अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

मानसपटल पर अमिट हस्ताक्षर है ‘अधलिखे पन्ने’

समीक्षित कृति: अधलिखे पन्ने (कविता संग्रह) 
लेखक: धर्मपाल महेंद्र जैन
प्रकाशक: न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, नई दिल्ली 
मूल्य: ₹250.00
प्रथम संस्करण: 2024

कविता व व्यंग्य के माध्यम से चेतना शून्य लोगों में चेतना भरने वाले, राजनीतिक, सामाजिक व अव्यवस्थाओं पर व्यंग्यात्मक कुल्हाड़ी चलाने वाले, भारतीय संस्कृति के संवाहक धर्मपाल महेंद्र जैन की कविताओं की तीसरी कृति ‘अधलिखे पन्ने’ का शीर्षक पाठकों को अपनी ओर खींचने वाला है। वैसे भी धर्मपाल महेंद्र जैन व्यंग्यकार के रूप में मेरी तरह से हज़ारों लोगों के हृदय में जागृति पैदा करके अपनी रचनाओं का पक्का पाठक बना चुके हैं। उनकी नई पुस्तक ‘अधलिखे पन्ने’ मानस पटल पर अमिट छाप छोड़ती है। मैंने उनकी अन्य कृतियों की तरह ‘अधलिखे पन्ने’ को मनोयोग से बिना थके पढ़ा है। मुझे इसकी कविताओं ने झकझोर दिया है। 

गर्भहरण पर लिखी लंबी कविता में उन्होंने स्त्री के मर्म को दिल की गहराइयों तक दर्शाया है तो समकालीन प्रवासी कविताओं से पाठकों को लंबे कालखंड का साक्षी बनाया है। मेरी तरह से आपकी जिज्ञासा बढ़ रही होगी, आप भी पुस्तक की समालोचना में कविताओं का आनंद लेने को आतुर होंगे तो अब मैं बिना किसी रुकावट के आपको ‘अधलिखे पन्ने’ से अवगत करा रहा हूँ। बात ‘इक्कीसवीं सदी के ईश्वर’ की जाए तो धर्मपाल जी कहते हैं:

“बहुत बदल गया ईश्वर दो हज़ार बीस से। 
बीच रास्ते ही मर गई प्रार्थनाएँ। 
न दीप जले
न जलते दुःख का धुआँ उठा
तमाम कोशिशों के बावजूद
जो लोग बॉडी बैग भर दिए गए
ईश्वर उनके पास भी नहीं आ पाया।” 

‘दो हज़ार तेईस की कविता’ को सॉफ़्टवेयर से लिखी कविता बताते हुए व्यंग्यकार धर्मपाल जी कटाक्ष करते हैं:
“सरकार बहुत अच्छी है
पाँच किलो अनाज मुफ़्त दे रही है
सस्ते दामों पर प्याज़ बेच रही है
लोग निडर और आज़ाद हैं
सड़क पर त्वरित और 
सहज न्याय की व्यवस्था है
इसे लीचिंग कहना पाप है।” 

आगे बढ़ते हुए कवि कहते हैं—मेरे भीतर कितने “मैं” हैं जाने-अनजाने। कितने “मैं” नए, किन्तु कुछ बहुत पुराने। कैनेडा के सरकारी दफ़्तरों और भारत में फ़र्क़ का ख़ाका कवि ने ‘आत्मीय लोग’ नामक कविता में बख़ूबी खींचा है। उन्होंने बताया कि कैनेडा में सरकारी दफ़्तरों में शालीनता के साथ, बिना रिश्वत के काम होते हैं। उसके विपरीत भारत के स्थानीय कार्यालय में काम कराने जाते हुए पाँव काँपने लगते हैं, छड़ी हाथ से छूट जाती है। कविताओं की अगली कड़ी में ‘स्नोमैन के हँसने के दिन’ कविता में गिलहरी की बुद्धिमता बताते हुए कवि लिखते हैं:

“गिलहरी जानती है फिर बरसेगा हिम
वह अपने छोटे से मुँह में फल दबा
डाल से झूल जाती है कलाबाज़
धरती का गुरुत्व साथ देता है फल तोड़ने में
वह विजयी मुद्रा में पैर जमा सरपट दौड़ जाती है।” 

‘मौन’ कविता में मौन की व्याख्या करते हुए कहा गया है—मौन एक प्रतिक्रिया है, मुस्कुराहट के बलिदान पर। ‘मंडी’ में किस तरह से दलालों का कब्ज़ा रहता है, ग़रीब व आम आदमी को ये कैसे लूटते है, इस पर सटीक व्यंग्य है। सरकार भी टैक्स वसूलने में पीछे नहींं रहती। कवि कहते हैं:

“मंडी के नाके पर कटी पर्ची
बुदबुदाया वह मन ही मन
मुई सरकार
जब जहाँ देखो टैक्स की भूखी।” 

तीन खंडों में प्रकाशित ‘मैं तुम्हारी अप्रसवा माँ’ कविता उस माँ की वेदना, पीड़ा, दर्द एवं ममत्व को दर्शाती है, जिसका गर्भ तीन बार गिर गया है। यह कविता वास्तव में अंतर्मन को झकझोर देती है, हृदय की धड़कनों को तेज़ कर देती है, पहाड़ जैसे दुःख को व्यक्त करती है, जिससे पीड़िता मृत्यु के देवता को धिक्कारती है, श्राप देती है। उनके मन की पीड़ा की एक झलक, अजन्मे बच्चे से माँ कहती है:

“तुम्हें लौटना ही था तो
मेरी साँसों से, धड़कनों से, हृदय से जुड़े ही क्यों? 
तुम्हारे यकायक लौटने से 
निर्वात सिर्फ़ कोख में नहीं उपजा
मेरी धरती की शिराएँ भी काँप गई हैं।” 

इसी के खंड दो ‘ओ गर्भ हरते देवता’ में धर्मपाल जी ने रुला देने वाले शब्दों को पिरोते हुए मृत्यु के देवता को कोसते हुए कहा है:

“तुमने छल किया है मृत्यु के देवता
ऐसा छल की सारी मनुष्यता
तुम्हें धिक्कारती रहेगी सृष्टि के अंत तक।” 

खंड तीन ‘कैसे परमपिता हो तुम’ में माँ परमपिता परमात्मा से रूबरू होते हुए कहती है:

“किसी अनुशासन से बँधे बिना तुम
सब पर थोपते हो अपना अलिखित क़ानून
जिसे कभी कोई चुनौती नहींं दे पाता। 
तुम्हारे लिए कितना सरल रहा होगा
कर्म-अकर्म-दुष्कर्म का विधान कर देना
सृजन और विध्वंस को
सारहीन भाग्य से जोड़ देना। 

 . . . आस्थापूरित शाप देकर मैं क्या करूँगी! 
तुम्हारी अवर्णनीय महासत्ता
तब भी परम ही रहेगी
ओ छद्म, कैसे परमपिता हो तुम
माँ का दर्द भी नहींं समझते।” 

‘एक चिट्ठी-राम-राम दद्दू’ में धर्मपाल जी ने गाँव की पुरानी ज़िन्दगी, प्यार-मोहब्बत, शहरी रहन-सहन और राजधानी की पारी पर तुलनात्मक लिखते हुए तीक्ष्ण बाण चलाये हैं। यूक्रेन व रूस युद्ध की विभीषिका के दुष्परिणामों को ‘बूढ़ी औरतें’ में लिखते हुए उन्होंने आईना दिखाकर आँखें खोली हैं। इसी तरह से ‘बच्चे नहीं जानते’ में भी युद्ध के तांडव का उल्लेख करते हुए कहा है:

“स्कूल की दीवारें कहीं ढहीं
कहीं खड़ीं, कालिमा-पुतीं
खेल के मैदान की जगह खाइयाँ
हर तरफ़ तांडव के परखच्चे
बिखरे जूते, टाँगें, सिर, बारूद
लोथड़े-लोथड़े बिखरे आदमी
अजीब-सी जली गंध
क्यों हैं हर तरफ़़? 
बच्चे नहीं जानते।” 

‘सलीके से जीने में’ कविता में कवि ने आलसी व्यक्ति पर प्रहार करते हुए उसे राह दिखाई है। ‘सहयात्री’ के माध्यम से यात्रियों की बदलती ज़िन्दगी, ट्रेन व वायुयान में फ़र्क़, भागदौड़ की ज़िन्दगी में खोते अपनेपन पर क़लम चलाते हुए सटीक विश्लेषण किया है। ‘प्रवासी’ नामक कविता प्रवासियों की अभिलाषा को व्यक्त करती है, वही विदेशों के प्रति भारतीयों के रुझान पर कटाक्ष करते हुए धर्मपाल जी कहते हैं:

“नई संस्कृति की तलाश में
लोग, ख़ुद से कटते रहे
उन्हें सच कहना नहीं आया
वे हाथों में डुगडुगी उठाये 
उसके टकोरे तलाशते रहे। 
उस ज़मीन की गंध उन्हें पसंद न थी, 
इस ज़मीन में उन्हें गंध ही नहीं मिली।” 

‘नींव’ में मठाधीश व सत्ता के लिए किए जाने वाले अन्याय को उजागर करते हुए कवि ने हिम्मत व दिलेरी का सबूत दिया है। वे लिखते हैं:

“धूल से सनी सड़कें हैं और
उनके वक्ष पर दौड़ते
बुलडोज़र, ट्रक और मशीनें। 

धरती पर छा गए पत्थर माफ़िया
पहाड़ इंच-इंच टूटता है
गिट्टी बनता है धीरे-धीरे
मज़बूत होने लगती है
सत्ता की नींव।” 

जिस कोरोना ने दुनिया में दहशत फैलाई, लाखों लोगों को काल का ग्रास बनाया, उस पर पाँच खंडों में कविता लिखते हुए उन्होंने कोरोना चक्रव्यूह व उसकी विभीषिका और ख़ुद से ही डरते आदमी का बख़ूबी वर्णन किया है। धर्मपाल जी ने जो लिखा है वह उनके जैसा बिरला कवि ही लिख सकता है। उनकी एक बानगी पढ़िए:

“दिमाग़ पर फन फैलाए बैठा है डर
कि कही राहगीर में वायरस न हो। 
 . . . किसी ने सोचा न था 
एक वायरस छीन लेगा कभी
मनुष्य की आज़ादी इस तरह। 
 . . . राजनीति के तवे पर
रोटियाँ जल रही हैं। 
हारे सहमे लोग
धू-धू जलती चिताएँ देख रहे हैं
इस संतोष के साथ कि
मृतक को मिट्टी नसीब हो गई
कम से कम। 

 . . . दोपहर में रात जैसा सन्नाटा! 
अँधेरे की परिभाषा बदल रही है शायद। 
 . . . ज़िन्दा रहना है तो घर में बंद कर लो ख़ुद को।” 

आतंकवादी सिरफिरों पर व्यंग्यात्मक कुल्हाड़ी से वार करते हुए धर्मपाल जी ने ‘तोड़ने से पहले’ कविता में नसीहत देते हुए कहा है—एक फूल उगाकर तो देखो, उसे तोड़ने से पहले। ‘शहरीकरण’, गाँव से शहर की ओर भागते युवाओं की आँखें खोलने के लिए काफ़ी है। वहीं ‘आम लोग’ में उन्होंने पुलिस पर तीक्ष्ण बाण चलाये हैं। ‘टोरंटो’ नामक कविता में आप घर बैठे कवि के शहर का खुली आँखों से नज़ारा देख सकते हैं। कविता की प्रथम दो पंक्तियों में टोरंटो के प्रति आकर्षण इस तरह है:

“झील में जब शाम घुलती है
मेरा शहर जगमगा उठता है।” 

पुस्तक ‘अधलिखे पन्ने’ में पेज नंबर 79 पर लिखी कविता ‘अधलिखे पन्ने’ में क्या है, क्या नहीं है, कवि ने कैसे काल्पनिक लेंस को ओरिजिनल लेंस बनाया है, यह आपको ख़ुद ही पढ़ना पड़ेगा। फिर भी बस इतना ही कहूँगा—“अधलिखे पन्ने, लाइलाज जख़्म छोड़ जाते हैं।” इनके अलावा राजा, आततायी, बर्फ़ीले तूफ़ान, बादशाह के नाम पर, निर्वसन, बसंत जब भी आता है, स्मृति चिह्न, एहसास, उत्सव, काग़ज़ के टुकड़े, परंपरा, अलसुबह, दृष्टि, सब अच्छा है, प्लेटफ़ॉर्म नंबर तीन, अलविदा की शाम ऐसी कविताएँ है, जिनमें कवि ने पूरी ताक़त लगा दी है कि वे आपको आपकी मंशा अनुसार पर्याप्त पाठ्यसामग्री दे सकें। उन्होंने ‘प्रश्नवाचक समय’ के साथ अपना वादा निभाया भी है। प्रसिद्ध व्यंग्यकार, कवि एवं साहित्यकार धर्मपाल जी ने अपने इस तीसरे कविता संकलन ‘अधलिखे पन्ने’ में नए विषय जोड़कर अपनी कविता यात्रा को निरंतर जारी रखा है। भले ही भाषा, प्रतीक व कहन का अंदाज़ बदला हो, लेकिन उन्होंने केंद्रीय भाव से कोई समझौता नहीं किया है। पाठकों की रुचि का भरपूर ख़्याल रखा है। नई कृति ‘अधलिखे पन्ने’ में 134 पेजों में 91 कविताओं को अमिट स्याही से ऐसे सजाया है कि इसे सामान्य पाठक अनवरत व अनथक पढ़ता चला जाता है। मैंने उनकी सभी रचनाओं को पढ़ा व दिल में गढ़ा-मढ़ा है। सभी एक से बढ़कर एक नहीं, बल्कि अनेक हैं। मुझे लगता है कि व्यंग्य की शृंखला में धर्मपाल महेंद्र जैन ख़ुद के साथ पाठकों को भी ऐसे डूबो देते हैं कि बीच भँवर में रुकना नामुमक़िन है। मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि ‘अधलिखे पन्ने’ उच्चतम रूप की रचना है। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं