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कसक

“बचपन के दिन भी क्या दिन थे” जब भी कहीं यह गीत बज रहा होता है तो लगता है कि काश जीवन का सबसे लम्बा समय बचपन ही होता तो कितना भला होता। किसे नहीं भाता बचपन? शायद ही कोई ऐसा हो जो बचपन की यादों को भुला पाया हो। हर चिन्ता, परेशानी से मुक्त, दीन दुनिया से बेख़बर एक ऐसी दुनिया, जहाँ खेल-खिलौने, शैतानियों का एक अनूठा साम्राज्य। पल-पल में झगड़ा, पल-पल में मेल, कब रूठे गये कब मान गये क्या पता? सब अपने मन के राजा, सबका अपना राज-पाट, अपना नियम क़ानून, जो मन को भाये वही ठीक,  बाक़ी बेकार।

उस अनूठी दुनिया की यादें ताज़ा करने के लिये एक बार ही सही अपने आस-पास किसी बचपन को तलाशिये, आपको ख़ुद की झलक दिखायी दे जायेगी। एक बार ज़ेहन में सारी शैतानियाँ ताज़ा हो के चेहरे पर मुस्कान छोड़ जायेंगी।

दो दिन जब न कोई अपना न पराया था, न मन में तेरा मेरा का भाव था। जो भी था सबका था, हमारा था। किसी के भी आँगन में जमा होकर धमाचौकड़ी करना, पतंग उड़ाना, फट जाने पर अम्मा से आँख बचाकर चौके में रखी पतीली से भात चुरा कर चिपकाना, गर्मी की तपती दुपहरी में अन्त्याक्षरी खेलना, बारिश में काग़ज़ की नाव पानी में तैराना, मछलियाँ पकड़कर बोतल में पालना और न जाने क्या-क्या!

सबसे ज्यादा मौज-मस्ती के दिन गर्मियों में आते थे जब सभी ममेरे और मौसेरे भाई-बहन ननिहाल में अपना आतंक मचाने के लिये जमा होते। ऐसा आतंक जिसका सभी बेसब्री से इंतज़ार करते। नाना-नानी की छत्र-छाया में ये आतंकी समूह नित-नये कारनामों को अंजाम देता, जिससे न तो कोई भयभीत होता न नाराज़, सबके चेहरे पर मुस्कान होती। रात को सोने से पहले ही अगली दिनचर्या तय हो जाती कि कौन रसोई की अलमारी से लाल पेड़े चुरायेगा, कौन गुलेल बनायेगा, कौन आम तोड़ने के लिये लग्गी बनायेगा, कौन माचिस की ख़ाली डिब्बी का टेलीफोन बनायेगा। सबके हिस्से का काम बाँटने के बाद पहेलियाँ बूझते-बूझते कब नींद आ जाती पता न चलता और सुबह होते ही चंडाल चौकड़ी अपने अभियान पर निकल पड़ती।

एक ऐसा अभियान जिसमें न भूख सताती, न प्यास, न ही सूरज की तपिश परेशान कर पाती। एक होड़ सी होती सबमें, अपने काम को अंजाम देने के लिये। चुरा कर तोड़े गये आम मिल बाँट कर खाना एक असीम ख़ुशी दे जाता। एक ऐसी ख़ुशी जिसका अहसास आज भी चेहरे पर मुस्कान फैला देता है। शैतानियों के बीच जब कभी भी याद आता कि अम्मा घर पर नाराज़ हो रही होंगी तो भाग कर घर आ जाना, फिर शरीफ़ों की तरह बिना अम्मा के कहे फटाफट काम करने लगना, हम लोगों की चालाकी पर अम्मा मुस्कुरा कर रह जाती और हमें लगता कि वो हमसे नाराज़ ही नहीं हुई थीं। मन एक ख़ुशी से भर उठता। लगता हम जो कर रहे हैं वो सब ठीक है। तभी तो खेतों में रखे पुआल के ढेर से ऊपर चढ़कर फिर फिसलना, बैलगाड़ी में चुपचाप दौड़कर पीछे बैठ जाना कितना सुखद लगता। खेलकूद कर जब थक जाते तो घर की याद सताती, आते ही खाने पर टूट पड़ना। कितना प्यार लगता चौके के बाहर बैठ कर खाना खाना। अम्मा गर्म-गर्म फुलके सेंकती और बड़े प्यार से खिलाती।

ये मीठी-मीठी यादें आज मन को झकझोर कर रख देती हैं लगता है जैसे गुज़रे ज़माने की बात हो सब कुछ कितना बदला-बदला सा नज़र आता है। वो प्यार वो अपनापन सब न जाने कहाँ खो गया है। क्यों सब इतना बदल गया है। शायद इसलिये कि पैसा कमाने की चाह में मैं अपनों से दूर सात समन्दर पार आ गया। जहाँ आकर मैं सिर्फ़ और सिर्फ़ एक मशीन बन गया हूँ पैसा कमाने की और जो मेरे हैं सिर्फ़ इसलिये कि वे मुझ पर अपनी ज़रूरतों के लिये आश्रित हैं। जिस शोहरत और रुतबे की चाह थी सब मेरे पास है फिर भी न जाने क्या कमी है जो इस सब के बाद भी खलती है। शायद अपनों का प्यार ही तो है। बचपन में परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर जो उल्लास और उत्साह घर में होता है वो ख़ुशी इतना सब होने के बाद भी मुझसे कोसों दूर क्यों है? कितना अच्छा लगता था सबको ख़ुश देखकर, उस वक्त मोती चूर के लड्‍डूओं की मिठास भी दुगनी हो जाया करती थी। अपने आस-पास अपनों का अहसास गर्वित कर जाता था। छोटी-छोटी खुशियाँ आपस में बाँटना एक जश्न जैसा होता। लगता सारे ज़माने की ख़ुशियाँ मिल गयी हैं।

वो होली का हुड़दंग जो होली के एक महीने पहले की तैयारी के साथ शुरू हो जाता। किसको-किसको रंगों में रंग कर भूत बनाना है रोज़ यही सोचना चाहे फिर ख़ुद ही भूत बन जायें।

लेकिन होली के ये रंग जीवन में खुशियों की जो इन्द्रधनुषी छटा बिखेर जाते आज वो छटा बादलों के पीछे न जाने कहाँ खो गयी है। आज भी याद आता है अम्मा का नाराज़ होना जब हम सब गुझिया बनवाने को बहाने अम्मा के चारों और घेरा बनाकर बैठ जाते और मौक़ा पाते ही खोया चुरा कर खा लेते। देख लेने पर अम्मा भगा देती। आज उस स्वाद को तरसना जैसे नियति ही बन गयी है। उन गुझियों का स्वाद माँ की ममता रूपी चाशनी से भीता होता था तभी तो इतना स्वादिष्ट था।

आज भी याद है वो क्षण जब मेरी पढ़ाई के लिये माँ मुझे शहर से भेजने को तैयार हुई थी। कितना रोया था मैं माँ को देख कर कि रोक ले माँ मैं वहाँ नहीं रह पाऊँगा। किस तरह कलेजे के टुकड़े को माँ ने तरक़्की की ख़ातिर अपने से दूर भेज दिया था।

एक बार तरक़्की की ख़ातिर जो घर से गया फिर उसी के बहाने दूरी बढ़ती चली गयी। तरक़्क़ी की सीढ़ी चढ़ते-चढ़ते आज उस जगह पहुँच गया हूँ जहाँ सारी आशाएँ आकाँक्षाएँ पाने की न तो चाह ही रही न अभिलाषा। पाना चाहता हूँ तो सिर्फ़ वो दिन जो अपनत्व का अहसास कराते थे। हर वो एक पल जो आँखों में ख़ुशी के आँसू छलका जाते थे। हर उस महक को महसूस करना चाहता हूँ जिससे अपनी माटी की ख़ुश्बू आती है। हर वो रंग अपने जीवन के कैनवास पर भरना चाहता हूँ जो ख़ुशियों की इन्द्रधनुषी छटा से मुझे सराबोर कर देते थे। लौटना चाहता हूँ उन लोगों के बीच जो मेरे अपने हैं जिनके साथ मेरे जीवन के सबसे सुनहरे दिनों की यादें जुड़ी हैं। देखना चाहता हूँ वो बचपन दोबारा। जो हमने जिया था। उन यादों को सहेजना चाहता हूँ जो मेरे अन्तर्मन को सुकून दे सके। उन मनकों को एक माला में फिर से पिरोना चाहता हूँ जो तरक़्क़ी की राह में धागे से टूटकर बिखर गये। ऐसी तरक़्क़ी जिसने पैसे की ख़ातिर सब कुछ छीन लिया।

काश मैं उन पलों को दोबारा जी पाऊँ। बुला लो मुझे आवाज़ दे कर, एक बार ही सही आवाज़ तो दो। कई बार पीछे मुड़-मुड़ कर देखा। मेरी आँखें शून्य में न जाने क्या खोजती रह जाती हैं और पाता हूँ मैं ख़ुद को एकदम अकेला भीड़ के बीच, जहाँ मेरी निगाहें खोजती फिरती हैं वो लम्हे जिनकी कसक आज भी मेरे मन में उठती रहती है।

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