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राधेश्याम : नाटक/फ़िल्म के अभिनय-सूत्र

राधेश्याम कथावाचक की रचनाओं और लोक साहित्य के विशेषज्ञ हरिशंकर शर्मा द्वारा संपादित पुरस्तक ‘रंग राधेश्याम नाटक फिल्म के अभिनय सूत्र किताब उनके तीन अप्रकाशित नाटक ‘उ‌द्धार’, ‘आजादी’ और ‘धन्ना भगत’ पर केंद्रित है। इन नाटकों में किसान, मजदूर, सूदखोर सेठ, ग्रामीण परिवेश, शहरी जीवन, धर्म-समाज और स्त्री की स्थिति पर रोशनी डालते हुए एक सभ्य समाज बनाने की बात कहीं गई है। इन नाटकों की पृष्ठभूमि, किरदार और संवाद बताते हैं कि उनका लेखन मूल्य, संस्कार और जिम्मेदारी के इर्द-गिर्द है। वह पौराणिकता से आधुनिकता की यात्रा करते हैं। आजादी के बाद की स्थितियों को अपने नाटकों का विषय बनाते हैं और उनके सिनेमाई सफ़र को भी प्रस्तुत करने वाली एक बहुत ही मूल्यवान पुस्तक है जो कि वेरा प्रकाशन जयपुर से प्रकाशित हुई है। यह पुस्तक न केवल राधेश्याम कथावाचक की रचनात्मक प्रतिभा और उनके साहित्यिक योगदान को सामने लाती है, बल्कि पारसी रंगमंच और हिन्दी रंगमंच के मध्य संबंधों व फ़िल्मी सफर की गहन पड़ताल भी करती है।

यह कृति में दो खण्ड विभाजन है, प्रथम खण्ड विमर्श-खण्ड है जिसमे हरिशंकर शर्मा के आलोचनात्मक आलेख उनके अप्रकाशित नाटकों और फ़िल्मों की पटकथा का गहन समीक्षा प्रस्तुत करते हैं, जो उनकी रचनाओं के सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व को स्पष्ट करते हैं तो दूसरा खण्ड रचना-खण्ड हैं जिसमें उनकी तीनों अप्रकाशित रचना को मूल पांडुलिपि के कुछ अंश के साथ साक्ष्य सहित संकलित किया गया हैं। इस प्रकार संपादक हरिशंकर शर्मा विभिन्न दृष्टिकोणों से राधेश्याम कथावाचक के साहित्य, जीवन और उनके रंगकर्म की व्याख्या करते हैं। पुस्तक प्रारंभ में हरिशंकर शर्मा की संपादकीय टिप्पणी संक्षिप्त होते हुए भी अत्यंत सारगर्भित है, बल्कि पाठक को यह भी बताते हैं कि इस पुस्तक को पढ़ते हुए किन सूत्रों के आधार पर राधेश्याम कथावाचक की साहित्यिक और नाट्य चेतना के साथ उनके फ़िल्मी सफ़र में उनके योगदान को समझा जा सकता है। संपादक की यह भूमिका पुस्तक को एक वैचारिक एकता प्रदान करती है। हरिशंकर शर्मा कहते है कि वे अपने युग के निर्विवाद नायक हैं। उन्होंने साहित्य, नाटक, सिनेमा, डायरी, गीत-गजल, भजन, पत्रकारिता, कथावाचन आदि विधाओं के विकास में उनका अप्रतिम योगदान रहा है। उनकी कीर्ति आज भी जिन्दा है क्योंकि लोकजीवन से जुड़ा व्यक्ति कभी नहीं मरता है। वे कथावाचक ही नहीं समाज सुधारक और लोकनायक की भूमिका में भी रहे। रामायण-कृष्णायन उनके महाकाव्य हैं। ‘मशरिकी हूर’, ‘परिवर्तन’ आदि नाटकों का सृजन उन्होंने नये प्लार्टी (विषय) पर किया है। नये विषयों की समझ और प्रस्तुत करने का कौशल भी उनमें था। अतः उन्होंने फ़िल्मी दुनिया में भी सनातन का डंका बजाया है। पौराणिक आख्यानों पर लिखे नाटक और फ़िल्में भी अपने समय का दर्पण हैं। कथावाचकजी के बम्बई प्रवास में लिखित तीन नाटक जिनमें पारसी-रंगमंच शैली और आधुनिक सिनेमा का संगम है। यह आधुनिक रंगमंच का प्लेटफार्म भी तैयार करते हैं। ‘उद्धार’ (जनवरी सम्वत् 2000) ‘आजादी (20 अक्टूबर, 1951 ई.) तथा ‘धन्ना भगत’ (2 नवम्बर, 1951 ई.) लिखे गये अप्रकाशित नाटक हैं। रंगमंच के मर्मज कथावाचकजी के इन नाटकों में कथावस्तु संवाद, गाना, संगीत निर्देशन आदि में आधुनिक रंगमंच की मार्ग प्रशस्त करते हैं। उन्होंने इन नाटकों में परम्परागत नाटकों की मान्यताओं को ध्वस्त भी किया है और कुछ नया जोड़ा भी है। यहाँ रंगमंच का शास्त्रीय पक्ष भी है लोकपक्ष और आधुनिकता की गूंज भी।

बहुत कम लोग जानते हैं कि राधेश्याम कथावाचक कुछ समय के लिए फ़िल्म जगत से भी जुड़े थे और विभिन्न क्षमताओं में उन्होंने हिंदी सिनेमा में अपना योगदान दिया था। सन् 1931 में भारतीय पहली बोलती फ़िल्म ‘आलमआरा’ थी जिसके निर्देशक अर्देशिर ईरानी (इम्पीरियल फिल्म कम्पनी) थे। कथावाचकजी की मूल कथा श्रीसत्यनारायण पर केन्द्रित फिल्म पौराणिक) सन् 1935 में बनी। मॉर्डन पिक्चर्स बम्बई के बैनर तले बनी इस फ़िल्म के पटकथा गीत और संवाद पं. राधेश्याम कथावाचकजी थे। यह दूसरी सवाक फ़िल्म है लेकिन फ़िल्म के ब्रोशर में कथावाचकजी का नाम प्रकाशित न होना फ़िल्म जगत की’ धूर्तता’ का परिचायक है। उनके इस लगभग अज्ञात पक्ष को उजागर करती है हरिशंकर शर्मा की पुस्तक ‘पं. राधेश्याम कथावाचकः फ़िल्मी सफर’ में हैं।

लेखक के अनुसार कथावाचक जी के फ़िल्मी दुनिया में प्रवेश का उ‌द्देश्य सनातन धर्म की पताका फहराना था। क्योंकि कथावाचकजी अपने समय के फिल्मी जगत की बिगड़ी सूरत बदलना चाहते थे। जब उन्होंने फिल्मी दुनिया में अपना कदम रखा उन्हें विशेष संघर्ष नहीं करना पड़ा, लेकिन सनातन धर्म की आस्था इस मार्ग में बाधक थी। इसीलिए वह फ़िल्मों के माध्यम से समाज सुधार करना चाहते थे। वे फ़िल्मी दुनिया में नायक-नायिकाओं के मिलन, शराब और कवाब जैसे खानपान को कैसे स्वीकार करते? इसलिए उनका फिल्मी सृजन वेश्यावृति, जाति प्रथा और ऊँच-नीच के विरोध में था। वह देश प्रेम की भावनाओं को सुदृढ करना चाहते थे और स्त्री शिक्षा तथा हिंदी भाषा का प्रसार करना चाहते थे। संक्षेप में कहा जा सकता है कि फिल्मों के माध्यम से वे श्रेष्ठ जीवन मूल्यों को समाज में प्रतिष्ठित करना चाहते थे। लेकिन लम्बे समय तक उन्होंने अपना जीवन संत सेवा या धर्म प्रचार में बिताया, उनका फिल्मी जगत का कालखण्ड बहुत कम था। यदि उन्होंने नाटकों के समान ही फ़िल्मी दुनिया की ओर अपनी ऊर्जा का उपयोग किया होता, तो उस समय की फ़िल्मी दुनिया के मील का पत्थर होते। उन्होंने धार्मिक पौराणिक और ऐतिहासिक फिल्मों में जो काम करके छोड़ दिया, उसी लकीर पर ही आज के टी.वी. सीरियल, फिल्में बन रही हैं। इस प्रतिभा को नमन करते हैं।

पं. राधेश्याम कथावाचक ने 1931 में आई ‘शकुन्तला’ फ़िल्म के गीत और संवाद लिखे थे तथा इस फ़िल्म के अधिकांश दृश्यों को निर्देशित भी किया था। उन्होंनें 1935 में आई ‘श्रीसत्यनारायण’ फ़िल्म की पटकथा और गीत लिखे थे। ‘उषा हरण’ फ़िल्म उनके द्वारा लिखित कथा पर 1940 में बनी थी। सोहराब मोदी की फ़िल्म ‘झाँसी की रानी’ (1953) के लिए पंडित जी ने आठ गीत लिखे थे। फ़िल्म ‘कृष्ण सुदामा’ (1957) के लिए भी गीत लिखे थे। वर्ष 1960 में बेहद सफल रही फ़िल्म ‘श्रवण कुमार’ पंडित जी द्वारा लिखित कथा पर ही आधारित थी। इन फ़िल्मों में पंडित जी का नाम या तो ‘राधेश्याम बरेलवी’ दिया जाता था या फिर ‘पं. राधेश्याम’। अर्थात् शकुन्तला’, ‘श्रीसत्यनारायण’ तथा ‘झाँसी को रानी लक्ष्मी बाई’ तथा ‘रामायण’ की सफलता से फ़िल्मी जगत की तमाम हस्तियों में उनकी पहचान बनीं। लेकिन मेरा नाटककाल में कथावाचकजी ने विस्तार से लिखा भी है। लिखने का सिलसिला जारी रहा और इसके साथ-साथ कथावाचकजी ने कई फ़िल्मी पटकथाएं, संवाद तथा गीत लिखे हैं जो पर्दे तक पहुँचे या नहीं, उसकी जानकारी उन्हें भी नहीं है। अतः कथावाचकजी ने समय की रग को पकड़ा और रंगमंच के कथानक को फिल्मों में डालने का प्रयत्न करने लगे। उनकी फ़िल्मी पटकथाओं में एक मुकम्मल कहानी है। श्रवण कुमार की पटकथा इसका प्रमाण है। उन्होंने साहित्य और सिनेमा के बीच मज़बूत रिश्ता कायम किया।

हरिशंकर शर्मा कथावाचक जी द्वारा लिखीं वे पटकथाएँ भी प्राप्त करने में सफल रहे हैं जिन पर फ़िल्में नहीं बन पाई। इनमें ‘धन्ना भगत’, ‘उद्घार’, ‘आजादी’ तथा ‘श्रीकृष्णावतार’ के नाम उल्लेखनीय हैं। जिसकी पटकथाएं और संवाद वैकल्पिक सामाजिक स्थिति से हटकर जीवन की हकीक़त पर केन्द्रित हैं और वे फ़िल्मों में रिहर्सल से लेकर गीत, संवाद और तमाम स्थितियों तक अपनी सक्रिय हिस्सेदारी के कारण धीरे-धीरे इस क्षेत्र में वे परिष्कार और संशोधन की संभावनाओं को गंभीरता से टटोलते थे। यह पटकथाएं नाटकीय तर्ज पर लिखी गई थी जोकि उस समय यह चलन था। इसी कारण चाहे इनको नाटक मानो या फ़िल्मी पटकथाएं। शर्मा जी कहते हैं कि कितना ही सुन्दर होता, यदि ये पटकथाएँ उस समय समाज के सामने आ जातीं, तो वे फ़िल्मों में फैली हुई गंदगी को मिटाने में सफल होती। इन पटकथाओं में पं. राधेश्याम द्वारा लिखित उत्कृष्ट गीत व संवादों के अतिरिक्त हर दृश्य के चित्रांकन के लिए निर्देश भी हैं। इनके अलावा वह गीत भी इसमें है जिसका फ़िल्म में प्रयोग नहीं किया गया, लेकिन वह बहुत महत्त्वपूर्ण था। तथा वे पटकथा के संवाद में सीधी और सरल भाषा पर ज़ोर देते थे जो सादगी और पवित्रता उनकी पटकथा के मुख्य सूत्र हैं।

शर्मा जी कहते है कि मैंने अपनी कृतियों में पं. राधेश्याम कथावाचकजी के लेखन की बारीकियों को समझने के लिये उनके फुट नोट्स को सावधानी पूर्वक पढ़ा है। इसे पढ़कर उनके लेखन की आत्मा तक आसानी से पहुँचा जा सकेगा। कथावाचकजी की डायरियां, फ़िल्मी सफ़र, परिवर्तन नाटक, श्रवण कुमार नाटक से फ़िल्म तक आदि में अभिनय के संकेत हैं। यह संकेत पारसी रंगमंच का प्राण हैं। जैसे कथावाचकजी ने ‘सत्यदर्शन’ पटकथा के फुट नोट्स बाई ओर पृष्ठ पर लिखे हैं:-

क्र. 1 ‘कथामण्डल मन्दिर स्तुति भीड़ लोगों की दीवार पर चित्र। (फ्लैशवेक)
क्र. 2 ‘कैलाश पर्वत शंकर-पार्वती संवाद, पार्वती की शंका (डिजाल्व/कट)
क्र. 3 ‘कथामण्डप मन्दिर’ शंकर द्वारा हृदय की इच्छा प्रकट करते हैं और मनु की कथा आदि।

हरिशंकर शर्मा को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने पंडित जी के उस सृजन को भी प्रकाशित कर दिया है जो हस्तलिखित ही रह गया था। वे पं. राधेश्याम कथावाचक पर अब तक इतनी पुस्तकें लिख चुके हैं कि भविष्य में कथावाचक जी पर शोध करने वालों को शर्मा जी की इन पुस्तकों से अनिवार्य रूप से गुज़रना होगा। यह सूची विशेष रूप से उन शोधार्थीयों के लिए अत्यंत उपयोगी है जो हिन्दी रंगमंच, पारसी थियेटर या लोकनाट्य परंपरा और सिनेमा पर काम कर रहे हैं। अंततः हरिशंकर शर्मा का संपादकीय कौशल और शोधपरक दृष्टि इस कृति को अत्यंत प्रामाणिक बनाता हैं। शोधार्थियों, साहित्य प्रेमियों, रंगमंच और सिनेमा के अध्येताओं के लिए यह पुस्तक एक अनिवार्य संदर्भ ग्रंथ है।

आरती
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्ववि‌द्यालय

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