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नवगीत: विचार-विमर्श के निहितार्थ

समीक्षित पुस्तक: नवगीत : संवादों के सारांश (साक्षात्कार संकलन)
लेखक: डॉ. अवनीश सिंह चौहान
प्रकाशक: प्रकाश बुक डिपो, बरेली-2403003
ई-मेल: prakashbookdepot@gmail.com
आईएसबीएन: 978-93-91984-32-8
मूल्य: ₹350.00

सन् 1956 में नए गीत का नामकरण नवगीत हुआ था। इसे बहुत लंबी उम्र मिली है, आज भी गीत विधा में तमाम परिवर्तनों के बावजूद नवगीत संबोधन स्वीकार्य है। नवगीत की अवधारणा, नई कविता और पारंपरिक गीत से उसका पार्थक्य, नवगीत की सार्थकता पर आलोचकों ने बहुत लिखा है। यह देखना अप्रासंगिक न होगा कि अंतस्साक्ष्य से इन प्रश्नों और मुद्दों से कितना स्पष्टीकरण होता है? अवनीश सिंह चौहान ने ‘नवगीत: संवादों के सारांश’ में चौदह नवगीतकारों से बातचीत को संक्षेप में प्रस्तुत कर पाठकों और समीक्षकों को यह जानने का अवसर दिया है कि उनके नवगीत संबंधी मंतव्य क्या हैं। मधुकर अष्ठाना ने नवगीत के सामाजिक दायित्व का उल्लेख करते हुए बताया है— “नवगीत आनुभूतिक यथार्थ का कच्चा चिट्ठा सामान्यजन के समक्ष प्रस्तुत कर परिवर्तन की दिशा में प्रतिरोध का वातावरण बनाने का संदेश देता है।” नवगीत में अभिव्यक्ति की नई भंगिमाओं को समेकित करते हुए गुलाब सिंह कहते हैं— “नवगीत में अपने समय और जीवन में व्याप्त विसंगतियों से टकराने और संघर्ष करने की प्रेरणा व्याप्त है। अब ‘विहंगम दृष्टि’ की जगह गम्भीर और दूर दृष्टि की अपेक्षा की जाती है। आज का शिल्प खुरदुरा, सघन और सार-संक्षेप के निकट है।” राम सेंगर नवगीत के वैशिष्ट्य को उद्घाटित करते हुए लिखते हैं— “बौद्धिक विश्लेषण द्वारा जीवन-स्थितियों के आर-पार देखने की जो सर्जनात्मक आत्मदृष्टि नवगीत के पास है, वह पुराने गीत या कविता के पास नहीं है।” रचनाकार की निर्णायक कसौटी विचारधारा को मानते हुए भी राम सेंगर विचार और संवेदना के समाज-सापेक्ष संतुलन के हामी हैं।” डॉ. ओम प्रकाश सिंह विचारधारा की जकड़न से मुक्ति को आवश्यक बताते हुए लिखते हैं— “नदी जब अपने यौवन में होती हैं, तब वह सभी बंधनों और सीमाओं को तोड़कर आनंद की विजय यात्रा करती है।”

नवगीत को गीत का आधुनिक संस्करण मानते हुए वीरेंद्र आस्तिक ने नवगीत के सांस्कृतिक पक्ष को महत्त्वपूर्ण माना है— “नवगीत वास्तव में मानविक सच्चाई तथा मानव संवेदना की प्रतिमूर्ति है, लेकिन इससे पहले वह सांस्कृतिक अस्मिता का बिम्ब भी है।” मयंक श्रीवास्तव का मानना है— “नवगीत मूलतः और मुख्यतः जीवन की जीवंत अभिव्यक्ति है। नवगीत तो भारतीय संस्कारों से संपृक्त संगीतमय मांगलिक उद्गार है।” रामनारायण रमण नवगीत को जन सरोकारों से लैस करना ज़रूरी मानते हैं— “नवगीत को जन-जन तक पहुँचने के लिए उसे वर्तमान समस्याओं से टकराना होगा और समाधानों को खोजना होगा।” लेकिन डॉ. शान्ति सुमन नवगीत की वर्तमान भूमिका के प्रति आश्वस्त हैं— आज का नवगीतकार पैबंद पर पैबंद लगाने में विश्वास नहीं करता, बल्कि वह यथास्थिति को खोलना चाहता है, देखना-समझना चाहता है और उसे अभिव्यक्त करना चाहता है।”

