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महाभारत

 

रचें श्लोक श्री व्यास जी, लिखते श्री गणराज। 
ग्रन्थ महाभारत बना, महा काव्य सरताज॥1 
 
बार-बार पापी मरे, जिवित रहे पर पाप। 
आदिकाल से यह धरा, सहे पाप का ताप॥2 
 
बड़े-बड़े विद्वान् भी, फसें पाप के फंद। 
पूँजी जिनके कीर्ति की, खा जाता है द्वन्द्व॥3 
 
निर्णय ग़लत अतीत का, बने युगों का शूल। 
सदियों कोशिश विधि करे, नहीं सुधरती भूल॥4 
 
विकसित उत्तम सभ्यता, कलंक सकी न मेट। 
साक्षी भू कुरुक्षेत्र की, चढ़ी युद्ध के भेंट॥5 
 
सौ बाणो का घाव दे, एक विषैली बात। 
व्यर्थ बढ़ाए वैर को, तोड़े जग से नात॥6 
 
बिच्छू विषधर पाल लो, रख लो उनसे आस। 
किन्तु कुटिल इंसान को, कभी न रखना पास॥7 
 
पलते जिस परिवार में, शकुनी जैसे नाग। 
रोज़ महाभारत मचे, फूटे घर के भाग॥8 
 
लाक्षागृह की आग में, भस्म हुए सम्बन्ध। 
प्रेम दया विश्वास की, लाशें देती गंध॥9 
 
भक्षक से रक्षक बड़ा, सच्ची है यह बात। 
कुटिल शकुनि की चाल को, दिया विदुर ने मात॥10 
 
बड़े-बड़े मतिमंद हैं, भरे पड़े संसार। 
अपने हाथ उजाड़ते, जो अपना परिवार॥11 
 
ईंट नींव के बन गए, आज शकुनि के पाश। 
नयन हीन धृतराष्ट्र को, दिखने लगा विनाश॥12 
 
धूं-धूं मर्यादा जले, हाँथ सेंकता पाप। 
फाँसी देने न्याय को, कण्ठ रहा है माप॥13
 
याद दिलाता फ़र्ज़ को, चीख-चीख के धर्म। 
कौन सुने असहाय की, बेची सब ने शर्म॥14 
 
नीति निपुण ज्ञानी विदुर, धर्मराज अवतार। 
सह न सके अन्याय को, चले सभा धिक्कार॥15 
 
तुम्हें पुकारे द्रौपदी, सुन लो मोहन टेर। 
आ रोको अंधेर को, करो नहीं तुम देर॥16 
 
कहती रो-रो द्रौपदी, वस्तु नहीं मैं नाथ। 
खेल जुए का हार के, पीटे पांडव माथ॥17 
 
क्रुद्ध शेरनी द्रौपदी, करती कठिन दहाड़। 
काँप उठी सारी सभा, जैसे गिरा पहाड़॥18 
 
करे प्रतिज्ञा द्रौपदी, सुन लो सभी नरेश। 
दुःशासन के रक्त से, शुद्ध करूँगी केश॥19 
 
टूटेगा यह मौन अरु, चीखेंगे सब लोग। 
मेरे इस अपमान का, युगों मनेगा सोग॥20 
 
सौ सिंहों की गर्जना, गूँज उठी ज्यों साथ। 
भीषण प्रण सुन भीम का, सहम उठा कुरुनाथ॥21 
 
काँप उठेगी क्रूरता, देख दुशासन हाल। 
खींच रहा ज्यों चीर तू, त्यों खींचूँगा खाल॥22 
 
तेरी जंघा तोड़ के, अहम करूँगा चूर्ण। 
दुर्योधन के अंत से, होगा ये प्रण पूर्ण॥23 
 
सदा समय बहता नहीं, पकड़ एक ही कूल। 
कभी बिठाए अर्श पे, कभी चटाए धूल॥24 
 
पांडव सबकुछ हार के, छाने वन की ख़ाक। 
प्यासे रहतें हैं कभी, कभी मिले बस शाक॥25 
 
जितना तुझसे हो सके, रात लगा ले ज़ोर। 
स्याही तेरी चीर के, पर आएगी भोर॥26
 
खिले कमल मरुभूमि में, अगर समय अनुकूल। 
हुआ समय प्रतिकूल जो, जल से जले बबूल॥27 
 
गिन-गिन मुश्किल दिन कटे, पूर्ण हुआ वनवास। 
जीवित पांडव देख के, टूटी कुरूपति आस॥28 
 
