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रेड वाइन ज़िन्दगी उर्फ़ ज़ोरबा ज़िन्दगी

समीक्षित पुस्तक: रेड वाइन ज़िन्दगी (उपन्यास)
लेखक: निर्मल जसवाल
प्रकाशक: सतलुज प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा) 
दूरभाष: +91 94172 67004
पृष्ठ: 136
मूल्य: ₹300/-

एक बेहद चर्चित उपन्यास ‘ज़ोरबा द ग्रीक’ के लेखक निकोस कज़ानज़ाकिस ने अपने बारे में बताते हुए उपन्यास की भूमिका में लिखा है:

“मेरे पूरे जीवन का निचोड़ मेरी यात्रायें और मेरे द्वारा देखे गये सपने हैं। ऐसे लोग बेहद कम हैं, जिन्होंने जीवन में मेरे संघर्ष में मदद की हो, मेरे संघर्षों ने ही मेरा रास्ता प्रशस्त किया है।”

‘रेड वाइन ज़िन्दगी उपन्यास भी तरह-तरह की यात्राओं और स्त्रियों के देखे गये स्वप्नों के बारे में है जिसकी मुख्य नायिका ऐसे बदलाव की ज़मीन तैयार करती नज़र आती है जिसमें एक ओर तो बद्ध और ठस्स मान्यताओं के स्वीकार के कुपरिणाम स्वरूप कैसे जीते जी दोज़ख की आग में जलना पड़ता है तो दूसरी ओर जब वह अपने आप की ओर मुड़ती है, अपने नियंत्रण में होती है तो जान जाती है दूसरों की बद्धताओं से मुक्त होना ही बुद्ध होना है। जीवन्तता से जीवन जीने की कला ‘रेड वाइन ज़िन्दगी’ सिखाती है और कई यात्राओं का गवाह बनती कई ज़िंदगियों की मार्मिक कहानी बन जाती है। 

इस उपन्यास का एक बड़ा वैशिष्ट्य इसकी अद्भुत पठनीयता है जो प्रयोगधर्मी होने के बावजूद अक्षुण्ण है। उपन्यास में कश्मीर ही नहीं अपितु पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़, भोपाल आदि की संवेदनशील परिस्थितियाँ एवं वैंकूवर, जैस्पर, एडमिंटन आदि विदेशों की मानवीय संबंधों की हक़ीक़त, आपसी समझ और पूँजीवादी रिश्तों पर इसमें विस्तार से विमर्श किया गया है। पूरे उपन्यास में जो एक अर्न्तधारा अनुस्यूत है, वह है—प्रेम की। प्रेम की पीड़ा में डूबते-उतरते कथा-चरित्र इसके बाह्य और आंतरिक विलासों से संघर्ष करते, चोटिल-समुन्नत होते अपने जीवन का निर्णय अपने हाथों लेते हैं। यहाँ चाहे कश्मीरी मुस्लिम हो या हिन्दू, रोज़मर्रा के जीवन में आने वाले सदमों, हिंसा की वारदातों, रक्तपान, अनिश्चितता के भय और अवसाद-मानसिक धरातल पर दोनों के सुख-दुख समान संवेदना के साथ साझे हुए हैं। यह उपन्यास नयी युवा होती पीढ़ी की मानसिकता का नया पाठ भी हमारे सामने रखता है। उपन्यास को बारह भागों में विभक्त किया गया है जिनमें अलग-अलग तेवर में समकालीन प्रेम की स्थिति, स्वभाव, त्याग, समझौते, तिजारत, कशिश, कशमकश और फिर निरंतर अकेले पड़ते जाने की विडंबना पर गहराई से क़लम चलायी गयी है। 

उपन्यास की शुरूआत (नगीना) नायिका के पास अज्ञात डाक के ग़लत पते पर पहुँचने से होती है जिसमें एक अजनबी (बात में ज्ञात नाम—महेश्वरम) ने कश्मीर पर आर्टिकल लिखे हैं और उनमें कश्मीर में चल रह धाराओं 370 एवं 34Aके अधिकारों के बारे में बात करते हुए भारत की एकता और अखंडता के प्रति चिंता जतायी गयी है। उन्हें प्राप्त विशेषाधिकारों के बारे में यहाँ स्पष्ट लिखा है कि ‘भारत के अंदर मानो एक और भारत मौजूद है, जिसका अपना अलग संविधान है, नागरिकता है और अपना राष्ट्रीय झंडा है। ऐसी स्थिति में भारत की एकता और अखंडता के लिये यह बहुत बड़ा ख़तरा है।” (पृष्ठ संख्या-22) इस प्रकार की वैश्विक चिंतायें इस उपन्यास के सरोकारों को विराट फलक से जोड़ती हैं। 

पूरे उपन्यास में स्त्री और पुरुष—प्रेम के दोहरे आचरण हैं। जहाँ एक ओर लीना एवं इंद्र का प्रेम है तो दूसरी ओर नगीना की ज़िन्दगी में प्रेम टिकता ही नहीं है। अब–चुभ, उधेड़बुन, समय और परिस्थितियों के अतिरिक्त नगीना के ‘ज़ोरबा मन’ का भी इसमें पर्याप्त हाथ है लेकिन इसी बहाने प्रेम के चमकीले आवरण तले शोषण के काले अँधेरे ख़ूब दिख जाते हैं। लीना के माता-पिता उसका रिश्ता ऐसे सनकी व्यक्ति से कर देते हैं जो उन्हें पैसे देता है और दैहिक शोषण के बाद इस्तेमाल की हुई स्त्री को उसक हाल पर छोड़ दुबारा ख़रीद-फ़रोख़्त के लिए निकल पड़ना उसका दुर्व्यवसन है। इस प्रसंग के साथ ही उत्तर आधुनिक काल में स्त्रियों की उस दुर्दशा की मार्मिक व्यंजना है जो आज बिहार, उतर प्रदेश से ख़रीदी जाकर राजस्थान और हरियाणा में खपायी जाती है और फिर राष्ट्रीय या अर्न्तराष्ट्रीय मंडियों में जानवरों की तरह ख़रीदी बेची जाती है। यहाँ नगीना स्वयं भी अनुज के साथ प्रेम-पाश में बँध जाती है जो उसे बिन ब्याही माँ बनाकर विदेश चला जाता है। ऐसे में एक गर्भिणी स्त्री की मानसिक, शारीरिक के साथ सामाजिक स्थिति का भी भयानक चित्रण हुआ है। वह किस तरह अपने बच्चे का ख़्याल रखेगी, समाज के तानों से कैसे बचेगी/बचायेगी, पिता के नाम की महत्ता वाले इस पितृ सत्ता . . . समाज में कैसे उसका और अपना निर्वाह करेगी, व्यय का भार कैसे वहन करेगी—सरीखे तीखे सवालों के अन्तर्द्वंद्व से घिरी अपने अन्तर्मन में उस अजन्में भू्रण के प्रति ममत्व से भर जाती है—‘हम दोनों का अंश, सिर्फ़ मेरी ओर, सिर्फ़ मेरी ओर’ लालसा से निहार ही नहीं रहा है, विश्वास करता है कि केवल मैं ही उसके ममत्व का पूरक हूँ। यह कौन सी प्रेरणा मेरी अंगुली पकड़ कर मुझे चलना सिखा रही है? कौन मेरे अंदर तोतली भाषा का संदेश दे रहा है?” अंदर की इन जीवित पुकारों के बावजूद समाज के अट्टहासों से पराजित हो नगीना अपने भ्रूण को खो तो देती है लेकिन उसके अँधेरों में आजीवन अजन्मे बच्चे की अंधी चीखों से सिहरती रहती है। अपने-आप को खपा डालने की नीयत से वह एम.एससी. और आई.ए.एस. की तैयारी में जुट जाती है और चंडीगढ़ आ जाती है। यहाँ उसकी मुलाक़ात एक अन्य स्त्री दिलरूप से होती है। प्रेम और पुरुष से सदा बच कर रहने की सलाह देने वाली दिलरूप की कहानी सुन उसके रोंगटे सिहर जाते हैं। विशाल से अटूट प्रेम करने वाली दिलरूप, विशाल के दोस्तों द्वारा गैंगरेप का शिकार होती है और अब उसका जीवन मानों काले धब्बों का इतिहास बन कर रह गया है। लेखिका ने पंत की प्रसिद्ध पंक्तियों का सहारा लेकर यहाँ मार्मिक और गहरा सवाल उठाया है कि, “क्या मात्र योनि रह गई स्त्री?” अमृता प्रीमत के हवाले से वे कहती हैं, “युग तो तभी आधुनिक और सभ्य माना जायेगा जब स्त्री की इच्छा के बिना कोई उसे हाथ भी न लगा पाये।”

नगीना की मुलाक़ात समीर से होती है। प्रेम का सागर दोनों ओर लहराता है लेकिन शॉपिंग स्टोर पर जब वह अचानक पूर्व पत्नी को अपने बच्चे के साथ पाता है तो पुनः पुराने भावनाओं के भँवर में डूबता-तिरता उस ओर मुड़ जाता है—‘नहीं होगा कुछ भी, हमें बिछड़ना है।’ जैसे उफनती नदी थम गयी हो, नगीना थम जाती है और उसके अंदर की यह प्रेम कहानी अपने सिरे पर ऐसी गाँठ लगा जाती है जिससे रिसता रहता है प्रेम के पीछे का बनावटीपन, जिसे पहचान वह अठखेलियाँ करने को तो प्रस्तुत हो सकती है लेकिन प्रेम के हाथों ठगी जाने को वह तैयार नहीं अब। उसकी ज़िन्दगी के संघर्ष थमते नहीं लेकिन अब वह हर बार परिस्थितियों से लड़कर खड़ी होना सीख गयी है। शिमला आकर वह एक आर्मी नौजवान से विवाह करती है किन्तु वह भी कैंसरग्रस्त हो उसे और दो नन्ही बेटियों को उसके सहारे छोड़ दुनिया से विदा लेता है। 

‘ज़ोरबा’ के लेखक निकोस ने जैसा लिखा, “जीवन में की गयी यात्रायें, स्वयं के द्वारा देखे गये सपने और जीवन के संघर्षों ने उसके आगे बढ़ने का रास्ता प्रशस्त किया।” नगीना भी रुकती नहीं है। स्वयं से बीस साल छोटे दामोदर के साथ अजनबी देश अमरीका चली आती है। कई बार नयी परिस्थितियों के संकट उसे पुनः निर्वासन देते हैं और उनसे मुक्ति पाने की छटपटाहट में वह कभी बड़ी बेटी के पास बैंगलोर तो कभी छोटी बेटी के पास कैनेडा चली आती है। कैनेडा में ही उसकी मुलाक़ात हेनरी से होती है जो कि अपने बेटे-बहुओं के पास सिर्फ़ इसलिये रहने आ गया क्योंकि उसका प्यारा पिल्ला ‘सेमी’ वे अपने साथ यहाँ लिये चले आये थे। इंसानों पर से उठता विश्वास और अपनत्व की सुवास पशुओं में अधिक पुरज़ोर ढंग से प्राप्त किया जा सकता है—उत्तर आधुनिक युग की इस विडंबना को जीवित करता हेनरी नगीना में रुचि लेता है और वे दोनों गाहे-बगाहे एक दूसरे के देश की संस्कृतियों को साझा करते भावानात्मक संबंधों में बँधते हैं। यह सौहार्द एक नये रिश्ते में व्याख्यायित हो, इससे पहले ही नगीना प्रेम के इस आकर्षण और दुनिया के मायावी छलावों को समझने की जिस अन्तरदृष्टि से चैतन्य हो चुकी है, इस रिश्ते में बँधने से इंकार करती हुई स्वेच्छा से एक अनदेखे कश्मीरी युवक महेश्वरम (जो उससे 25 वर्ष छोटा है) से उसके लिखे कश्मीरी पत्रों के मसौदों से प्रमाणित होती उसके प्रति घनी संवेदना से पूरित होती जाती है। उसकी स्थिति अब न केवल दूसरों द्वारा थोपे रिश्तों में स्वयं को बचा लेने की गुहार में है न कि जीवन-यापन के लिए आवश्यक आर्थिक जुगाड़ में। उम्र और अनुभव के इस पड़ाव में वह हृदय-स्पंदनों या बॉयोलौजिकल धुकधुकी को तार्किक आचार पर कसती ज्ञानात्मक संवेदना से भरी परिपूर्णता की प्रगाढ़ता को प्राप्त होती है। संपूर्ण उपन्यास में आये कई पात्रों द्वारा भी कई अन्य महत्त्वपूर्ण सवाल उठाये गये हैं। ‘दिलजोत’ जो कि नगीना की दोस्त है, के द्वारा एक बहुत ज़रूरी सवाल उपन्यास की समाप्ति के बाद भी ज़ेहन से बार-बार टकराता रहता है, “कैरेक्टर क्या किसी के साथ होने या साथ सोने मात्र से चला जाता है?”

दिलजोत, एक युवा स्त्री जो पंजाब से पढ़ने के लिये कैनेडा अपनी मौसी के पास चली आयी थी, उसकी नज़दीकियाँ मीकू से बढ़ती हैं और वह गर्भवती हो जाती है। सीमोन द बोउवा ने कितना सही लिखा है कि, “स्त्री-देह के अपने ही जंगल हैं। स्त्री को एक पूरी तैयारी के साथ आगे बढ़ने का हौसला करना होगा।” मासूम दिलजोत को उसकी सगी मौसी अपने घर उसे रखने का किराया वसूलती है और उपभोगी संस्कृति में मूल्यों की गिरावट उसे इस स्तर पर ला खड़ी करती है कि अनब्याही माँ होने पर विवश वह पैसों की ख़ातिर ब्रेस्ट पम्प से दूध निकाल कर बेचती है जबकि उसका स्चयं का बच्चा बाहरी दूध पर निर्भर उसके ममत्व के लिये रोता-चिल्लाता-सूखता रहता है। इस प्रकार, कई पात्रों की यात्राओं का गवाह बनता यह उपन्यास कई अनाम ज़िंदगियों का यथार्थ कथानक बन जाता है। 

उपन्यास की भाषा बड़े खिलंदड़ी रूप में पाँच आब वाली पंजाब के दरियाओं की तरह उछलती-मचलती, कभी रुआँसी होती तो कभी उत्कृल्लता में नाचती-मुस्काती पूरे उपन्यास को जीवंतता से भरी रहती है। हेलन केलर ने जिस विशेष अंतःप्रज्ञा से संचालित स्त्री की भाव-दशा का वर्णन किया है कमोबेश उसी अंतःप्रज्ञा को साधती, स्वयं को आत्मानुशासन में बाँधती निर्भर नगीना अपनी अस्मिता की तलाश में लगातार आगे बढ़ती है और उम्र में कई बरस छोटे महेश्वरम् को जिस ज़िंदादिली और दोस्ती के सह-संबंध के साथ स्वीकारती है वह उसकी निर्बल, निरीह यात्रा नहीं बल्कि स्वयं की अर्जित की हुइ्र बेफ़िक्री और अकुंठा की बेबाक मंज़िल सिद्ध होती है। 

कथा में कई बार जीवन-मृत्यु, भ्रूण-हत्या, अजन्मी एक पुकार, बचपन की कच्ची देसी, प्रौढ़ कुंठा और सतत कोई तलाश इस प्रकार अनुस्यूत हुई है कि कथा आत्मकथा सी प्रतीत होने लगती है। उपन्यास का शीर्षक ‘रेड वाइन ज़िन्दगी’ भी प्रतीकात्मक है जहाँ इसका अर्थ है-अस्मिता को तलाशने का सिलसिला, ज़िन्दगी की रगों में रेड वाइन तलाशने जैसा सफ़र जहाँ मनुष्यता की मौजूदगी पूरी उम्र को ज़िंदादिली की ‘ज़ोरबा-कथा’ में बदल कर रख देती है। 

— रूपा सिंह

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