गीत और कविता, नवगीत और नई कविता के अंतर पर नवगीतकारों ने जहाँ-तहाँ अपने विचार व्यक्त किए हैं। सत्यनारायण प्रश्नोत्तरी करते हुए कहते हैं— “क्या गीत/ नवगीत और कविता की अन्तर्वस्तु में कन्टेन्ट में कोई बुनियादी अन्तर है? फ़ार्म (छन्द और छन्दमुक्त) को छोड़कर इनके बिम्ब, प्रतीक अलग-अलग नहीं होते। शिल्प तो रचना की अपनी विशिष्टता है। रचना कथ्य के अनुरूप अपना शिल्प गढ़ती है।” गुलाब सिंह नई कविता और नवगीत की संवेदना में कोई मूलभूत अंतर नहीं पाते हैं— “संवेदना-शून्य होकर न कविता लिखी जा सकती है, न नवगीत, क्योंकि रूप का जो अन्तर दिखाई पड़ता है, वह बाह्य है, भीतर दोनों एक हैं। मूल्यक्षरण और अमानवीयता के प्रति गहरा आक्रोश दोनों ही शैलियों में देखा जा सकता है। आज के गीत अथवा नवगीत इस मुद्दे पर पहले की अपेक्षा अधिक सतर्क हैं। उनके परिवर्तित रूप का यह मूल आधार है।” डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र ने कहा है— “कविता यदि हिमालय पर्वत शृंखला है, तो गीत उसका श्रेष्ठतम कैलाश शिखर।” नचिकेता के विचार में “कविता अगर मनुष्यता की मातृभाषा है तो गीत मानवीय संवेदनाओं का अर्थसम्पृक्त अन्तःसंगीत।” कुमार रवींद्र गीत और नवगीत में पिता-पुत्र का रिश्ता मानते होते हुए भी उन्हें एक दूसरे के ‘क्लोन’ के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ की धारणा है कि “अब नई कविता तो जीवन के साथ क़दम मिलाकर चल ही नहीं पा रही है। यह कार्य इस समय केवल नवगीत कर रहा है।”

कुछ प्रश्नोत्तर नवगीत की स्वस्थ परंपरा के पक्षधर होने के कारण कुछ विद्यमान ‘ट्रेंडों’ के प्रति असहमति का भी संकेत करते हैं। राम सेंगर कहते हैं— “नवगीत के बहुत सारे ट्रेनिंग स्कूल खुले हैं देशभर में। पाठशालाएँ खुली हैं। कुछ छंदशास्त्री तो कई छंद की पाठशालायें चला रहे हैं। फ़ेसबुक पर और व्हाट्सएप पर भी पता नहीं किस-किस के विमर्श की क्लासेज़ लग रही हैं। इन पाठशालाओं, ट्रेनिंग स्कूलों और विमर्श केन्द्रों में जो सबक़ दिये जा रहे हैं, विद्यार्थी (नवगीत के) उन्हें अपनी कॉपी पर उतार लेते हैं और सुलेख लिखते हैं टाटपट्टी पर अग़ल-बग़ल बैठे हुओं की टीप-टाप कर। तूने क्या लिखा, मैंने तो ऐसा लिखा, तू ज़रा दिखा, हाँ ठीक। तो लीजिए एक सबक़ पर पूरी क्लास के नवगीत तैयार।” मधुसूदन साहा नवगीत को आंदोलन मानने से इनकार करते हैं— “सच यह है कि नवगीत न पूरी तरह आंदोलन है और न अभियान। आंदोलन एक नयी उथल-पुथल मचा देने वाला समवेत प्रयास होता है और अभियान में हमलावर प्रवृत्ति की सांकेतिकता रहती है, किन्तु नवगीत तो प्रारंभ से ही प्रवर्तन के प्रलोभन में पड़कर शिविरवद्धता के चक्रव्यूह में फँस गया।” इस तरह ये संवाद अनेक स्तरों पर विचारोत्तेजक और ध्यानाकर्षक हैं। 

संपादक का विचार इस कृति को विधागत बिंदुओं पर रोचक एवं रचनात्मक संवाद बनाना था और वह अपने उद्देश्यों में सर्वथा सफल है। 

संदर्भ:

‘नवगीत: संवादों के सारांश', सं डॉ. अवनीश सिंह चौहान, प्रकाश बुक डिपो, बड़ा बाज़ार, बरेली-03, प्रथम संस्करण 2023

समीक्षक: डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ,

डी-231, रमेश विहार, अलीगढ़-01, मो. 9837004113

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