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फिर आना! 

पतले शीशों की ऐनक में शाम का सूरज ढल रहा था। संध्या की लालिमा में घुल कर उसका साँवला चेहरा ताम्बई होने लगा। कस कर बनाए गए जूड़े से निकल कर बालों की एक लट हवा से शरारतें कर रही थी। अपनी देह पर घटते इन परिवर्तनों के प्रति निर्विकार-सी बनी वह पार्क की बेंच के सहारे मूर्तिवत टिकी हुई थी। 

बरसों बाद की मुलाक़ात का कोई उछाह उसके चेहरे पर दर्ज नहीं हो पाया। आठ सालों बाद अचानक वह मुझे इस पार्क में मिली और पिछले चालीस मिनटों से हम साथ है। इस दौरान उसने मुझे सिर्फ़ पहचाना भर है। यह उसकी बहुत पुरानी आदत है, जान कर भी अनजान बने रहना। 

“अब चलें?” उसके होठों से झरने वाली किसी शब्द की प्रतीक्षा में ख़ुद को अधीर पाकर मैंने कहा। अपने से बातें करते रहने की उसकी यह अदा कभी मुझे बहुत रिझाती थी। आज सालों बाद यही अदा झेल पाना कितना मुश्किल लग रहा है। 

“हूँ,” चिहुँक कर उसने आँखें खोली, “तुमने कुछ कहा मनु?” आँखें बंद किए-किए वह जाने किन रास्तों पर निकल पड़ी थी। जी चाहा कि उससे पूछूँ कि इन अंधी यात्राओं से मैंने पहले भी कभी तुम्हें लौटा लाना चाहा था तब तुमने मेरी पुकार को क्यों अनसुना किया। मन हुआ कि उससे पिछले आठ सालों का हिसाब माँगूँ। पर मेरे मुँह से बस इतना ही निकला, “अँधेरा घिरने लगा है, अभी कुछ देर और रूकोगी?”

“नहीं, अँधेरे में लौट पाना मुश्किल होगा,” उसने कहा और आँचल समेटते हुए उठ खड़ी हुई। 

“मैं छोड़ दूँ?” साथ छूट जाने की कल्पना से डर कर मैंने पूछा, बिना यह जाने कि अभी तक उसने अपना पता-ठिकाना बताया ही कहाँ था। उसने एक पल सोचा, फिर सहमति में गर्दन हिलाती बोली, “चलो, यहाँ से थोड़ा ही दूर है।”

“तुम रोज़ यहाँ आती हो?” दो क़दमों के फ़ासले से चलते हुए मैंने पूछा। 

“हाँ, अक़्सर,” जवाब संक्षिप्त था। 

“मैंने सोचा भी न था कि यहाँ तुमसे मुलाक़ात होगी,” बात बढ़ाने की ग़रज़ से मैंने कहा, “मैं ऑफ़िस से घर लौट रहा था कि कार ख़राब हो गई। यहाँ पार्क के पास एक गैराज है। मैकेनिक ने बताया कि गाड़ी ठीक होने में दो घंटे लगेंगे। वक़्त काटने के लिए पार्क से अच्छी जगह और क्या हो सकती है?” कहते हुए मेरी आँखें अर्थपूर्ण हो उठीं। 

“क्या कर रहे हो आजकल?” एकाएक बात बदलने की ग़रज़ से उसने निरी औपचारिकता से पूछा। 

“तुम्हारा इंतज़ार,” अचानक मेरे मुँह से निकल गया। अपनी रफ़्तार में बढ़ते उसके क़दम ठिठके और निगाहें मेरे चेहरे पर आ टिकीं। उन आँखों में न कोई प्रश्र था और न कोई हैरानी। नज़रों की उस ताब से घबरा कर बात सँभालते हुए मैंने कहा, “मेरा मतलब है कई सालों से मैं अपनी नौकरी के सिलसिले में बाहर रहा। इस बीच तुम्हारी, सबकी याद भी आती रही। पिछले एक साल से इसी शहर में हूँ। एक मार्केटिंग कंपनी में सीनियर सैल्स मैनेजर,” एक साँस में अपनी बात ख़त्म करते हुए मैंने पूछा, “और तुम?”

