लेखा-जोखा है। मज़े की बात यह है कि इस उपन्यास का पात्र कोई काल्पनिक, पौराणिक, ऐतिहासिक, उत्तर-आधुनिक या किसी वाद-विमर्श के दायरे में से नहीं है। सच तो यह है कि ये ‘बाय वन गैट वन फ़्री’ वाली स्थिति जैसा है, जिसमें लेखिका स्वयं ही केंद्रीय पात्र के रूप में विराजमान है, हाड़-माँस की जीती-जागती महिला। पहले हैरानी हुई कि सर्जरी संबंधी संस्मरणों में क्या लिखा होगा, सर्जरी से पहले की पीड़ा, बाद के कष्ट, दुख-तकलीफ़ें . . . हस्पतालों का बुरा हाल, डाक्टर-नर्सों की भागमभाग, वहाँ फैली अव्यवस्था, गंदगी, कर्मचारियों की परिवारजनों व संबंधियों संग नुक्ताचीनी और सबसे बढ़ कर वहाँ का रुदन भरा माहौल व चिल्लम-पौं! हाँ, यदि यह कोई सरकारी हस्पताल होता तो उपर्युक्त वर्णित सब कुछ होता परन्तु यह दक्षिणी दिल्ली का एक प्रतिष्ठित हस्पताल है, जिसकी गुणवत्ता कई दशकों से बरक़रार है, इसलिए ऐसा कुछ नहीं था। 

पारुल अपनी बीमारी की शुरूआत और उसकी मुख्य-मुख्य घटनाओं के द्वारा एक प्रकार से इस उपन्यास की भूमिका बाँध देती है। नपे-तुले शब्दों में, मुख्य बात पर फ़ोकस करती है। इससे अंदाज़ा हो जाता है कि लेखिका के पास रचनाशील कौशल है। उसे मालूम है, कहाँ उसे विस्तार देना है और कहाँ बात को संक्षेप में समेट देना है। वह ओपन हार्ट सर्जरी के बहाने, पाठकों के सामने अपने आप को खोल कर प्रस्तुत कर देती है। हार्ट की सर्जरी करते हुए, उसके डॉक्टरों ने उसका हार्ट खोल कर, लीक हो रहे वाल्व को बदला और इधर लेखिका ने इस का फ़ायदा उठाते हुए, सर्जरी के बाद आई.सी.यू. और बाद में वार्ड के चंद दिनों के अनुभव साझा करते-करते, अपने जीवन, बचपन, स्कूल-कालेज व विवाहित जीवन की कुछ-कुछ टुकड़ियों को पाठकों सामने ‘लीक’ (उजागर) कर दिया। जिससे कुल मिलाकर जो तस्वीर बनी, उससे लेखिका के पारिवारिक चरित्रों के गृहिणी, पत्नी, माँ, लेखिका, बेटी, मित्र के विभिन्न रूपों के साथ उसका व्यक्तित्व, स्वभाव, संवेदनशीलता और जीवन को जानने-समझने का नज़रिया सामने आया। 

लेखिका ने सर्जरी के लिए ‘ओटी’ में जाने के साथ ही पाठकों को अपने साथ बाँध लिया। ऐनेस्थेज़िया के प्रभाव में चेतनाशून्य होने से पहले उसने अवचेतन रूप से सारे हस्पताल का चक्कर लगाया और लॉज में प्रतीक्षा में उदास बैठे माँ-बाप और पति के साथ अनेक बातें कर, उन्हें दिलासा दिया। उसने अपने अंर्तमन से देख लिया कि उसके परिवारवाले किस स्थिति में वहाँ बैठे क्या सोच रहे होंगे। फिर उसने डॉक्टरों के सामने सम्पर्ण कर दिया। 

आई.सी.यू. के उन दो-चार दिनों जिसे उसने मानसिक पर्यटन और ‘सोलो ट्रिप’ का नाम दिया। जहाँ उसके करने के लिए वैसे तो कोई काम नहीं था, वह पूरी तरह से डॉक्टरों व नर्सें के साथ बहुत सारी ट्यूबों-नालियों व मशीनें के हवाले थी। उसका सदुपयोग उसने मानसिक पर्यटन करते हुए किया, जब उसके पास वक़्त ही वक़्त था। वह कुछ भी सोचने के लिए आज़ाद थी। उसकी सोच ने अपने पूरे जीवन को एक चक्र रूप में फिर से खंगाल लिया। हस्पताल में सभी ने उसकी पूरी देखभाल भी की परन्तु दो दिन बाद उससे कह दिया गया कि भई, डॉक्टरों ने तुम्हें बचा लिया है, अब अपने आप को ख़ुद सँभालो। सारी उम्र डॉक्टर व नर्सें उसके साथ-साथ नहीं रहेंगे। उसे स्वयं को मज़बूत करने के लिए लंबी-लंबी साँसें लेना, भाप लेना, फिजियो-थैरेपी के लिए उठना-बैठना पड़ेगा। इसमें न पानी पीने की इजाज़त थी और न बार-बार सोने की। अत्यन्त प्यास के समय उस आधे गिलास पानी की अहमीयत और बेसुध सो जाना बहुत बड़े सुखों में शुमार होने के बारे में पता लगा। 
रचना के केंद्र में लेखिका स्वयं अवश्य है परन्तु उसने आई। सी। यू। के अन्य सभी मरीज़ों की भी जानकारी, उनके दैनिक क्रिया-कलापों, उनकी बीमारी के बारे में भी बताया। छोटी-छोटी घटनाओं से, कुछ अस्पष्ट वाक्यों से उनके स्वभावों को भंाप लिया। डोरा सिंह या धोरा सिंह की हठधर्मिता, सुदेश जी का जीवन से एकदम किनारा कर लेना। एक युवक का सर्जरी से पहले घबरा जाना। इससे पता लगता है कि लेखिका कहीं भी, कभी भी स्व-केंद्रित स्वभाव की नहीं रही, तभी उसने न केवल आई.सी.यू. के उस समय मौजूद मरीज़ों से पाठकों का परिचय करवाया बल्कि जब कभी भी अपने जीवन के किसी हिस्से को खोला तो उसमें माँ-बाप के साथ, अध्यापक, प्रिंसीपल, सखियाँ, सीनियर सभी शामिल होते गए। लेखिका द्वारा खोली खिड़की से अनजाने में ही पाठकों को अस्सी के दशक के स्कूल-कालेजों की एक झलक मिल गई। क़स्बेनुमा छोटे स्थान पर रहते हुए भी, डॉक्टर पिता और दूरअंदेश माँ के साये में, वह आत्म-विश्वास से लबरेज़ होती गई। हालाँकि अपनी सोच से अधिक समझदारी दिखाते हुए उसने सखा मनोज के साथ साँसों को बचाने का एक नायाब तरीक़ा भी खोज निकाला ताकि मृत्यु के समय अपनी आख़िरी बात कहने पर उसे साँसों की कमी न हो, पर उसे मालूम नहीं था कि ये साँसें मृत्यु से बहुत पहले ही उसके साथ आँख-मिचौली खेलने लगेगी और इन्हें बचाए रखने के लिए उसे डॉक्टरों के साथ स्वयं भी बहुत मेहनत करनी पड़ेगी। सर्जरी की शरीरिक पीड़ा से बचने के लिए उसे मर जाना बेहतर लगा, जो अच्छे डॉक्टरों, चिकित्सीय देखभाल से सम्भव नहीं हो पाया। तभी तो पाठकों को इस संदेश का व्यावहारिक स्वरूप देखने को मिला कि ‘आत्मबल से मौत को भी हराया जा सकता है।’

इसमें संदेह नहीं, लेखिका न केवल बहुत अच्छी ‘ऑब्ज़र्वर’ है बल्कि उसकी याददाशत भी अच्छी है। तभी स्वयं तकलीफ़ में होने के बावजूद उसने नर्सों, डॉक्टरों, वार्ड ब्यॉज़, खाना पहुँचाने वाले कर्मचारियों और मरीज़ों का पल-पल का हिसाब रखा। वह अपने चेतन मन से जान पायी, नर्सों, डॉक्टरों के पास अपने जीने के लिए वक़्त नहीं। सारा समय एक टाँग से दूसरी टाँग पर वे सभी इधर-भागते रहते हैं। इसी भागमभाग के कारण डॉक्टरों के लिए उनके मरीज़ ‘ऑब्जेक्ट’ बन कर रह जाते हैं। कुछ वाक्यों का इस्तेमाल केवल औपचारिकतावश किया जाता है। मरीज़ की ओर से उसके जवाब की प्रतीक्षा किए बिना आगे क़दम पर बढ़ जाना, उनकी व्यवस्तता की निशानी है परन्तु किसी की भी ग़लती को न बख़्शने वाली लेखिका ने अपने डॉक्टर की अत्यन्त प्रशंसा करते हुए भी उसके स्वभाव के रुखेपन व डाँट को नज़रअंदाज़ नहीं किया। शायद इसी कारण पुस्तक के फ़्लैप में उनके प्रिय डॉक्टर ने भी इस बात को स्वीकार किया कि उसे मरीज़ों के सामने और भी बेहतर ढंग से पेश आना चाहिए। कई बार मरीज़ की बेहतरी के लिए ही कुछ सख़्ती बरतनी पड़ती है पर जैसे डॉ. अमिता हर हाल में मुस्कराहट का पल्ला नहीं छोड़ती, वही संगमा जैसी नर्स अवसर अनुसार शतरंज की चाल देती। हठधर्मी धोरा सिंह को भी उनकी छोटी-सी नर्स कैसे नियंत्रित कर लेती थी और वह उसका हर कहा चुपचाप मान लेते थे। कामकाजी स्त्रियाँ के लिए नौकरी और गृहस्थी को सँभालना कितना मुश्किल होता है। विडंबना यह है कि भारत में घर के सभी काम उसे ही निपटाने हैं, भले वह डॉक्टर ही क्यों न हो। 

लेखिका और उसके पति का आपसी रिश्ता बहुत प्यारा-सा है, दोनों बिना कहे एक-दूसरे को समझ लेते हैं। उनके आपसी रिश्ते द्वारा गृहस्थ जीवन की वास्तविकता सामने आती ही है कि पति-पत्नी के रूप में बहस और लड़ाई करना उनके अधिकार-क्षेत्र में आता है परन्तु जब वे माँ-बाप की भूमिका में आते हैं तो वे एक अलग पार्टी न हो कर एक इकाई होते हैं। 

रचना की लेखन-शैली की बात करें तो वह अत्यन्त प्रभावित करती है। हर अध्याय एक शे’अर से स्वागत करता दरवाज़े पर खड़ा मिलता है। उसी से होकर पाठक उस अध्याय में प्रवेश करता है। बरगद की टहनियों व पत्तों से अपनी पसंद के एक-एक करके कई पुराने गीत उतार कर, वह अपने आप को उनमें डुबो लेने का हुनर जानती है। इन गीतों के चलते ही वह कॉलेज के होस्टल में भी सखियाँ बनाने में कामयाब हो गई थी। इसे उपन्यास कहा जाए . . . मैं सोच रही हूँ क्योंकि कल्पनाशीलता तो कहीं भी नहीं है। यह संस्मरणात्मक रचना ज़रूर है। एकाध हफ़्ते के अपने हस्पताली भ्रमण से लेखिका यह संदेश अवश्य देना चाहती है कि हमें किसलिए जीना है और क्यों? क्या धोरा सिंह की तरह अपनी मर्ज़ी का जीवन जीने के लिए वह हस्पताल वालों से नाराज़ होना क्योंकि वह यहाँ से निकल कर, अपने मन की करना चाहता है। या लेखिका की तरह कि तकलीफ़ें झेलने से अच्छा है, मर ही जाओ। पर नहीं, ये इतने डॉक्टर, नर्सें, उनके परिवारजन, स्नेही उनका जीवन बचाने के लिए रात-दिन एक किए हुए हैं या अपनी उन दो बेटियों के लिए, जिनमें से एक को होस्टल में रखा है और छोटी को बहन के पास। अपने उन माँ-बाप के बारे में सोचना, जो उसके दिल कर हर बात को दूर बैठे ही महसूस कर लेते हैं। इसलिए कहने के लिए किसी भी व्यक्ति का जीवन उसका अपना होता है, परन्तु वह नितांत अकेला नहीं होता, उसके जीवन पर उसके स्नेहियों और परिवारजनों का भी उतना ही हक़ होता है। 

लेखिका अपने जीवन व बीमारी द्वारा पाठकों की जीवन की सार्थकता से पहचान करवाती है। आख़िर ऐसे पल सभी के जीवन में कभी न कभी आते ही हैं, यह बात अलग है कि हर कोई इस मोहतरमा द्वारा इन्हें आनंद के पलों तरह इन्जॉए भले न कर पाएँ मगर जीवन की अहमियत को तो अवश्य स्वीकार करेगा ही। 

लेखिका के चुलबुलेपन और मुस्कराहट के साथ, उसकी गंभीर सोच का स्वागत . . .! 

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