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सात विवाह माफ़: वर्तमान समाज में महिलाओं की स्थिति और लिंग-समानता

 

सारसंक्षेप

पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं की सामाजिक स्थिति सम्बन्धी हर वो घटना, जो मानसिक सहनशीलता को विचलित कर दे, विवेक और बुद्धि को भावावेश में बहा दे, या फिर तर्कशीलता को महत्वहीन कर दे, दर्शाता है पारिवारिक परिवेश में शक्ति और नियंत्रण के पहलुओं का पुनर्विभाजन करना और सामाजिक परिवेश में पुरुष-महिलाओं के मध्य सम्बन्धों का पुनर्विश्लेषण कर एक सामंजस्य बिठाना। महिलाओं के ख़िलाफ़ अन्याय के और भी कई पहलू हैं जो अन्याय की गहनता के मापदंड को निर्धारित करते हैं, जैसे पीड़ित-विशेष की जाति (ऊँची या नीची), धर्म (बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक), वर्ग (अमीर या ग़रीब) इत्यादि। परन्तु मापदंड के निर्धारण के अतिरिक्त यह पहलू न्याय-वितरण की प्रणाली को भी प्रभावित करते हैं जो कि प्राथमिक ना होकर अतिरिक्त सूची या फिर दूसरे दर्जे में आते हैं। पीड़ित-विशेष का इस तरह की सामाजिक पहचान से सम्बन्ध रखना निर्धारित करता है कि न्याय-वितरण की प्रक्रिया और गति कैसी रहेगी।

मुख्य शब्द: महिला-सशक्तिकरण, पितृसत्ता, लैंगिक-समानता, विवाह-संस्था, शक्ति-नियंत्रण, लैंगिक-भेदभाव

भूमिका

यूँ तो ग्रामीण भारत अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस जैसे उत्सव से अनजान है परन्तु शहरीकरण की चलित संस्कृति, वैश्वीकरण, और बाज़ारीकरण से प्रभावित ग्रामीण भारत का परिवेश भी 8 मार्च की तिथि पर एक अनोखे उत्सव में नज़र आता है। गत वर्ष, इसी के उपलक्ष्य में ज़ेहन में आया कि माता जी को एक फोन कॉल कर महिला दिवस की बधाई दी जाए। वार्तालाप करते-करते मालूम पड़ा कि पड़ोस में किसी महिला का देहांत हुआ है और सभी परिवारजन उनकी शोक-सभा में व्यस्त हैं। उचित समय ना समझते हुए, माता जी को अलविदा कह साँझ ढले फोन करने को कहा। रात्रि-भोज से पहले ही माता जी का फोन आया और इस से पहले कि मैं उन्हेंं महिला दिवस की बधाई दे पाता कि उन्होंने पूरे दिन भर की भाग-दौड़ का वृत्तांत सुनाना आरंभ कर दिया। बातों-बातों में मालूम पड़ा कि जिन महिला का देहांत हुआ था उनके जीवन से मैं काफ़ी प्रभावित था। जिस आज़ादी और ज़िंदादिली से उन्होंने अपना जीवन व्यतीत किया था शायद ही कोई विरला हो जिसे ऐसे जीवन से नाराज़गी हो, कोई पश्चाताप हो। उनका जीवन भले ही समाज के लिए एक हास्य और उपहास का विवरण हों परन्तु व्यक्तिगत तौर पर मैं कभी उन्हेंं उनके द्वारा लिए गये निर्णय और फ़ैसलों को एक मिथ्या की तरह ना क़ुबूल सका और ना ही कभी उनके जीवनशैली की आलोचना या निंदा कर सका। अब इसे मेरा एक महिला को किसी भी आम इंसान समान की नज़र से देखने का मेरा व्यक्तिगत मनोभाव समझिए या फिर मेरी लैंगिक समानता को लेकर विचारधारा का प्रभाव।

