क्या तुमको भी ऐसा लगा : समालोचना
समीक्षा | पुस्तक समीक्षा डॉ. इन्दु रायज़ादा30 Sep 2014
क्या तुमको भी ऐसा लगा : समालोचना
पुस्तक : क्या तुमको भी ऐसा लगा
लेखिका : डॉ. शैलजा सक्सेना
प्रकाशक : अयन प्रकाशन, भारत/हिन्दी राइटर्स गिल्ड, कैनेडा
मूल्य : $10 (उत्तरी अमेरिका),
पृष्ठ संख्या: १२८
क्या तुमको भी ऐसा लगा एक अत्यन्त संवेदनशील रचना है। प्रत्येक लेखक की सफलता इसी बात में होती है कि पाठक यह महसूस करे कि ऐसा मुझ भी लगा था, यद्यपि मैं इस कह नहीं पाया। पाठक और लेखक के मध्य निरंतर अन्तःप्रक्रिया चलती रहती है। पाठक रचनाकार के साथ एकाकार हो जाता है, तादात्म्य स्थापित कर लेता है। एकाग्रता के क्षणों में ऐसा ही होता है। शैलजा की कलम में ऐसी ही शक्ति है। वह हृदय की बात इतनी कुशलता से सम्प्रेषित करती है, कि पाठक के हृदय की बात ही होती है।
भाव प्रधान, संवेदनशीलता, सुन्दर भाषा, सुन्दर शैली यह उनकी विशेषता है। प्रत्येक कविता मर्मस्पर्शी है। चाहे वह स्व तक सीमित हो या राजनैतिक व सामाजिक प्रश्नों से जुड़ी हो। चाहे प्राकृतिक सौन्दर्य का वर्णन हो। उनकी कलम, सूक्ष्म से सूक्ष्मतर अनुभूति व दृश्य का आलौकिक वर्णन करती चली जाती है। आत्म-विश्लेषण, फिर संश्लेषण कर वे मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से हर पहलु पर गहराई से विचार करती है और पाठक के सम्मुख बड़ी कुशलता से अपनी बात रखती है, कि पाठक भी उसी गहराई से महसूस करने को व सोचने को बाध्य हो जाता है।
इस कविता संग्रह में सिर्फ़ उन्होंने अपने हृदय को ही नहीं टटोला और सूक्ष्म अनुभूतियों को ही अभिव्यक्त नहीं किया बल्कि विश्व की व्यथा भी उनके हृदय में समा गई है। वे स्व से विश्व की ओर बढ़ती हैं। हम अकेले नहीं हैं। हम सामाजिक प्राणी हैं, इस सत्य से वे हमें खूबी से अवगत करवाती हैं। हम अपने समाज से असंपृक्त नहीं रह सकते। अन्य व्यक्तियों की व्यथा भी हमें सालती है। तभी वे व्यक्ति से समिष्टी की ओर बढ़ती हैं। अफ़गानिस्तान, नाईजीरिया में लड़ते हुए सैनिकों की व्यथा उनको सालती है। दामिनी की व्यथा से पीड़ित रात को चीख कर उठ जाती हैं। सुनामी से पीड़ित व्यक्तियों की पीड़ा उनकी पीड़ा बन उनकी कविताओं में उमड़ पड़ती है और सहसा वे कह उठती हैं – "कि चढ़ाया नहीं जा सकता छन्दों और रूपक, अलंकार और कल्पना का प्रेम और उदासी का मखमली कपड़ा उनपर"
उनकी कविता की यह पंक्तियाँ उन्हें कवि से अधिक मनुष्य बनाती हैं।
दो निकट के रिश्तों के मध्य भी व्यक्ति कभी-कभी अकेलापन महसूस करता है, और इस सूक्ष्म अनुभूति का चित्रण उन्होंने "कभी सोचा न था" कविता मे बख़ूबी किया है, "कि कभी सोचा न था कि सम्बन्ध इतने ख़ामोश हो जायेंगे!" फिर भी वे जीने के लिए कहीं से एक घण्टा चुरा ही लेती हैं, और किसी न किसी तरह सूरज, हवा और फूलों की ख़ुशबू समेटे सम्बन्धों की गरिमा महसूस कर ही लेती हैं। प्रकृति उन्हें निरन्तर प्रेरित करती है।
अपनी "ख़ुशफ़हमियाँ" कविता में उन्हें सहज ही इस बात का एहसास हो जाता है कि वे ही नहीं वरन् हर व्यक्ति अपने में अद्वितीय है। और उनका भ्रम सहसा टूटता है।