“शादीशुदा हूँ,” अपनी जगह से हिले बिना उसने जवाब दिया। 

“अरे, उससे क्या फ़र्क़ पड़ता है, मर्द बच्चा हूँ, प्रेम में सब झेल जाऊँगा,” मैंने ठहाका लगाकर हँसने की कोशिश की। 

“अच्छा! आओ, तुम्हें भी मिलवाऊँ,” उसने कहा। वह एक चौराहा था, जहाँ हम खड़े थे। 

ठिठके क़दम पास की पुरानी इमारत की बढ़ गए। मैं चुपचाप उसके पीछे हो लिया। लम्बी और घुमावदार बारहादरियों से होते हुए अब हम रुक गए थे। टूटे दरवाज़े को एक ओर खिसका कर उसने भीतर जाने का रास्ता किया। हवा में फैली सीलन की गंध से घबरा कर मेरा रूमाल नाक पर आ गया था। उसका ख़्याल आते ही मेरे मुँह से सफ़ाई निकली, “नमी की महक से मुझे एलर्जी है।”

“अच्छा, कब से?”, मुझे लगा उसकी मुस्कान में कोई व्यंग्य छिपा हुआ है। मुझसे जवाब देते नहीं बना अलबत्ता मेरी नाक पर रखा रूमाल ख़ुद-ब-ख़ुद हट गया था। मीता को तो पता ही था कि सालों तक मेरी महत्वाकांक्षाएँ ऐसी ही एक अँधेरी और बदबूदार कोठरी में क़ैद थी। दूर के एक रिश्तेदार से विरासत में मिली दौलत ने मुझे इस क़ैद से नजात दिलवाते हुए मुझे रातों-रात लखपति बना दिया। पैसे के बल पर मेरी महत्वाकांक्षाएँ उड़ान भरने लगी। मीता के पिता भी शहर के रईसों में गिने जाते थे। मीता से बात करके हमेशा मुझे अच्छा लगता था। 

“विभु, देखो तुमसे मिलने कौन आया है?” मीता ने पुकारा और जवाब में खाँसी की एक तेज़ लहर कमरे में गूँज उठी। 

“आओ,” उसने कहा और मैं यंत्रवत सा उसके पीछे चलने लगा। ईंटों के सहारे टिके पलंग पर लेटा वह शख़्स बुरी तरह खाँस रहा था। तिपाई पर पड़े जग से मीता ने एक गिलास में पानी ढाला और उसके होठों से छुआ दिया। अपना काम ख़त्म करने के बाद वह मेरी ओर मुड़ी, “तुम्हें भी तो प्यास लग आई होगी मनु?”

“मनु,” मेरा नाम सुनकर करवट बदलता वह शख़्स अब एकदम मेरे सामने हो गया था, “यह तुम हो मनीष?”

चेहरा हालाँकि दाढ़ी-मूछों में घिर गया था लेकिन इस आवाज़ को मैं लाखों की भीड़ में भी पहचान सकता था। यह विभांशु था, कॉलेज का हमारा सहपाठी और मंच पर अपनी बुलंद आवाज़ से छा जाने वाला एक ज़बरदस्त कवि। मीता अक़्सर उसकी कविताओं की तारीफ़ें करती थी और मैं चिढ़ता रहा था तो उसकी फ़क़ीरी से। 

“अच्छा हुआ तुम आ गए यार!” कहते हुए उसने अपना हाथ आगे बढ़ा दिया। उसका सुता हुआ चेहरा देखकर मेरी हिम्मत उसका हाथ थामने की नहीं हुई। 

“अस्थमा छूत से नहीं फैलता!” मेरी ओर अपलक झाँकते हुए मीता ने सर्द लहजे में कहा। अपनी हड़बड़ाहट को छुपाने के प्रयास में मैंने एक बनावटी ठहाका लगाया और विभांशु का हाथ कस कर थाम लिया। 