व्यास भीष्म कृप द्रोण सह, हरि ने मानी हार। 
समझा दुर्योधन नहीं, आदत से लाचार॥29 
 
मूर्ख कहें बस ग्वाल है, भक्त कहें सुर भूप। 
जिसकी जैसी भावना, त्यों देखे वह रूप॥30 
 
भगवन दें चेतावनी, खड़े चक्र को थाम। 
दुर्योधन दुर्भाव का, तय है दुष्परिणाम॥31 
 
अहंकार के अश्व की, कस के रखो लगाम। 
करो कलंकित तुम नहीं, भरत वंश का नाम॥32 
 
परजीवी है दम्भ भी, नहीं किसी का भक्त। 
जो है इसको पालता, पिए उसी का रक्त॥33 
 
शीतल जलता मन करो, बुझा बैर की आँच। 
कुरुपति रख लो राज्य तुम, गाँव हमें दो पाँच॥34 
 
हठधर्मी समझे नहीं, कभी विनय की बात। 
उनकी बुद्धि तब है खुले, सहते जब आघात॥35 
 
जिनके कर कटु दुख लिखा, बैठे मति से रूठ। 
करें वकालत पाप की, कहें सत्य को झूठ॥36 
 
एक पक्ष में धर्म है, दूजे खड़ा अधर्म। 
रक्षा में निज पक्ष के, करें वीर हैं कर्म॥37 
 
बने सारथी कृष्ण ने, रथ रोका रण बीच। 
भावुक मन हो पार्थ का, सना मोह की कीच॥38 
 
मोह ग्रस्त अर्जुन खड़ा, करे रुदन रण बीच। 
कहे युद्ध कैसे करूँ, बनूँ स्वार्थ में नीच॥39 
 
चाहे भिक्षा माँगकर, पाले निज परिवार। 
किन्तु नहीं अर्जुन कभी, करे युद्ध स्वीकार॥40 
 
धरती अंबर रुक गए, रुकी समय की चाल। 
उत्तर पा हर प्रश्न का, अर्जुन हुआ निहाल॥41 
 
दिया सृष्टि के आदि में, सूरज को जो ज्ञान। 
सुना रहा मैं फिर वही, सुनो पार्थ दे ध्यान॥42 
 
मुझे याद हर जन्म है, भूला तुम्हें अतीत। 
नर नारायण है हमीं, याद करो तुम मीत॥43 
 
मैं श्रष्टा मैं सृष्टि हूँ, मैं ही पुरुष अकाल। 
श्रोत ज्ञान विज्ञान का, मैं ही माया जाल॥44 
 
मैं ही निर्गुण ब्रह्म हूँ, अरु मैं ही साकार। 
अर्जुन मैं थामे खड़ा, सब लोकों का भार॥45 
 
मैं अभियंता काल का, करूँ नियंत्रित चाल। 
माया मेरी शक्ति से, खेले खेल कमाल॥46 
 
अर्जुन मैं निश्चित करूँ, धरा गगन की माप। 
मैं ही सूरज चंद्र की, तय करता गति ताप॥47 
 
इस विशाल जग वृक्ष का, अर्जुन मैं हूँ मूल। 
फैली शाख़ अबाध अति, हैं अन्नंत फल फूल॥48 
 
हानि लाभ जीवन मरण, कर्म सभी का हेतु। 
कभी कर्म मझधार है, कभी कर्म है सेतु॥49 
 
जो जन अनन्य भाव से, भजे मुझे निष्काम। 
गिरें नहीं वे मोह में, खड़ा उन्हें मैं थाम॥50 
 
