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जीवन संध्या के रंग – 001

 

अनिता बहन आज बहुत ख़ुश थी; बेटे नयन का विवाह संपन्न हो गया था और बहू निशा घर में आ गई थी। आज निशा की पहली रसोई थी। वह बहुत ही घबराई हुई थी। अब तक तो उसकी एमबीए की पढ़ाई ही हो रही थी और हॉस्टल में रहकर पढ़ती थी तो जब घर आती माँ के हाथ के स्वादिष्ट व्यंजन खाने में ही समय बीत जाता। वैसे भी आजकल लड़कियों को रसोई बनाने में कहाँ रस होता है? और माता-पिता भी कहाँ सिखाते हैं? 

निशा घबराई हुई खड़ी थी तभी अनिता बहन रसोई घर में आ गई। थके हुए मेहमान सभी सो रहे थे। 

उन्होंने निशा से पूछा, “बेटा आज तुम क्या बनाओगी? तुम्हें कोई मीठा व्यंजन बनाना आता है?”

निशा ज़मीन की ओर देखने लगी। उसके चेहरे पर घबराहट साफ़ नज़र आ रही थी तो अनीता बहन ने परिस्थिति भाँप ली और उसका मुँह उठाकर हाथों को अपने हाथ में लेकर बोली, “कोई बात नहीं बेटी! चल जल्दी से हम बना देते हैं।” 

अनिता बहन ने निशा को बताते हुए झटपट सूजी का हलवा बना दिया और रसोई घर से बाहर निकल गई।

सब मेहमान नाश्ते के लिए आए तो निशा ने सूजी का हलवा सबको परोस दिया . . .

निशा को मन में बहुत ही क्षोभ और संकोच हो रहा था पर उसने भी मन में ठान लिया कि अब वह रसोई बनाना ज़रूर सीख जाएगी।

घर में विवाह का वातावरण समाप्त होते ही निशा, अनीता बहन के साथ रसोई के काम में हाथ बँटाने लगी और बराबर पूछ-पूछ कर सभी व्यंजन सीखने लगी। बहू की लगन देखकर सास भी उसे अच्छे से सब सिखाने लगी। कुछ व्यंजन तो निशा बहुत अच्छे बनाने लगी थी। 

कुछ दिनों के बाद निशा अपने मायके में आई; वहाँ भी उसने रसोई बना कर सबको खिलाई तो उसके माता-पिता तो दंग रह गए। निशा अपनी सास के गुण गाते थकती नहीं थी। 

दोपहर को शान्ति से वह अपनी माँ के पास बैठी और कहा, “भाभी से तेरी बनती नहीं है, मुझे मालूम है पर उसका राज़ आज मुझे समझ आया है। मुझे याद है जब भाभी की पहली रसोई थी, तब उसने भी सूजी का हलवा बनाया था और थोड़ा कच्चा रह गया था तो सबके सामने तूने उसकी कितनी बुराई की थी! तभी से तूने मनमुटाव के बीज बो दिए थे जो अब पेड़ बन गए हैं। माँ तूने मुझे तो कुछ नहीं सिखाया। कहती रहीं, ‘अभी तो तुम्हारी उम्र ही क्या है? और ससुराल में जाकर तो सब करना ही है’ ऐसा बोल कर तू मुझे लाड़-प्यार करती रही। भाभी भी तो किसी की बेटी है वह भी सब कुछ सीख कर थोड़ी आती?” 

रसोई घर में निशा की भाभी यह सब बातें सुन रही थी वह जल्दी से आ गई और निशा को गले लगा लिया। माँ को भी अपनी भूल समझ में आई कि बेटी को तो कुछ सिखाते नहीं और बहू से सब कुछ सीख कर आए ऐसी अपेक्षा कैसे की जाए? उसने भी बहू को गले लगाकर माफ़ी माँग ली . . .। 

जीवन की संध्या समय परिवार से मेल-मिलाप भी बहुत ही ज़रूरी है। परस्पर अच्छे व्यवहार की नींव डालेंगे तो उस परिवार को कोई तोड़ नहीं पाएगा . . . 

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