“मीता की बात पर मत जाना,” मुस्कुराने की भरसक कोशिश करते हुए विभांशु ने कहा, “वैसे भी एक बिगड़ा अस्थमा ही तो मुझे है नहीं, साथ में कई छोटी-मोटी बीमारियाँ भी बोनस में मिली हुई है।”

“तुम बिलकुल ठीक हो जाओगे विभांशु!” सांत्वना के अंदाज़ में मैंने उसका हाथ थपथपाया। 

“वह तो होना ही है,” उसने कहा जैसे उसे किसी सांत्वना की आवश्यकता ही नहीं थी। “डेढ़ साल से ही तो तो बिस्तर पर हूँ वरना तो अपना इंक़िलाब बुलंद ही था। मीता ही अब अपनी झंडाबरदार है।”

“खाट पकड़ कर बैठे हो पर कविताई गई नहीं तुम्हारी!” मीता ने एक मीठी झिड़की दी और रसोई की ओर बढ़ गई। 

“कहो कहाँ रहे इतने साल?” विभांशु पूरी तसल्ली के साथ मुझसे मुख़ाबित हो गया। मैंने अपनी व्यस्तता से लेकर मीता से मुलाक़ात तक के सारे क़िस्से को चंद पंक्तियों में समेटने की कोशिश की। विभांशु जैसे मेरी बात ख़त्म होने के इंतज़ार में था, “शादी बनाई?”

मेरा सिर इंकार में हिल गया और निगाहें रसोई की ओर। मीता का दिखना अब पूरी तरह बंद हो गया था। 

“हाँ, मीता जैसी लड़की हो तभी शादी का कोई मतलब है?” एकाएक कही गई उस बात ने मेरी चोर निगाहों को लौटने पर मजबूर कर दिया था। ऐसा क्या था उस फक्कड़ विभांशु में जिसके लिए मीता ने अपनी अमीरी और मेरे जज़्बात को ठुकरा दिया। 

“मैंने उसे अपने से जुड़ी हर बात बताई थी,” विभांशु जैसे मेरा मन पढ़ रहा था। “मीता से मैंने कहा था कि चंद कविताओं के अलावा मेरा कोई नहीं। माँ अपना अस्थमा मुझे सौंप कर मर चुकी थी। पिता ने अपना दूसरा परिवार बसाने की ख़ुशी में अपने से दूर डेढ़ कमरों का यह घर तोहफ़े में दिया था। कॉलेज की पढ़ाई और पेट की लड़ाई लड़ने के लिए मैं एक अख़बार में बतौर प्रूफ़ रीडर काम कर रहा था,” कहते-कहते उसने एक गहरी साँस ली। 

“पर मीता तो सब जान कर भी अनजान बनी रही, नतीजा तुम्हारे सामने है। अब डेढ़ सालों से बेकार पड़ा हूँ, शरीर जैसे गल गया है, मीता ने ही घर और बाहर सँभाल रखा है,” कहते हुए उसकी आँखें मुँदने लगी। मैं घबरा कर उठ खड़ा हुआ। 

“सुनो,” एकाएक उसकी पलकें ऊपर उठीं, “मेरे बाद मीता का ख़्याल रख सकोगे। जानता हूँ तुम उससे प्यार करते हो।” किसी अदृश्य ताक़त ने मेरी गर्दन सहमति में हिलाई। 

चाय के दौरान विभांशु ठहाके लगाता रहा और उसके इसरार पर मीता ने उसकी कई कवितायें सुनाईं। लौटते समय मीता मुझे छोड़ने दरवाज़े तक आई। “कितना ख़ुश था न विभु?” उसने चहकते हुए कहा, “किसी रोज़ उसकी कविताएँ ख़ुद उसके मुँह से सुनना, बहुत अच्छा लगेगा।” मैंने सहमति में सिर हिलाया और लौट पड़ा। चौराहे पर मोड़ काटते ही पता नहीं क्यों मैं अँधाधुँध भाग खड़ा हुआ। किसी के आख़िरी शब्द मेरा पीछा कर रहे थे, “फिर आना!”

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