आते मेरे पास जो, तोड़ जगत से आस। 
पाप मुक्त करता उन्हें, जिनका दृढ़ विश्वास॥51 
 
सदा सींचती लालसा, विषयों की जड़ मूल। 
जिसकी सुन्दर शाख़ पर, खिले विषैले शूल॥52
 
अन्तर देही देह का, समझो होकर मौन। 
पूछो अपने आप से, आख़िर मैं हूँ कौन॥53 
 
बुद्धि चित्त मन भावना, अस्थि रक्त या चर्म। 
क्या हूँ मैं समझाइये, भगवन मुझको मर्म॥54 
 
त्यागो फल आसक्ति को, करो सदा हर कर्म। 
कर्म योग का मैं कहूँ, अर्जुन तुमसे मर्म॥55 
 
पारस हो या कोयला, हो ग़रीब या राव। 
देखे मुझको हर जीव में, रहे सदा समभाव॥56 
 
नारायण के नेह ने, नष्ट किया भव कूप। 
दिव्य दृष्टि से पार्थ ने, देखा ब्रह्म स्वरूप॥57 
 
मेरे दिव्य स्वरूप को, जान सका है कौन। 
नेति-नेति कहकर हुए, योगी तपसी मौन॥58 
 
दिया पार्थ को कृष्ण ने, गीता का उपदेश। 
शोक मुक्त अर्जुन हुआ, देख प्रगट विश्वेश॥59 
 
शंखनाद से कृष्ण के, हुआ युद्ध आरम्भ। 
चंद दिनों में खो गया, बड़ों-बड़ों का दंभ॥60 
 
दिव्य दृष्टि से देखकर, संजय दें सन्देश। 
कभी हँसे धृतराष्ट्र तो, कभी बढ़े आवेश॥61 
 
नारी के अपमान का, देखे जग परिणाम। 
क्रूर दिवस हत्या करे, चिता जलाती शाम॥62 
 
बदल गए वर श्राप में, चला समय वह चाल। 
लिए प्राण निज हाँथ में, ख़ुद खोजें सब काल॥63 
 
थर-थर दिक् भू काँपते, सहम खड़ा आकाश। 
युद्ध महा भारत करे, वीरों का नित नाश॥64 
 
टकराकर जब शक्तियाँ, करें भयानक चोट। 
धरा गगन सुन काँपते, शस्त्रों का विस्फोट॥65 
 
बरसों से भूखी पड़ी, मृत्यु भरे अब पेट। 
घूम-घूम कुरु क्षेत्र में, खेल रही आखेट॥66 
 
क़र्ज़ चुकाया जा सके, लौटाकर धन धान। 
लेकिन देकर प्राण भी, चुके नहीं एहसान॥67 
 
दुर्योधन के शुभ कर्म का, कर्ण बना प्रतिरूप। 
रखे छाँव सिर मित्र के, सहता है ख़ुद धूप॥68 
 
बँधा वचन में ही रहा, कर न सका अवमान। 
प्राण लुटा के चल दिया, दानी कर्ण महान॥69 
 
एक-एक कर छोड़ते, महारथी सब साथ। 
देखे दुर्योधन शिविर, बैठा पकड़े माथ॥70 
 
भरा घड़ा जो पाप का, आज रहा वह फूट। 
रही सूई की नोक अब, दुर्योधन से छूट॥71 
 
रक्त सना कुरुक्षेत्र है, रोता है कुरु वंश। 
ले डूबा धृतराष्ट्र को, मित्र शकुनि का दंश॥72 
 
लालच द्वेष क्लेश ने, हाय लिया सब लूट। 
पुष्प फूँक निज बाग़ के, रोए माली फूट॥73 
 
पाने को जिसको किया, जीवन भर दुष्कर्म। 
हाँथ पसारे जब गिरा, समझा सारा मर्म॥74 
 
समझा दुर्योधन नहीं, कुछ देने की सीख। 
विवश आज वह माँगता, निज जीवन की भीख॥75 
 
झूठ चमकता चार दिन, फिर पड़ता है मंद। 
कहते वेद पुराण सब, फसों न इसके फंद॥76 
 
नहीं किसी भी युद्ध से, हुआ जगत कल्यान। 
दुष्टों के हठ लोभ का, भुगते दुख हर जान॥77 
 
जीत महा संग्राम को, पांडव खड़े निराश। 
परिजन पुरजन की पड़ी, देखें इत-उत लाश॥78
 
देख दृश्य रण भूमि का, करें हृदय चीत्कार। 
बच्चे बूढ़े नारियाँ, सहें दुःख लाचार॥79 
 
मौत मनाती मौज है, देख चिता की आग। 
बेबस बैठी ज़िन्दगी, रो-रो कोसे भाग॥80 
 
नयन-नयन में नीर है, हृदय-हृदय बस पीर। 
धीर-धरे सब सब सह रहे, चुभते दुख के तीर॥81 
 
बोना नहीं बबूल को, जो चाहो तुम आम। 
पड़े भुगतना कर्म को, निश्चित हैं परिणाम॥82 
 
काल परीक्षा ले रहा, खड़ी प्रतिज्ञा मौन। 
पूँछें इस संहार का, उत्तर दायी कौन॥83 
 
गंगा जिनकी मात हैं, गुरु श्री परशुराम। 
वह भी तीरो पर पड़े, सहें कर्म परिणाम॥84 
 
सुनकर जिनकी गर्जना, राह बदलते तीर। 
शर शय्या पर वो पड़े, सहें दुसह है पीर॥85 
 
तीखे तीरों पर पड़ी, सूखे जीवन बेल। 
पता नहीं किस भूल की, सजा रही है झेल॥86 
 
मेरे जीवन दीप का, ख़त्म हुआ अब तेल। 
आओ जी भर देख लूँ, कर लूँ अंतिम मेल॥87 
 
है अविनाशी आत्मा, मुझ अनंत का अंश। 
उसपर चलता है नहीं, ज़रा मृत्यु का दंश॥88 
 
आँसू पश्चाताप के, करें हृदय को शुद्ध। 
जो निज भूल सुधार ले, मानव वही प्रबुद्ध॥89 
 
पार्थ पुराने वस्त्र सम, तजे आत्मा देह। 
भूले पिछले जन्म को, जोड़े नव से नेह॥90 
 
हैं चौरासी योनियाँ, दुष्कर जाल अतीव। 
जन्म मरण के चक्र में, रहे भटकता जीव॥91 
 
जिसके मन मेरे सिवा, नहीं दूसरी चाह। 
ऐसे अनन्य भक्त को, मिले मुक्ति की राह॥92 
 
कहने सुनने का विषय, नहीं आत्म का ज्ञान। 
इसका अनुभव कर सके, केवल संत महान॥93 
 
कैसे कहे संसार से, गूँगा गुड़ का स्वाद। 
जो चखते वो जानते, बाक़ी करें विवाद॥94 
 
और न कोई योग्यता, मैं तो देखूँ पार्थ। 
मैं उसका मेरा वही, जो तज दे सब स्वार्थ॥95 
 
बार-बार है जन्मता, मरता बारम्बार। 
भोगे सुख-दुख जीव निज, कर्मों के अनुसार॥96 
 
जो बोते हैं आग को, वो काटें हैं राख। 
कैसे मीठे फल भला, दे बबूल की शाख़॥97 
 
बार-बार तृण जोड़ के, जीव बनाए नीड़। 
उड़े अकेला एक दिन, छोड़ जगत की भीड़॥98 
 
रच प्रपंच संसार का, माया खेले खेल। 
बिखरा सत्य सर्वत्र है, किन्तु न होता मेल॥99 
 
मैं तो माध्यम मात्र हूँ, करता तुम हो नाथ। 
मेरे बस में कुछ नहीं, सब कुछ तेरे हाथ॥100

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टिप्पणियाँ

Akash shukla 2023/11/24 11:20 AM

Bhut sundar pankti

Ajay Vasant Patil 2023/11/24 10:26 AM

बहुत ही सुंदर रचना है.

राधे गोपकल 2023/11/24 08:37 AM

बहुत बढ़िया

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