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वास्तु की महिमा

आज मैं आप लोगों के समक्ष अपनी जीवन भर की उपल्ब्धियों से प्राप्त सुख की कहानी लेकर उपस्थित हूँ।

सर्वप्रथम अपने व्यक्तित्व से आरम्भ करता हूँ ख़ूबसूरती में ऋतिक रोशन और तुषार कपूर मेरे पैरों की धोवन भी नहीं हैं। मेरे नैना ‘सी हीयर बट लुक देयर’, नाक ऐसी देखकर लगता है कि मिटीरियल कम पड़ जाने पर भगवान ने ऊँचाई को चौड़ाई में फैलाकर सींक से दे छेद कर दिये, सोचिये सुरसुरी होने पर क्या हाल होता होगा मेरा। ग़नीमत है कि साहित्यकार हूँ अपनी लेखनी सदा सर्वदा अपने पास रखता हूँ। दाँत देने वाले ने मेरी तोंद का आकार ध्यान में रखते हुए दिल खोलकर तनिक चौड़े बना दिये जिससे कि मैं अतिशीघ्र अपनी क्षुधा को शान्त कर सकूँ और खिलाने वाल भाँप न पाये कि मैंने कितना खाया। मेरे कान महापुरुषों की भाँति तनिक बड़े और रंग एकदम शीतल छाँव! शीश पर केश मेरे अमीर होने का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।

ये तो था मेरा सुन्दर सलोना व्यक्तित्व, अब मेरी शिक्षा-दीक्षा एवं योग्यताओं के बारे में। मैंने अपने गाँव के विद्यालय से शिक्षा प्राप्त की हर वर्ष प्रोन्नति पाता हुआ बड़ी कुशलता से अपनी शिक्षा पूरी की। मेरी प्रोन्नति से ख़ुश होकर माँ हर वर्ष परीक्षाफल मिलने के उपरान्त घर में पिताजी के घोर विरोध के बाद भी अखण्ड रामायण का पाठ करवाती। पिताजी कुछ कहते तो लड़ पड़ती कि ख़ुद को कार्यालय में प्रोन्नति मिलेगी तब मिठाई बाँटोगे पर बच्चे के लिये मैं इतना भी नहीं कर सकती। लेकिन पिताजी के विरोध का कारण आज समझ में आता है। मेरी काहिलियत देखकर पिताजी अक़्सर कहा करते – नहीं पढ़ोगे तो हल चलाओगे। इस डर से स्वत: ही कब क़लम-काग़ज़ से प्रेम हो गया याद नहीं। आज अपनी जीविका का साधन मात्र एक क़लम है। मेरे साहित्यिक व्यक्तित्व को घर के बाहर ही आदर-सम्मान मिल पाता है अपनों के बीच तो मैं घर का मुर्गा साग बराबर वाली कहावत चरितार्थ कर रहा हूँ।

यहाँ तक तो ग़नीमत थी, लेकिन अब तो हद ही हो गयी है। सभी जानने वाले मुझे अब साहित्यिकार कम सनकी ज़्यादा समझते थे। उन्होंने मुझे यह उपनाम कब प्रदान किया और क्यों इसका सारा श्रेय मेरी श्रीमतीजी को जाता है। 
पिछले हफ़्ते उनकी सहेली के घर लेडीज़ संगीत का कार्यक्रम था उस संगीत कार्यक्रम से लौटकर वास्तु का जो आलाप मेरे घर में प्रारम्भ हुआ वह निरन्तर गुन्जायमान है।

मुख्यद्वार पर लगे सुन्दर हरितिमा बिखेरते मेरे प्रिय दो अशोक वृक्ष श्रीमती जी के वास्तु प्रेम की भेंट पहले ही दिन चढ़ गये। तर्क के आगे मैंने हथियार डाल दिये वह कहने लगीं रावण ने सीता हरण के बाद उन्हें अशोक वाटिका में रखा था, इसलिए घर में यह वृक्ष क़तई नहीं। मैं क्या करता चुपचाप उन्हें और कटे वृक्षों को अपलक निहारता रह गया। यही सोच कर संतोष कर लिया कि द्वार की नहीं तो वृक्ष की लकड़ियाँ शीत ऋतु में घर के अन्दर आतिशदान की ही शोभा बढ़ायेंगी। इस पर भी उस समय पानी फिर गया जब श्रीमतीजी ने उन कटे वृक्षों को घर के बाहर खड़े उन बच्चों को ले जाने के लिए कह दिया जो शायद सूखी टहनियों की तलाश में ही टहल रहे थे। वे सभी बच्चे श्रीमती जी की तारीफ़ के क़सीदे पढ़ रहे थे और मैं मन ही मन कुढ़ा जा रहा था।

