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मध्यवक्ता

 

डिंपली के शहर की एक प्रतिष्ठित लेखिका के जन्मोत्सव का अवसर था। इस अवसर पर 6 पुस्तकों के विमोचन की आयोजना भी की गई थी। एक तो राष्ट्रीय स्तर की लेखिका, उस पर जन्मदिन का उत्साह और सबसे ऊपर देश के प्रधानमंत्री के जन्मोत्सव के ख़ुशी की हैट्रिक। लेखिका अपनी लेखनी से आगे बढ़कर समाज सेवा से भी जुड़ी हुई थीं। ऐसे पावन अवसर पर सभागार साहित्यकारों एवं समाजसेवियों से ठसाठस भरा हुआ था। अगर यह कहें कि सभागार में तिल धरने की जगह न थी, तो अत्युक्ति न होगी। 

डिंपली भी 21 तोपों की सलामी देने का उत्साह लिए पहुँच गई साहित्यिक यज्ञ में। सबसे बड़ी बात यह कि उसकी विह्वलता का कारण विमोचन होने वाले पुस्तकों में से एक पुस्तक का परिचय देने का दायित्व स्वयं लेखिका द्वारा दिया गया था। अति उत्साही समीक्षक की भूमिका के उद्देश्य से वह ठीक समय से पाँच मिनट पहले पहुँच गई। वह सभागार में अपने बोलने के अवसर की प्रतीक्षा कर रही थी। 

डिंपली के लिए बोलने का यह क्रम अत्यंत आह्लादक तथा संघर्षमय था। उसे अपने दो गुरुओं के बीच बोलने का साहस जुटाना अंगद कार्य प्रतीत हो रहा था। जब से लेखिका ने डिंपली को पुस्तक परिचय का कार्य दिया था, उसके पैर ज़मीन पर नहीं टिक रहे थे। शिक्षित वर्ग के कार्यक्रम के सामयिक बोध से सभी परिचित हैं। पहले गुरु ने गुरुभार उठाया और सुशील कुमार की भाँति पूरा दमख़म लगाते हुए अपने वक्तव्य के आरंभिक साढ़े तेरह मिनट अभिनंदन ग्रंथ समारोह के मंचस्थ व्यक्तियों के नामकरण पर समर्पित कर दिया। तत्पश्चात् उन्होंने पूरे मनोयोग से अभिनंदन ग्रंथ के प्रवेशद्वार को खटखटाया। गुरुदेव उस अभिनंदन ग्रंथ के हर खंड रूपी कमरे में झाँकते हुए आगे बढ़ते रहे, लगभग 45 मिनट होते न होते बिजली चली गयी। डिंपली के तो प्राण ही सूख गए, क्योंकि उसकी पतली आवाज़ उस सभागार में सब तक पहुँचना अति मुश्किल था। वह तो उसका भाग्य अच्छा था कि बिजली पुनः मटकती हुई आ गई, डिंपली का मन खिल उठा। बिजली गुरुजी की दहाड़ती आवाज़ का कुछ नहीं बिगाड़ सकती थी, लेकिन डिंपली के लिए अपरिहार्यतासूचक थी। 

जैसे ही डिंपली का नाम पुकारा गया, उसने अपने वक्तव्य को बिना विराम लिए बोलना शुरू कर दिया, अभी 6 मिनट भी न हुए थे कि ‘मैम प्लीज़’ की पर्ची उड़ते हुए सामने आ गई। उसने 8 घंटे पुस्तक को पढ़ने, उसके परिचय को लिखने तथा उसके टंकण में निवेश किया था और 8 मिनट भी न मिले। डिंपली ने अपने वक्तव्य को विराम दिया और आकर दर्शकदीर्घा में विराजमान हो गयी। अगली वक्ता, जो डिंपली की गुरु थीं उन्होंने लक्ष्मीवाहन के साथ जागरण करते हुए रात्रि पर्यंत अपना वक्तव्य तैयार किया था। डिंपली अपने पूर्व वक्ता गुरुजी और उत्तर वक्ता गुरु के वक्तव्य का समय क्रम देख स्वयं पर आज अत्यंत गर्वान्वित थी। इसके पश्चात् सभी दोपहरभोज हेतु भोजनकक्ष की ओर उन्मुख हुए। इसके पश्चात् के कार्यक्रम में खाए-पिए-खिसके के दृश्य ने डिंपली के सारे उत्साह पर पानी फेर दिया था। अब वह सीख चुकी थी कि साहित्यिक सभा प्रबुद्धजीवियों के वास्तविक स्वरूप का दिग्दर्शन कराती है। मुफ़्त में प्राप्त उपहार पुस्तकों के साथ आधा सभागार चंपत हो चुका था। डिंपली के उत्साह ने भी टूटती साँसों के साथ उसे घर का रुख़ करने का सुझाव दिया, जिसका पालन उसने तत्परतापूर्वक किया। आज उसका मध्यवक्ता होना उसके वुजूद को शाबाशी दे रहा था।

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