प्रणय के क्षणों में वे कह उठती हैं "मैं तुमसे नहीं, तुम्हारे साथ स्वतन्त्र होना चाहती हूँ"।
वे अपनी चेतना, की स्वतन्त्रता की बात करती है, आत्मा की स्वतन्त्रता की बात करती है। वे स्व को पुरुष से किसी प्रकार हीन नहीं समझतीं। बराबरी के दर्जे कि बात करती हैं।
अहं की टकराहट उनकी अनेक कविताओं में झलकती है। और कभी-कभी उन्हें बहुत अकेला कर देती है।
"कमरे में गूँजती है, सिर्फ़ तुम्हारी आवाज़
तुम्हारे निर्णय, तुम्हारी सोच, तुम्हारी इच्छायें
अन्धेरे कोने में सहमते हैं, मेरे सपने, मेरे विचार, मेरे भाव।
क्या प्रेम एक समझौते का नाम है?"
दो सजग व्यक्तियों के अंह की टकराहट, एक ही घर में रहकर भी अपने व्यक्तित्व को बनाये रखने की छटपटाहट इन कविताओं को विशिष्ट बना देती है।
मेरा आशय कविता सुन्दर बन पड़ी है। हमें मुस्कुराने को विवश कर देती है। पृष्ठ ३४
"उसने जाने अनजाने तोड़ा
खूब तोड़ा मुझे
चलता रहा यही सब
और इसी क्रम में कब गढ़ा गया मेरा आकार
इसका पता तब चला
जब वह चौंका!
और एक कदम पीछे हट गया!"
"मेरी हर शाम" नामक कविता बहुत सुन्दर बन पड़ी है। "वक्त का पानी" और "चान्दनी" शीर्षकों में बँटी अपनी उम्र का हर अध्याय वे धीरे धीर खोलती हैं।
"मौन का परिणाम" कविता में तो उन्होंने अपने हृदय को मथती अनुभूतियों का चित्रण बहुत ही सुन्दरता से किया है।
"संस्कारों ने नहीं दी अनुमति
तुमने सही को गलत कहा,
गलत को सही
कहना पड़ा मुझे भी वही।
X X X
वे झगड़े की आशंका,
अनेक सच्चाईयों को कर देती है मौन!"
"एक प्यार ऐसा भी" कविता :
"जाने वाले तू गया तो ठीक
पर क्यों छोड़ गया चौराहे मेरे लिये"
प्रेमिका की व्यथा दर्शाती हुई कविता है। "पीठ पर हाथ" में नारी के हृदय को मथती हुई पीड़ा देखिये –
"पर दुःख यह है
कि चलते हुए समनान्तर
तुम्हारा हाथ आ नहीं पाता अक्सर
मेरी पीठ पर
और मेरा कन्धा
चट्टान हो जाता है
तुम्हारे आँसुओं की नमी के बिना।"
मूड नामक कविता की कुछ पंक्तियाँ हृदय को मथती हैं।
"कितनी भी कोशिश करूँ
हर बार तुम्हारा मूड जीतता है
और मात खा जाता है मेरा मूड।"
मौन नामक कविता में शैलजा कहती है, "तुम्हारा मौन अब मेरे मौन के साथ ही रहता है"। इसी तरह अगले पृष्ठ पर "पृष्ठ भर लम्बी बात" में मुझे लगा कि हर नारी की यही कहानी है –
"तुम्हारे न्यून शब्दों में
और मेरी पृष्ठ भर लम्बी बात में
बात एक ही है।
X X X
शायद ये अतिरिक्त शब्द
मेरी
मुझी को दी गई सांत्वना है
या जो न पा सकी तुमसे
वही अपेक्षित भावना है।"
एक "किशोरी का पत्र" – जो माता-पिता को लिखा गया है, की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं, उसके हृदय की चिल्लाहट इन शब्दों में है –
"तुम्हें भय है कि तुम्हारी मुट्ठियों के बीच से
खिसक न जाऊँ मैं
क्यों कि सिर्फ़ सर्जना हूँ तुम्हारी
पर भूलते हो
गढ़ जाने के बाद रचना होती है स्वतंत्र, मुक्त
मैं अपने रास्ते खुद तय करना चाहती हूँ।"
"औरत" कविता में लगा कि लेखिका हार मान गई है, कम से कम उन क्षणों में,
"औरत
चाहे जिस ज़मीन की हो
चाहे जिस हवा में
पली-बड़ी हो
पर दुनिया का
समाजशास्त्र कहता है...
कि
आदमी से उसका कद
हमेशा
छोटा ही रहता है।"
बेटी के मायके में आने के मार्मिक भावों को लेखिका ने "घर आई मैं" कविता में बाँधा है –
"बरसों बाद मिलेंगे हम सब
कितनी ही बातें होंगी
तब दिन सचमुच के दिन होंगे
रातें सच्ची रातें होंगी।"
"पिता के लिये" कविता में बेटी के प्यार की अभिव्यक्ति कुछ इस प्रकार है –
"मैं सुनती हूँ फोन पर
दर्द में डूबी तुम्हारी आवाज़
X X X X
जीवन की सीमा पर
मौत की पहरेदारी ने
बाँध दिये हैं
मेरी चोर इच्छाओं के हाथ।"
पुस्तक का आरंभ स्व से होता है और गहरी संवेदनाओं और हृदय को चीरती हुई, सूक्ष्म अनुभूतियों से गुज़र कर समष्टि की व्यापकता का अंश हो जाता है। तब हृदय की पीड़ा कम होती दीखती है। जीवन की राहों में वह अकेला ही राहगीर नहीं है, तो व्यक्ति को समिष्टी में तिरोहित एक सांत्वना का एहसास जगाता है और पूछता है "क्या तुमको भी ऐसा लगा" कविता में -
" कितने ही अकेले,
अपने अकेलेपन पर साँकल चढ़ा
मिल गये उनके साथ ..!
संवेदना का वह बालक
बड़ा हो गया,
अपनी झोली में समेटे
इतना प्यार...
इतने अहसास.....
इतनी सिहरन....!
पूछता है वह
दुनिया के चौराहों से
अपनी भरी झोली समेटे-
मुझ को लगा जीवन ऐसा..........
क्या तुमको भी ऐसा लगा?
क्या तुमको भी ऐसा लगा??
इस पुस्तक की अन्तिम कविता है "नमन मगर न कर पाई" और इस कविता-संग्रह में लिखी कविताओं का निचोड़ इस अन्तिम कविता में जैसे कराह-कराह कर कह रहा है –
" खाली हाथ लौट मैं आई !
X X X
जाने कितने गान अधूरे,
जाने कितने स्वर बन गूँगे
X X X
यहाँ कपट की हवा चल रही, यहाँ अहं की हैं प्राचीरें
यहाँ स्वयं से झूठ बोलते, भीतर ही दो-दो जन बसते
बाहर के सच की क्या पूछो, अपने से आँख मिला न पाई !
खाली हाथ लौट मैं आई !!
बहुत सरल है भाषण देना, सबके सम्मुख "निज" ढँक लेना
X X X
माया की सारी ज़ंज़ीरें, अपने आप उठा कर पहनीं
और हृदय के क्षीण गान को, जान-बूझ अनसुना कर दिया
X X X
बाँध टकटकी अम्बर देखा, स्वाति बूँद चखने न पाई !
खाली हाथ लौट मैं आई !!
यह कविता जैसे ईश्वर के सम्मुख स्वीकारोक्ति है, अपने आत्मग्लानि से पीड़ित हृदय को, ईश्वर के सम्मुख खोल देना है।
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