फिर एक दिन बाज़ार से ऐसा यन्त्र ला कर द्वार पर टाँग दिया जो कॉल बेल सा बज-बज कर मेरी तन्द्रा भंग करने में कोई कसर बाक़ी न रखता और मेरी क़लम खीज का प्रमाण काग़ज़ पर उकेर देती। पूछने पर पता चला द्वार पर टँगा मेरे जी का जंजाल ‘विंड चाइम्स’ कहलाता है और इसे टाँगने से शान्ति पूर्ण वातावरण बना रहता है। सच कहता हूँ बन्धु जिस दिन से यह घर में टँगा है उसी दिन से घर की शान्ति, काम करने वाली बाई की तरह बिना बताये न जाने कहाँ ग़ायब हो गई है।

ऐसे वातावरण में जब मेरी लेखनी ने काग़ज़ पर चलने से मना कर दिया तो मैं पास के पार्क में उसे रोज़ सुबह शाम टहलाने ले जाने लगा।

शाम का ही तो वक़्त था जब मैं अपनी लेखनी के साथ सैर करके लौटा था, देखा कि श्रीमतीजी बुक शेल्फ़ से मेरी पुस्तकें ज़मीन पर डाल रही हैं और एक रद्दी वाला उन्हें पोंछ-पोंछ कर क़रीने से बाँध रहा है तौलने के लिये। लगा कि कहीं गश खाकर गिर न पड़ूँ, इसलिए सिर पकड़ कर बैठ गया। जब थोड़ा नार्मल हुआ तो श्रीमती जी से शेर की तरह दहाड़ कर पूछा, “यह क्या तमाशा है मेरी किताबों रद्दी नज़र आती हैं। श्रीमती जी ने नहले पर दहला मारा और मुझसे भी तेज़ शेरनी की तरह दहाड़ते हुए बोलीं, “मेरा घर कोई कबाड़खाना नहीं है जो भी काग़ज़ पत्तर मिले रखते जाओ। तुम्हारी यही रद्दी तो घर की ऊर्जा को नकारात्मक बना रही है। देख नहीं रहे तुम्हारे कबाड़ की वज़ह से मेरा घर एक अजायबघर बन गया है।"

इस वाक्‌ युद्ध में मेरी हालत रद्दी वाले के सामने खिसियानी बिल्ली सी हो गई और वो नामुराद मेमसाहब-मेमसाहब का राग अलापता मेरी बरसों की जमा पूँजी मेरी आँखों के सामने समेट ले गया।

इन सब घटनाओं ने मुझे इतना आहत कर दिया था कि मैं श्रीमतीजी से न बोलने में ही अपनी भलाई समझने लगा। घर में बची-खुची जो शान्ति है वो बनी रहे इसके लिये यह नितान्त आवश्यक था। मेरा बोलना श्रीमती जी के लिये मेरी मूक सहमति बन गया। और वे नित नये वास्तु प्रयोग करने लगीं, कभी ड्राइंग रूम में उलट-फेर तो कभी बेडरूम, कभी स्टडी रूम तो कभी किचन, हर रोज नये प्रयोजन होते।

इन परिवर्तनों से कुछ लाभ हुआ हो या नहीं ये तो मुझे पता नहीं पर मेरा हीमोग्लोबिन ज़रूर घटता जा रहा है। श्रीमती जी से बड़ी कोशिशों के बाद किस तरह कहा यह मेरा दिल ही जानता है इस पर मुझे घुन्ने का टाइटिल तो उन्होंने वैसे ही थमा दिया जैसे साहित्य सम्मेलन में शाल थमा दी गई हो।

बात आगे न बढ़ जाए इसलिए चुपचाप बाहर आ लॉन में टहलने लगा तभी नज़र लेटर बॉक्स में पड़े पत्र पर गयी। उठा कर देखा तो श्रीमती जी के भाई अर्थात्‌ मेरे साले के विवाह का निमंत्रण पत्र था। आज प्रथम बार ससुराल से आये पत्र से मुझे वास्तविक ख़ुशी का अहसास हुआ या यों कहें कि कुछ दिन के लिये ही सही यह पत्र देवदूत की भाँति मेरे वास्तु रूपी कष्ट से मुझे मुक्ति दिलाने वाला प्रतीत हुआ। सो गुनगुनाते हुए अन्दर पहुँचा और निमंत्रण पत्र श्रीमती जी की पसंदीदा ब्राण्ड की डिज़ाइनर साड़ी की तरह उनके हाथों में थमा दिया।

मेरा ये रूप उनके लिये अप्रत्याशित सा था फिर भी चतुर नार की तरह समय का फ़ायदा उठाते हुए तुरंत रुपयों की माँग कर दी जो उन्हें भाई की शादी में ख़र्च करने हैं। फिर कौन सी साड़ी कब पहननी है उसका रंग कैसा हो उससे मैच करते हुए गहनों के बारे में विचार करते हुए ख़रीददारी करने की एक लिस्ट बन गई। मैं मन ही मन अपने किये पर पछताया कि क्यों कार्ड को हाथ लगाया, ख़ुद उठाती तो शायद कुछ कम में ही काम बन जाता। अब तो मुसीबत गले पड़ गई है फिर भी मन के किसी कोने में सुख का अहसास हिलोरे ले रहा था जो श्रीमती जी के मायके जाने के उपरान्त मेरे जीवन में ख़ुशियाँ लाने वाला था। इसलिए कह दिया कि कल बैंक खुलने का इंतज़ार करो, जितने की आवश्यकता हो उससे एक आध हज़ार ज़्यादा ही निकाल लेना, अरे तुम्हारे भाई की शादी है। और कल ही तुम्हारा रिज़र्वेशन करा देता हूँ जिससे तुम समय से पहुँच जाओ।

मेरा यह कहना था कि उनका ग़ुस्सा ज्वलामुखी सा फूट पड़ा। बोली. "तुम्हारा रिज़र्वेशन करा दूँ से क्या मतलब? मेरा भाई तुम्हारा भी कुछ लगता है। तुम्हें भी मेरे साथ चलना होगा और ध्यान रखना वहाँ तुम्हारी ये सम्मेलनीय पोशाक नहीं चलेगी। अपने अन्दर थोड़ा ‘ड्रेस सेंस’ डवेलप करो, लेकिन शादी में तुम्हारे पहनने के लिये तो मुझे ही कपड़े ख़रीदने पड़ेंगे।"

अगले दिन वो मार्केट से इन्द्रधनुषी छटा बिखेरती कुछ कपड़े मेरे लिये ले आयी। कपड़े ऐसे जिसे पहनकर अगर मिस यूनिवर्स प्रतियोगिता में भाग लूँ तो हर वर्ष ताज़ मेरे ही सिर पर पहनाया जाये। ऐसे कपड़े पहनकर जब मैंने शादी में शिरकत की तो हद ही हो गई। दूल्हे से ज़्यादा सबका ध्यान मेरी ही ओर था।

जो मुझे देखता मुस्कुराता और कन्नी काट कर निकल जाता। मैं जिसकी तरफ़ मुख़ातिब होता वो अँग्रेज़ी में ‘एक्सक्यूज़ मी’ कह कर खिसक जाता। थक-हार कर मैं खाने की मेज़ की ओर बढ़ा ही था कि देखा कुछ लोग श्रीमती जी को शहर के नामी गिरामी साइकेट्रिस्टों के नाम सुझा रहे थे कि अभी बीमारी ठीक होने की अवस्था में है इसलिये ज़रा सी भी देरी किये बगैर भाई साहब का इलाज शुरू कर दो। जल्दी ठीक हो जायेंगे, घबराना नहीं, हम सब तुम्हारे साथ हैं।

यह सब सुन कर जब मैं अपने परिचितों और रिश्तेदारों को वस्तु-स्थिति से अवगत कराने को लिये जैसे ही उन लोगों की ओर मुख़ातिब हुआ तो वे मुझे पागल समझ मेरी हाँ में हाँ मिलाने लगे और जिसे मौक़ा लगता वो ‘सुट्ट’ से ग़ायब होता जैसे गदहे के सर से सींग। धीरे-धीरे सब ग़ायब और मैं पंडाल में अकेला रह गया। उस वक़्त मेरा मन शीश पर उगे केशों को नोंचने के लिये मेरे हाथों को प्रेरित कर रहा था। मैंने अपने मन का समझाया, न भइये अभी तक तो श्रीमती जी के प्रयत्नों ने मुझे सनकी और पागल की उपाधि ही प्रदान की है, लेकिन तेरी ये हरकत तुझे आगरा भेज कर ही छोड़ेगी।

तो हे बन्धुओं मेरे शुभचिन्तको, कृपया मुझे भी किसी ऐसी विद्या से अवगत कराने की कृपा करें जो मुझे इन कष्टों से निजात दिला सके और लोग मुझे एक साहित्यकार के रूप में फिर से जानने लगें।

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