अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

ख़ुशी का मुखौटा

 

पीहू और समीर एक ही कंपनी में कार्यरत हैं दोनों कभी कैंटीन में मिल जाते हैं तो कभी रास्ते में एक-दूसरे से टकरा जाते हैं। दोनों के मध्य प्रातःकालीन अभिवादन के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। किन्तु धीरे-धीरे समीर के शिष्ट आचरण, शालीन व्यवहार और सुदर्शन व्यक्तित्व से मोहित होकर पीहू उससे एक तरफ़ा प्रेम करने लगती है। यह प्रेम कब उसके जीवन की साँस बन जाता है उसे पता ही नहीं चलता। वहीं दूसरी ओर समीर भी पीहू के हँसमुख, मिलनसार और परायों को भी अपना बना लेने वाली आदत से उसकी ओर आकर्षित होता जा रहा है। यूँ तो दोनों एक-दूसरे के परिवार के विषय में कुछ भी नहीं जानते हैं किन्तु ऑफ़िस की छोटी-मोटी समस्याएँ एक-दूसरे के साथ साझा करने लगे हैं।

“सुनो आज चाय पीने चलोगी?” 

“नहीं . . . मैं लेट हो गई तो भैया को बुरा लगेगा।”

“तुम अपने भाई से इतना डरती क्यों हो . . .?” 

“नहीं ऐसी बात नहीं। दरअसल उन्हें लड़कियों का देर रात तक बाहर रहना पसंद नहीं। वैसे भी उन्होंने मुझे नौकरी करने की परमिशन दी है मेरे लिए यही काफ़ी है।”

“क्या करते हैं तुम्हारे भैया?” 

“वे पुलिस में दरोगा हैं।”

“ओह इसीलिए शायद इतने अकड़ू भी।”

समीर का ऐसा कहना पीहू को अच्छा नहीं लगा और उसने मुँह बनाते हुए कहा, “खबरदार जो मेरे भैया के लिए कुछ भी कहा।”

“ओहो . . . सॉरी . . . ठीक है कुछ नहीं कहूँगा।”

“पीहू आज तुम बहुत सुंदर लग रही हो।”

“मैं कहाँ सुंदर हूँ . . . ये आपकी नज़रों का सौंदर्य है।”

“सुनो आज माँ ने दाल की कचौड़ी भेजी हैं। आज का लंच मेरे साथ करोगी?” 

“ठीक है . . .”

फिर दोनों ने ऑफ़िस की कैंटीन में बैठकर साथ में लंच किया। दिन-प्रतिदिन दोनों का जुड़ाव एक-दूसरे से बढ़ता ही जा रहा है। समीर साहित्य में विशेष रुचि रखता है। वहीं पीहू भी कभी-कभी कोई स्वरचित शायरी उसे सुना देती। अब दोनों की बातों का विषय साहित्य पर केंद्रित होता। कभी पीहू के लिए समीर कोई किताब ख़रीद कर देता, तो कभी पीहू समीर के लिए कोई शायरी पढ़ कर सुनाती। धीरे-धीरे दोनों भावों और संवेदनाओं में बँधने लगे। एक अनकही सी चाहत दोनों के हृदय में पनपने लगी। 

“सुनो पीहू . . . यहाँ की चाय बहुत अच्छी बनती है। चलो पीते हैं।”

ऐसा कहते हुए समीर उसे कॉफ़ी शॉप पर ले आया। दोनों ने चाय पी। 

“वैसे मैं भी चाय बहुत उम्दा बनाता हूँ।”

“आह . . . तुम चाय भी बना लेते हो? कौन-सा काम तुमसे अछूता रहा है?” 

अगले दिन ऑफ़िस में पीहू कुछ उदास बैठी है। 

“अरे क्या हुआ . . . दुनिया जहाँ भर की बातें करने वाली मेरी पीहू आज ऐसे चुपचाप क्यों है?” 

“नहीं . . . कुछ नहीं . . .”

पीहू ने नज़रें चुराते हुए कहा और वहाँ से उठकर चली गई। लंच टाइम में भी समीर ने उससे बात करने की कोशिश की। उसके साथ लंच करने का प्रस्ताव रखा किन्तु पीहू ने सिरे से ख़ारिज कर दिया। ऑफ़िस से छुट्टी के समय समीर ने उसे धीरे से रोकते हुए कहा ” पीहू एक मिनट रुको तो . . . प्लीज़ बताओ तुम मेरी किसी बात का जवाब क्यों नहीं दे रही हो? क्या हुआ . . .?” 

“सुनो कल भइया ने हमें साथ में कॉफ़ी शॉप में देख लिया था। उन्हें मेरा तुम्हारे साथ रहना पसंद नहीं। मैंने भैया को वचन दिया है कि मैं तुमसे बात नहीं करूँगी।”

“क्या मुझसे बात करने का तुम्हारा मन नहीं है . . .?” 

“मुझे भैया की ख़ातिर अपने मन पर अंकुश लगाना ही होगा।”

“क्या प्रेम नहीं करतीं मुझसे“

“करती हूँ बेपनाह . . . किन्तु जो काम भैया को पसंद नहीं, वह मैं कभी नहीं करूँगी।”

समीर ने ग़ौर से उसके चेहरे को देखा, तो उसके चेहरे पर किसी के हाथ की छाप दिखाई दी। 

उसने पीहू से धीरे से पूछा, “क्या किसी ने तुम्हारी पिटाई की . . .?” 

पीहू की आँखों से आँसुओं की दो बूँद टपक गयीं। पिहू ने अपने शब्दों को ज़ब्त करने का प्रयास किया और अपने होंठों को कसकर भींचने लगी। वह भैया के ख़िलाफ़ एक शब्द भी नहीं बोलना चाहती थी, लेकिन समीर बार-बार पूछता रहा। 

“पीहू प्लीज़ बताओ।”

जैसे ही उसने उसका हाथ पकड़ा तो देखा कलाई के पास बैंडेज लगी हुई है। 

“अरे तुम्हारे हाथ में क्या लग गया?” 

“वह कुछ नहीं . . . कल वॉशरूम में फिसल गई थी।”

“वॉशरूम में फिसल गई थी या किसी ने तुम्हारे साथ अत्याचार किया।”

“तुम कुछ भी सोचे जा रहे हो . . . ऐसा कुछ नहीं।”

“पीहू प्लीज़ मुझे बताओ . . . कुछ न छुपाओ . . . शायद मुझे अधिकार तो नहीं है यह पूछने का, किन्तु अब तक जो भी समय हमने साथ गुज़ारा है, तुम्हें उन लम्हों का वास्ता . . . एक बार सच बता दो।”

“समीर मेरी माँ ने दूसरी शादी की है। मेरे जन्म के समय ही मेरे पिताजी सड़क दुर्घटना में डॉक्टर द्वारा मृत घोषित कर दिए गए। फिर मेरे जन्म के कुछ माह बाद नाना जी ने माँ का पुनर्विवाह कर दिया। विवाह के एक वर्ष बाद माँ ने विराट भैया को जन्म दिया। विराट भैया से मैं उम्र में तो दो वर्ष बड़ी थी, किन्तु वह मुझे कभी छोटी होने का दर्जा भी नहीं देते थे। बहन-भाइयों में अक़्सर लड़ाइयाँ हुआ करती हैं, किन्तु वह मुझसे कुछ द्वेष भाव रखते थे। धीरे-धीरे हम बड़े होते गए और जब भैया पुलिस में भर्ती हो गये तो उनका व्यवहार और भी उग्र हो गया। इतने आक्रामक हो गए कि उनका हाथ कभी भी मुझ पर उठ जाता। माँ को भी कुछ न समझते। उन्हें मेरा बाहर जाना, पढ़ना जॉब करना कुछ भी पसंद नहीं। वे माँ-बाबूजी को भी मेरे ख़िलाफ़ भड़काते रहते हैं। कल तुम्हें मेरे साथ देखकर पता नहीं कैसे अपना आपा खो बैठे और उनके ग़ुस्से का ताप मुझे सहन करना पड़ा।”

पीहू की आँखें भीग उठीं। उसकी आँखों में आँसू देख कर समीर का हृदय द्रवित हो गया। मन किया अभी कि अभी पीहू के घर जाए और उसके भाई को सबक़ सिखा कर आए। किन्तु पीहू अपने भाई का बहुत सम्मान करती है। हमेशा वह अपने भाई की तारीफ़ों के पुल बाँधती रहती है। तो क्या वे सभी तारीफ़ें झूठी थीं? क्या वह ख़ुशी का मात्र मुखौटा था, जो पीहू चेहरे पर लगाये रखती थी। इतने दिनों से वह जिस पीहू को जानता था क्या वह पीहू और उसकी हँसी सब झूठी थी। आह . . . उसके अंतरमन में कितना दुख छुपा हुआ है। बच्चों जैसी हरकतें करके सबको हँसाने वाली पिहू आज यूँ फूट-फूट कर रो देगी समीर ने कभी सोचा भी न था। चंचल से स्वभाव की पीहू, तितलियों के रंगों जैसी रंगीली, शाम के आँचल के जैसी रुपहली, साज़ के जैसी संगीतमयी, अंदर से इतनी शांत और उदास मिलेगी यह तो समीर ने कभी सोचा ही न था। यानी कि आज तक उसने अपने चेहरे पर ख़ुशी का मुखौटा सजाया हुआ था, जिसके उतरते ही आँसू और पीड़ायुक्त आनन साफ़ दिखाई देने लगा। 

“पीहू अब तुम कभी उदास नहीं होगी . . . वादा करो . . . तुम्हें सदैव मुस्कुराना है . . . खिलखिलाना है। पंछियों की तरह नभ में उड़ना है। मैं तुम्हारे सारे सपने पूरे करूँगा। मैं आज ही अपने पिताजी को तुम्हारे घर भेजता हूँ हमारे विवाह की बात करने।”

पीहू लजाकर रह गयी। 

दोनों की जाति एक थी। समीर संभ्रांत परिवार से सम्बन्ध रखता था। अतः दोनों ही परिवारों ने आपसी रज़ामंदी से पीहू और समीर का विवाह कर दिया। विवाह के पश्चात जैसे पीहू के मन के व्योम से दुख की बदली हमेशा-हमेशा के लिए हट गई। समीर वाक़ई में एक ख़ुशमिज़ाज मिलनसार और हँसमुख इंसान है। उसे पति के रूप में प्रकार पीहू प्रसन्न है। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

कविता

कविता-मुक्तक

गीत-नवगीत

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं