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रंजक अंदाज़ में प्रबंधन का व्यावहारिक कौशल: यस बॉस 

समीक्षित पुस्तक: यस बॉस 
लेखक: सोमा वीरप्पन 
प्रकाशन: प्रभात प्रकाशन, दिल्ली 
प्रकाशन वर्ष: 2025
मूल्य: ₹350/-

समय बदलता है। सोच बदलती है। तकनीक बदलती है। तंत्र बदल जाते हैं। मूल्यमान बदल जाते हैं। फिर भी न अतीत से वास्ता पूरी तरह ख़त्म होता है; न विचार और न जीवन-मूल्य हवा हो पाते हैं। न तंत्र व्यवस्था के सारे सूत्र ही बेमानी हो जाते हैं। बल्कि समय के बदलाव को सम्मान देते हुए हमेशा नये बने रहते हैं। पर इस निरंतरता में कालजयी कृतियों का सोच सार्थक बना रहता है, जिनमें वर्तमान के लिए संदेश हो और भविष्य के लिए एक उजली राह। 

सोमा वीरप्पन की कृति ‘यस बॉस’ संत तिरुवल्लुवर के प्रसिद्ध तमिल ग्रंथ ‘तिरुकुरल’ से भी मिलती है। आज के बदलते परिवेश को चित्रित करती है। पर भविष्य के लिए एक सार्थक नज़रिया भी देती है। शीर्षक से लगता है कि व्यंग्य का सा स्वाद है। लेखक के पास कूट्ज, ऑडोनल, रतन टाटा और स्टार्ट अप के युवाओं के साहसिक उदाहरण हैं। स्विग्गी, फ़्लिपकार्ट, अमेज़ोन, निरमा के उदाहरण हैं। भारतीय फ़िल्मों के दृश्यों और संगीत से बात कहने का दिलचस्प अंदाज़ है। मुहावरों की रंजक अभिव्यक्ति है। बैंकिंग, निवेश और अर्थशास्त्र का ज्ञान है। तकनीक की अनिवार्यता और ग्राहकों की चाहत का मनोविज्ञान है। उद्योगों के डूबने और जुनूनभरी तरक़्क़ी के उदाहरण हैं। उदारता में पिटते जाने के ख़तरों का चौकस ज्ञान है। इसीलिए वह वर्तमान स्थिति और लक्ष्य के अंतर की पहचान पर ज़ोर देता है। 

इस सारे बदलते समय, शासन प्रणाली, नये औद्योगिक परिवेश और वैश्विक स्तर बाज़ार युद्ध के बीच वह प्राचीन तमिल संत तिरुवल्लुवर के प्रसिद्ध ग्रंथ तिरुक्कुरल तक जाता है। राजा का एकल राजतंत्र तो चला गया है। तो क्या उपयोगिता है कुरल के संदेश की? पर कुरल कालजयी रचना है। आज भी हर क्षेत्र के प्रशासन तंत्र पर लागू होती है। पर आज की व्यवस्था में प्रशासन या प्रबंधन के बॉस में कमोबेश उसके अवशेष मौजूद हैं? क्या तकनीक और लोकतंत्र के समय में वे 'कुरल' कोई सामयिक अर्थवत्ता रखते हैं? क्या ‘राजा’ और बॉस की भूमिकाएँ सर्वथा अलग हैं या आज भी राजतंत्र के अवशेष प्रशासन में भी समाये हुए हैं, जिनका ध्यान रखना ज़रूरी है। क्या आधुनिक प्रबन्धन में उनका संदेश व्यावहारिक है? क्या बदलती अर्थ व्यवस्था में उनका संदेश सार्थक है? बदलती तकनीक के युग में क्या भावनात्मक स्पर्श की ज़रूरत है। इस समय ‘टेकनीक’ और ‘टच’ का गठबंधन कितना सकारक हो संकता है? बहुत सारे पहलू हैं, जो इस पुस्तक को में केवल पठनीय बनाते हैं बल्कि समय के साथ सजग अनुकूलन का नज़रिया भी देते हैं। 

पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता है कि लेखक तिरुकुरल से आज तक नहीं आता। न कुरल के संदेश को पहले लाता है। बल्कि आज के प्रबन्धन तंत्र, तकनीक, अर्थशास्त्र, लोकजीवन, कार्यालयीन कामकाज से जुड़े प्रसंगों को पहले लाता है। आज के प्रशासनिक तंत्र में ग्राहक को केन्द्रीय मानता है। उसके मनोविज्ञान और उपेक्षाओं में गहराते अवसाद को समझता है। वह अफ़सर की मनोवृत्तियों के सभी अच्छे-बुरे पक्षों के साथ जन-सुविधाओं को लक्ष्य बनाता है। दफ़्तर के षड्यंत्रों और कर्मचारियों के बीच अपने अहमकपन या सौहार्द के मनोविज्ञान को समझता है। वह प्रबंधन के वैश्विक गुरुओं की धारणाओं को शीर्ष बनाता है। तब जाकर नये प्रबंधन तंत्र की समस्याओं को उकेरते हुए ‘कुरल’ की उन कालजयी पंक्तियों को मान देता है, जो नयी व्याख्या के साथ प्रबंधन को व्यावहारिक, भावपरक और उत्पादक या परिणामदायी बना सकती हैं। 

सोमा वीरप्पन कोई उपदेश देते प्रतीत नहीं होते। न कुरल को आधुनिक प्रबंधन तंत्र के नियम या कंडिका-ग्रंथ के रूप में लाते हैं। वे तो प्रशासकीय तंत्र में बॉस, सहभागी कर्मचारियों और लाभार्थी ग्राहक के मनोविज्ञान में वह राह पकड़ते हैं, जो जितनी बॉस के लिए उपयोगी है, उतनी ही सहयोगी कर्मचारियों के लिए और अंततः संस्था और लाभार्थी ग्राहकों के लिए। कुरल कोई प्रबंधन-विधान का ग्रंथ नहीं है, बल्कि उन भावनात्मक और जीवन प्रबन्धन का व्यवहारिक नीति ग्रंथ है। यह लोकतंत्र की प्रशासनिक व्यवस्था में उपयोगी है। यह पुस्तक कुरल को बहुमान तो देती ही है, पर व्यावहारिक रूप से आज की प्रशासनिक व्यवस्था में उसकी प्रासंगिकता के सहभाव का औचित्य बताती है। बल्कि फेमिली डॉक्टर की तरह हर क्षेत्र में फेमिली रिश्तों की विश्वसनीयता को तरक़्क़ी का आधार मानते हैं

मुझे हार्दिक प्रसन्नता है कि सोमा वीरप्पन जी ने इस चिंतन को कई एंगल दिए हैं। संस्कृति, साहित्य, लोक संहिता, बदलती तकनीक, समाज और व्यक्ति मनोविज्ञान में प्रबंधन तंत्र, उत्पादकता और तकनीक के बदलाव जैसे परिदृश्य तो उदाहरणों से आसान समझ पैदा करते हैं। मसलन नये उत्पाद के लिए स्थानीय भूगोल, संस्कृति, रीति रिवाज़ों की पहचान ज़रूरी है, वरना अच्छा उत्पाद भी फैल हो जाएगा। तकनीक और निरंतर बदलाव की समझ के बग़ैर उद्योग बंद हो जाएँगे घाटे में बदलती व्यवस्था में नये प्राण फूँकने की दृष्टि, बॉस और मातहत के संबंधों में मेल-मिलाप के तौर-तरीक़ों आदि पर वास्तविक परिदृश्यों को लेखक ने चित्रित किया है। लेकिन इन वास्तविकताओं में सामंजस्य की राह भी दिखाई है। वे रतन टाटा, इंदिरा नुई जैसी प्रबंधन की आधुनिक हस्तियों के प्रेरक मंत्रों और उनके तकनीकी कौशल को भी पूरी शिद्दत के साथ बहुमान देते हैं। प्र बॉस के साथ चहलक़दमी करते लोगों को सीख भी देते हैं, न अधिक दूरी, न अधिक निकटता। इस मायने में वे ख़तरों से भी आगाह करते हैं और अफ़सरों की ग़ुलामी से भी। 

पुस्तक पढ़ते हुए कथा का सा कौतूहल बना रहता है और समाधान की राह तक आते-आते आते कुरल की पंक्तियाँ उसे पुष्ट कर देती हैं। कुरल के उदाहरण बेहद दिलचस्प हैं। लीजिए, महर्षि तिरुवल्लुवर कहते हैं कि ‘दिन में ताक़तवर उल्लू कौए से भी हार जाता है’। ऐसे पशु-पक्षियों के उदाहरण जब प्रबंधन और उद्योग क्षेत्र में विचारित होते हैं तो सतर्कता सफलता दे जाती है। तकनीक के क़िले इस सजगता के बिना ध्वस्त हो जाते हैं। कुरल के अनुवाद में भी बोली की सहजता और जीवन की लय है। इस पुस्तक का अनुवाद बहुत सहज सरल भाषा में रोहित शर्मा ने किया है, इसलिए पाठक-गण उनका भी आभार मानेंगे ही। भारतीय भाषाओं में इसका अनुवाद हर दृष्टि से उपयोगी होगा। हिन्दी प्रदेश का पाठक तो इन परिदृश्यों और व्यावहारिक सोच का चितेरा बनेगा ही। 

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