तुलसी: आख्यान

पचास के दशक में, एक अनुसूचित जाति समुदाय में पैदा हुई तुलसी देवी ने ना कभी विद्यालय की दहलीज़ देखी थी ना कभी ऐसा विचार पनपने की नौबत आन पड़ी क्यूँकि पारिवारिक मजबूरियों ने उनकी बाल्य्वस्था को घर के काम-काज में जकड़े रखा। उमर 14 के आस-पास पहुँची तो तुलसी देवी सीधे बाल्यावस्था से निकल शादी-शुदा गृहस्थी में उलझ गई। स्वर्गीय तुलसी देवी, हिमाचल प्रदेश के सिरमौर ज़िले के गिरीपार क्षेत्र से सम्बन्ध रखती है जो कभी हाटी समुदाय के नाम से भी जाना जाता था। यहाँ की संस्कृति, रीति-रिवाज़ों ने ना सिर्फ़ बाल-विवाह जैसी कुरीतियों को मान्यता दी है बल्कि बहु-विवाह और बहुपतित्व विवाह जैसे रिवाज़ों का भी यहाँ आम प्रचलन है। अलबत्ता, वर्तमान समय में बाल विवाह जैसी कुरीतियाँ काफ़ी कम हो चुकी हैं परन्तु फिर भी रह-रह कर अक़्सर ऐसे हादसों का वर्णन आए दिन आम वार्तालाप का हिस्सा बन ही जाता है। बहुपतित्व विवाह अब भी इस क्षेत्र में एक सामाजिक चुनौती की तरह अडिग है और आम-प्रचलन का हिस्सा है जबकि बहु-विवाह का प्रचलन शहरीकरण की चलित संस्कृति से कम हुआ है। इसके अतिरिक्त अंतरजातीय-विवाह की प्रथा को अनुचित समझना भी वर्षों से बरक़रार है। 

तुलसी देवी की जीवन-कथा के उपहास बनने का एकमात्र कारण है उनका अपने जीवन को जीने का अलग नज़रिया, बेबाक निर्णय लेने की क्षमता और आज़ाद सोच से प्रभावित फ़ैसलों पर अडिग रूप से अमल करने की ज़िंदादिली और साहस का होना। तुलसी देवी ने अपने जीवन काल में विवाह के रिवाज़-ओ-रस्मों को सात दूल्हों (पति) के साथ लगभग एक दर्जन से ज़्यादा बार निभाया है। मेरे स्मरण अनुसार, मेरा तुलसी देवी के नाम से परिचय तब हुआ जब परिवार के किसी सदस्य ने तुलसी देवी का ज़िक्र किसी ताने के रूप में प्रयोग किया। उस समय मेरी उम्र 13 वर्ष के आस-पास होगी और तुलसी का वो आठवाँ विवाह था। उसके पश्चात मैंने अक़्सर परिवार के सदस्यों से सुना की तुलसी फिर नये ससुराल चली गई, तुलसी नये ससुराल छोड़ वापस पहले पति के पास आ गई और तुलसी कहीं मेहमान गई और वही उसे अगला पति मिल गया, इत्यादि। 

तुलसी देवी का उपहास ना सिर्फ़ उनके द्वारा किए गये बहु-विवाह के लिए किया जाता था बल्कि उनके संवेदनशील और भावुक प्रकृति के लिए भी किया जाता था। किसी भी व्यक्तिजन, यदि वो भावुक और संवेदनशील है, या फिर जिस किसी को भी छोटी-सी बात पर रोना आ जाना आदि भावों को रोकने के लिए अक़्सर उस व्यक्ति विशेष की ताने के रूप में तुलसी देवी से तुलना कर दी जाती थी। उदाहरणार्थ, “तुलसी के तरह रोना बंद कर या तुलसी जैसे आँसू बहाना, तुलसी जैसे पति बदलना, तुलसी जैसे दर्जनों ससुराल जाना या फिर ये भी तुलसी की तरह दर्जन विवाह करेगी आदि।” 

पितृसत्ता: शक्ति और नियंत्रण

कुछ ऐसी ही दमनकारी परिकल्पना (रिप्रेसिव हाइपोथेसिस) और नियंत्रण परिकल्पना (रिप्रेशन ऑफ़ एनिमा एंड एनिमस) की बात करते हैं मिशेल फूको (हिस्टरी ऑफ़ सेक्शुएलिटी, 1978), तथा कार्ल जंग (द आर्केटाइप्स एंड द कलेक्टिव अनकॉन्शियस, 1968) में। कार्ल जंग का मानना है कि किस प्रकार सामाजीकरण के प्रथम पड़ाव पर परिवार के सदस्यों द्वारा एक बच्चे की मानसिकता को समाज के रीति-रिवाज़ के अनुसार और उसकी लैंगिक पहचान के अनुसार ढालने के लिए इस प्रकार के तानों का अक़्सर प्रयोग किया जाता है। उदाहरणार्थ, “तुलसी के तरह रोना बंद कर।” कार्ल की नियंत्रण परिकल्पना (रिप्रेशन ऑफ़ एनिमा एंड एनिमस) दर्शाती है कि हर नर में कुछ विशेषताएँ होती हैं जो कि एक नारी की विशेषताओं से मेल खाती हैं, परन्तु एक पितृसत्तात्मक सामाजिक परिवेश में जब लैंगिकता में शक्ति और नियंत्रण का आमना-सामना होता है तो इस प्रकार की विशेषताओं का एक नर में होना पितृसत्तात्मक सामाजिक परिवेश के लिए उचित नहीं माना जाता और उन विशेषताओं का दमन किया जाता है। उसी प्रकार फूको (1978) की दमनकारी परिकल्पना (रिप्रेसिव हाइपोथेसिस) भी दर्शाती है कि किस प्रकार दमन ना सिर्फ़ एक ज़रिया है एक पितृसत्तात्मक सामाजिक परिवेश में क़ानूनन नियंत्रण और निषेध का बल्कि यह नर को सत्ता में ऊपरी-स्थिति बनाए रखने में भी मदद करता है। पितृसत्तात्मक सामाजिक परिवेश में लैंगिकता और अन्य यौन-संबंधी सामाजिक-गतिविधियों पर नियंत्रण और निषेध के लिए इस प्रकार की युक्तियों का अक़्सर प्रयोग होता है। उदाहरणार्थ, “ये भी तुलसी की तरह दर्जन विवाह करेगी” ताने का प्रयोग एक युवती की शारीरिक तथा सामाजिक मर्यादा के नियंत्रण के लिए किया जाता है। 

यूँ तो हाटी समुदाय में ब्राह्म-विवाह और प्राजापत्य-विवाह को प्राथमिकता दी जाती है परन्तु तुलसी के सभी विवाह गांधर्व विवाह थे। अक़्सर गांधर्व-विवाह मायका परिवारजन और विवाहित युवती के मध्य एक विग्रह और विवाद को जन्म देता है परन्तु तुलसी देवी के पिता ने तुलसी के पहले गांधर्व-विवाह को सामाजिक तौर पर क़ुबूल किया। परन्तु विवाह के कुछ वर्ष बाद तुलसी देवी जब मेहमान के तौर पर मायके लौटी तो ख़बर आई कि तुलसी देवी किसी और युवक के साथ विवाह कर बैठी है। तुलसी देवी के इस फ़ैसले पर तुलसी देवी के पिता ने उसे अपने नाम, वंशावली, पैतृक सम्पत्ति और वंशानुगत ज़मीन-ज़ायदाद से बेदख़ल कर दिया। तुलसी के पिता को डर था कि तुलसी देवी के दोनों पति कहीं उसकी ज़मीन-ज़ायदाद पर अपना आधिपत्य ना जमा लें। वैसे तुलसी देवी का ज़मीन-ज़ायदाद से बेदख़ल होना कोई बड़ी बात नहीं थी, और ना ही तुलसी देवी के पिता के इस फ़ैसले से तुलसी के जीवन पर कोई फ़र्क़ पड़ने की गुंजाइश थी। कहने का तात्पर्य यह है कि यूँ तो संविधान लिखित तौर पर वंशानुगत पैतृक सम्पत्ति पर बेटा और बेटी दोनों को समान अधिकार मुहैया करता है परन्तु सामाजिक वास्तविकता कुछ और है। एक बेटी जो पैतृक सम्पत्ति पर अधिकार जमाने की बात करे या फिर पैतृक सम्पत्ति में अपने हिस्से की माँग करे उसे समाज में एक नीचे चरित्र का माना जाता है। यही नहीं, यदि कोई बहन या बेटी पैतृक सम्पत्ति का हिस्सा ले कर उसे स्वयं के लिए प्रयोग करती है तो परिवार (मायका) के सभी सदस्य उस से अपना रिश्ता-नाता तोड़ लेते हैं तथा उसे मिसाल के तौर पर अक़्सर तानों में प्रयोग किया जाता है, उसकी तुलना एक ऐसी चरित्रहीन महिला से की जाती है जिसे अपने भाई की ख़ुशी रास ना आई हो, जो अपने भाई का जन्माधिकार का अंश दबोचना चाहती हो, तथा इस तरह के तानों का उपयोग भावी बहन और बेटियों के चरित्र नियंत्रण के लिए किया जाता है ताकि वो पैतृक सम्पत्ति में अपने हिस्से की माँग ना करें और इच्छानुसार पैतृक सम्पत्ति का हिस्सा अपने भाई को समर्पित कर दें। यही नहीं, बहन या बेटी द्वारा पैतृक सम्पत्ति के अपने हिस्से को भाई के नाम दर्ज करने के फ़ैसले का सामाजिक तौर पर बढ़ा-चढ़ा कर महिमामंडन किया जाता है, गुणगान किया जाता है। बहन और बेटी को इस कार्य के लिए गौरवान्वित महसूस करवाया जाता है ताकि उनके मन में अपने भाई के प्रति पैतृक सम्पत्ति को दान करने हेतु को द्वंद्व, द्वेष अर किसी प्रकार का परिवारिक क्लेश ना रहे। 

कुछ ऐसी ही संकल्पना की बात करती है हन्ना अरेन्डट (1951), “अधिकार होने का अधिकार” (राइट टू हेव राइट्स)। संविधान महिलाओं को एक नागरिक होने के तौर पर मौलिक अधिकार तो प्रदान करता है परन्तु पितृसत्तात्मक सामाजिक तथा सांस्कृतिक परिवेश महिलाओं को इन अधिकारों के उपयोग से वंचित रखता है अर्थात्‌ अधिकार होने के बावज़ूद भी महिलाएँ इन अधिकारों का प्रयोग अपनी इच्छानुसार नहीं कर सकती। पितृसत्तात्मक सामाजिक तथा सांस्कृतिक परिवेश ऐसे बहुत से आचरणों को रोज़-मर्रा की जीवन-प्रणाली में नियुक्त करता है जो ना सिर्फ़ महिला स्वायत्तता का हनन करता है बल्कि महिलाओं के आचरण को नियंत्रित करने के लिए एक आचार संहिता का काम भी करता है। 

दूसरे विवाह के पश्चात तुलसी देवी कुछ महीने बाद अपने दूसरे पति को छोड़ तीसरा विवाह कर बैठी परन्तु तीसरा या चौथा विवाह तक का प्रचलन काफ़ी आम होने की वजह से चरित्र पर प्रश्न उठने की सम्भावना कम थी। सामाजिक लोक-लाज पर प्रश्न उठना शुरू हुआ छठे विवाह पर जब तुलसी देवी फिर अपने पहले पति के घर वापस जा पहुँची। इस बार तुलसी देवी को एक संतान (पुत्र) हुई और यहीं उन्होंने काफ़ी वर्ष व्यतीत किए। लेकिन तुलसी देवी ने जिन कारणवश पहले घर छोड़ कहीं और विवाह किया था ठीक वैसे ही फिर सातवाँ विवाह निर्धारित हुआ। निर्धारित से तात्पर्य वही घर छोड़ गांधर्व-विवाह से है। तुलसी फिर अपना सामान समेट, अपने पुत्र को अपने पति के हवाले कर किसी पड़ोस के गाँव में नव-विवाहिता बन बैठी। ये विवाह कर, छोड़ आना और फिर नया विवाह करने का क्रम कुछ दर्जन भर से ज़्यादा चला। इस बीच कई बार तुलसी अपने पुराने पतियों से भी फिर से नाता जोड़ एक विवाहिता का धर्म अदा कर चुकी थी। कई दफ़ा ना जाने कितने माह वो अपने मायके भी गुज़ार आती थी जहाँ उसके भाई और भाभी अब रहा करते थे। पिता की मौत के पश्चात तुलसी देवी का मायके आना सुलभ हो गया था परन्तु उसे अपनी भाभी के ताने अक़्सर सुनने पड़ते थे। आख़िरकार, तुलसी अपने पहले पति के पास वापस लौटी और अपने अंतिम दिन वहीं गुज़ारे। 

प्रतिक्रिया के माध्यम

कला और साहित्य दो ऐसे माध्यम है जो ऐसी घटनाओं को समाज के सामने रखते हैं एक प्रतीक की सहायता से। अब समस्या यह रहती है कि समाज इस प्रतीक से कौन सी राह चुनता है, और कौन सी राह दुत्कारता है। अक़्सर देखा गया है कि कला और साहित्य, प्रतीकवाद के रूप में एक अवसर पैदा करता है न्याय को हासिल करने का, अपने अधिकारों के हनन को रोकने का, अपने वर्तमान के साथ-साथ अपनी आने वाली पीढ़ियों को एक दिशा, एक मापदंड, एक ऐसे समाज की स्थापना करने का मौक़ा देना जहाँ शांति-स्थापना का एकमात्र विकल्प किसी भी प्रकार का संहार आवश्यक नहीं होता। परन्तु इस तरह के समाज और अवसर की परिकल्पना करना सिर्फ़ तब ही निश्चित होगा अगर प्रतिवाद में उपयोग किए गये प्रतीकवादी माध्यम जैसे कला और साहित्य, को उचित तौर पर प्रयोग किया जाए अर्थात्‌ किसी भी अन्याय का समाधान उसके दीर्घकालिक प्रभाव को देख कर किया जाए बजाय वर्तमानिक अल्पावधि समाधान को केंद्र बनाकर। उदाहरण के तौर पर, वर्तमानिक भावावेश को संतुष्ट करने के लिए दोषियों को फाँसी या सूली पर चढ़ाना सिर्फ़ अल्पावधि समाधान है जबकि दोषियों के मानसिक और सामाजिक विश्लेषण से कई संभावित दोषियों को ऐसे कुकर्म करने से रोका जा सकता है जो कि एक दीर्घकालिक समाधान का हिस्सा होगा। आवश्यक है कि किसी भी सामाजिक कुरीति को जड़ से उखाड़ा जाए क्यूँकि बार-बार ऐसी घटनाओं का घटना ना सिर्फ़ इस तरह की कुरीतियों को सामाजिक परिवेश का एक अभिन्न अंग बनाता है बल्कि एक बीमार-प्रशासन को भी जन्म देता है। कला और साहित्य का उपयोग किसी भी विरोध-प्रदर्शन को एक शक्ति प्रदान करता है, उसे सुदृढ़ बनाता है परन्तु आवश्यक है कि किसी भी प्रकार के माध्यम की अभिव्यक्ति को स्पष्ट करना। पुष्यमित्र उपाध्याय (2012) का द्रौपदी को शस्त्र उठाने का आह्वान एक नारी का स्वावलंबी और आत्म-निर्भर बनने की ओर संकेत करता है ना कि किसी भी प्रकार के संहार का। समाज को समझना होगा कि महिलाओं के अधिकारों का हनन और महिलाओं के शोषण जैसे अपराधों को, लोगों के कौन-कौन से व्यवहार सुदृढ़ करता है जिसके लिए ज़रूरी है कि समाज कुरीतियों के सन्दर्भ में अपने सामाजिक अवधारणाओं का पुनःविश्लेषण करें। 

समाज, सामाजिक कुरीतियाँ एवं तर्कसंगतता

प्रश्न यह नहीं है कि ऐसी घटनाएँ क्यूँ घटित होती हैं, बल्कि यह होना चाहिए कि लगातार ऐसे हादसे क्यूँ हो रहे हैं। ऐसी घटनाओं का अधिकतर शिकार समाज का वह वर्ग-विशेष होता है जिसे शारीरिक और सामाजिक तौर पर कमज़ोर समझा जाता है अर्थात्‌ औरत, ट्रांसजेंडर और कुछ पुरुष जो मर्दानगी के मापदंड पर खरे नहीं उतरते। इसके अलावा महिला-विशेष की उम्र, जाति और धर्म भी कई बार उन्हें ऐसे हादसों का शिकार बनाती है। इसीलिए यह ज़रूरी है कि किसी भी औरत की किसी समाज-विशेष में उसकी सामाजिक स्थिति का विश्लेषण करना। एक औरत की किसी समाज-विशेष में सामाजिक-स्थिति उस समाज का आईना होता है। सामाजिक-स्थिति से तात्पर्य सिर्फ़ औरत का उस समाज में सम्मान नहीं बल्कि उसके घर-परिवार में, उसके आस-पड़ोस में लोगों का, और उसके माता-पिता, भाई-बहन, सास-ससुर और अन्य रिश्तेदारों का उसके प्रति व्यवहार से भी है। एक औरत की स्वयम् की इच्छाओं को लेकर विचार और स्वतंत्रता भी उसकी सामाजिक-स्थिति को निर्धारित करती है। स्वावलंबी और आत्म-निर्भर होना सिर्फ़ पैसा कमाने, अपनी इच्छा अनुसार काम करने से नहीं बल्कि उन कमाई गई राशि का अपने इच्छा अनुसार उपयोग करना, निर्णय लेने की स्वायत्तता होना भी है। 

लैंगिक समानता: पारिवारिक माहौल में महिलायें

एक परिवार-विशेष में एक औरत को कई मामलों में अपनी इच्छा के विरुद्ध जा कर, एक-तरफ़ा सामंजस्य बिठाना पड़ता है। ऐसे समय में एक औरत की स्वायत्तता का हनन तो होता ही है साथ-साथ उसके मौलिक अधिकारों का भी उल्लंघन होता है। और इस तरह के छोटे-पैमाने पर किए गये समझौते एक बड़ी पाबंदी को जन्म देते हैं। एक औरत से समाज की अपेक्षा उसके अधिकारों के ख़िलाफ हो जाती है। अब प्रश्न यह उठता है कि इस तरह की पाबंदियों से सामाजिक कुरीतियों का क्या सम्बन्ध? सम्बन्ध है, और बहुत ही गहरा और सटीक। परिवार-जनों की इन छोटी-मोटी पाबंदियों से एक औरत का समाज में दायरा निर्धारित होता है जैसे एक औरत क्या पहनेगी, कितना पहनेगी, क्या खाएगी, कब खाएगी, किसके साथ जाएगी, कब तक वापस आएगी, किसके साथ रहेगी, किसके साथ खेलेगी, क्या खेलेगी, किसके साथ पढ़ेगी, क्या पढ़ेगी, कितना पढ़ेगी, कब सोएगी, कब उठेगी, क्या काम करेगी, कब तक करेगी इत्यादि। इन सब पाबंदियों में बँधकर एक औरत ना सिर्फ़ मानसिक रूप से कमज़ोर होती है बल्कि शारीरिक रूप से भी उन कई तत्वों से वंचित रहती है जो एक व्यक्ति-विशेष को उसकी पहचान प्रदान करता है। इसके अतिरिक्त समाज उससे यह भी अपेक्षा करता है कि वह बिना कुछ विरोध के इन सब चीज़ों का अनुसरण करें। समाज की ऐसी ही पाबंदियाँ उसे समाज का सबसे कमज़ोर वर्ग बनाती है। 

लैंगिक समानता का पहला पड़ाव घर की दहलीज़ और चार-दीवारी है ना कि कोई राजनैतिक दल या विश्व-मानव संगठन की मुहिम। अक़्सर देखा गया है कि माता-पिता का इन पाबंदियों को हटाना एक अवसर प्रदान करता है एक औरत को उसकी खोई स्वायत्तता को प्रतिधारित करने का। परन्तु भारतीय समाज का एक अनोखा-चलन, जिसमें माता-पिता, घर के बड़े-बुजुर्गों को भगवान-तुल्य माना जाता हैं और इनके ख़िलाफ़ जाना महापराध समझा जाता है। माता-पिता, घर के बड़े-बुजुर्गों का सम्मान करना कोई बुरी बात नहीं है परन्तु यूँ आँखें बंद किए/सामाजिक दबाव में किसी भी बात का अनुसरण करना पड़े तो निश्चित है कि हर सीता पर लांछन भी लगेगा और हर द्रौपदी के चरित्र का चीर हरण भी होगा, और शायद ही कोई वाल्मीकि और गोविन्द बचाने आ पाएँगे। निहितार्थ बहुत ही सरल है, अपने हक़ की लड़ाई में समझौते करने का परिणाम आपकी स्वायत्तता छिनना ही होगा। यदि आप अपने मौलिक अधिकारों के हनन के ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठा पाए तो सामाजिक कुरीतियाँ हमेशा बनी रहेगी। बाप, भाई, बहन, माँ, और समाज के कई अन्य लोग इस तरह की कुरीतियों को बढ़ावा देने के उतने ही ज़िम्मेदार हैं जितना एक पीड़ित व्यक्ति। सामाजिक कुरीतियों को रोकना है तो दो परिवारों के व्यवहारिक-चलन में परिवर्तन लाना होगा। एक पीड़ित परिवार उतना ही दोषी है अपनी घर की महिला को कमज़ोर और पुरुष को मज़बूत बनाने में जितना कि एक दोषी परिवार। 

यूँ तो समाज ने कई कारण बताए कि तुलसी देवी को पैसों का लोभ था, उन्होंने हर पति से धन-संपत्ति ऐंठ अपने बैंक खातों में जमा किया इत्यादि परन्तु निहायती वास्तविकता कुछ और रही होगी। आख़िर क्यूँ तुलसी देवी ने इतने विवाह किए, किन कारणवश तुलसी देवी ने एक पति छोड़ दूसरे पति की टोह ली, क्यूँकर तुलसी देवी, असाक्षर होते हुए भी सामाजिक रीति-रिवाज़ों का खंडन कर, लोक-लाज की परवाह ना कर बेबाक, अपनी स्वायत्तता को प्राथमिकता दे तमाम सामाजिक तानों के बावज़ूद अपने फ़ैसलों पर अडिग रही और अपनी इच्छानुसार ज़िंदादिली से आख़िरी साँस तक अपना जीवन व्यतीत किया। ये सब कश्मकशें दो-तरफ़ा दृष्टिकोण की ओर संकेत करती हैं: एक, तुलसी देवी की मानसिक सोच का अपने काल के सामाजिक परिवेश से अग्र होना, और दूसरा, तुलसी देवी के सामाजिक परिवेश की परिस्थितियों का अनूकूल ना होना जैसे महिलाओं की साक्षरता को नज़रअंदाज़ करना, मौलिक अधिकारों के होने के बावज़ूद एक महिला द्वारा उनका उपयोग ना कर पाना, महिला स्वायत्तता को प्राथमिकता ना देना इत्यादि। परन्तु द्विविधा यह नहीं कि वह एक आज़ाद सोच रखने वाली महिला थी, बल्कि यह है कि उनके मरणोपरांत भी उनके नाम, उनके जीवनशैली का प्रयोग एक ऐसे आचरण को बनाए रखने के लिए किया जाता है जो सिर्फ़ और सिर्फ़ महिला सशक्तिकरण का हनन करते हैं, महिला स्वायत्तता की अवहेलना करते हैं तथा लैंगिक असमानता को बढ़ावा देते हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि समाज किस तुलसी देवी को अपनाएगा? 

दायरों का निर्धारण:

निर्णय की ऐसी स्थिति पर लोग आमतौर पर कला और साहित्य के उपयोग की मंशा से उसका भावावेश में दुरुपयोग कर डालते हैं। सोच और परख भावावेश के समक्ष शून्य पड़ जाती है और समाज पर एक नकारात्मक दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ जाती है जो सामाजिक परिवेश का एक अभिन्न अंग बन कर रह जाता है। उदाहरण के तौर पर, यदि महिलाएँ भी पुरुषों की तरह आक्रामक-प्रवत्ति को प्राथमिकता देने लग जाएँ, दूसरों के अधिकारों की अवहेलना करने लग जाएँ बजाय पुरुषों की आक्रामक-प्रवत्ति और लैंगिक असमानता को समाप्त करने की, तो सभ्य समाज की स्थापना की कल्पना करना व्यर्थ है। 

ऐसी स्थिति में ज़रूरी है कि समाज कुछ दायरों को स्पष्ट रूप से निर्धारित करें:

  • कि कौन-सा नमूना आने वाले समाज में शांति-स्थापना करने की क्षमता रखता है: महिलाओं का शांत-स्वभाव या फिर पुरुषों की आक्रामक प्रवत्ति? 

  • क्या शांति-स्थापना तब ही मुमकिन है जब दोनों (पुरुष और महिला) एक दूसरे से लड़ने में सक्षम हो? 

  • क्या ज़रूरी है कि महिला भी आक्रामक रूप में आए या फिर मुमकिन है कि पुरुषों की आक्रामक प्रवत्ति को शांत-स्वभाव में ढाला जाए? 

  • क्या शांति-स्थापना का बिना अस्त्र-शस्त्र/संहार के भी कोई विकल्प है? 

जो विकट स्थिति महज़ परवरिश में बदलाव लाने से, अपने अहंकार और अहंभाव को त्यागने से, अपने आत्म-सम्मान और प्रतिष्ठा को प्राथमिकता देने की बजाय मानवीय-मूल्यों को अग्रसर रख सुलझ सकती है उन्हें बेवजह ही संघर्ष की स्थिति की ओर धकेलना तो सभ्य-समाज का कार्मिक नियम नहीं है। 

उदाहरण के तौर पर समझा जाए तो यह ज़रूरी तो नहीं कि लोहा ही लोहे को काटे, या फिर लकड़ी को लोहा बनना पड़े लोहे को काटने के लिए। ठीक उसी प्रकार यह भी ज़रूरी नहीं कि सभी लड़कियाँ/महिलाएँ, और अन्य शोषित वर्ग को भी लोहा बनना पड़ेगा अर्थात्‌ कोई शस्त्र उठाना पड़ेगा या फिर आत्मरक्षा हेतु कोई युद्ध-विद्या की तकनीक सीखनी पड़ेगी। ज़रूरी तो नहीं कि अन्याय और अपराध को रोकने का उपाय एक और अपराध ही हो। लोहे को पिघलाया भी तो जा सकता है, उसे लकड़ी की भाँति एक नया रूप भी तो दिया जा सकता है। लैंगिक-भेदभाव से पनपी कुरीतियाँ एक दक़ियानूसी सामाजिक परवरिश का परिणाम है और इन्हें सामाजिक परवरिश में बदलाव लाने से बदला जा सकता है। ठीक उसी प्रकार दोषियों में भरी विषाक्तता भी सामाजिक ही है और वह सामाजिक परवरिश में परिवर्तन लाने से बदली जा सकती है। यह आवश्यक तो नहीं कि एक लकड़ी (औरत), आग (सामाजिक भेदभाव) में जल कर (समझौते कर) हज़ारों साल कोयले के रूप में दफ़न रहकर (पीढ़ी दर पीढ़ी ज़ुल्म सहकर), एक जीवाश्म में बदल कर (क्रांतिकारी बदलाव ला कर/युद्ध-विद्या सीखकर/अस्त्र-शस्त्र में निपुण हो कर) एक लोहे जैसे मज़बूत धातु का रूप ले (तथा-कथित सशक्त नारी बने)। 

निष्कर्ष की ओर

प्रश्न यह उठता है कि हम यह मानकर क्यूँ चलें कि हर कथित और घटित घटना पर पर सिर्फ़ नारी को ही बदलना पड़ेगा। उसे ही सशक्त बनना पड़ेगा। हमेशा पीड़ित की हालत, चरित्र, परिवार को ही क्यूँ प्रश्नों के कटघरे में लिया जाता है? क्या कभी यह माँग उठाई गई की दोषी या दोषी के परिवार को भी मानसिक इलाज की ज़रूरत है? क्या कभी दोषी और दोषी के परिवार के लिए सज़ा के अलावा परामर्श (काउन्सलिंग) और जागरूकता की माँग की गई? समाज को समझना होगा की सौ-करोड़ की आबादी वाले देश में मृत्यु और जेल का भय शायद ही किसी को हो। कड़ी सज़ा और कठोर नियमों से यदि सामाजिक कुरीतियों और उन से उत्पन्न अपराधों की रोकथाम होनी होती तो अब तक सामाजिक कुरीतियों जैसे शब्द सिर्फ़ शब्दकोष में होते ना कि रोज़मर्रा के वार्तालाप का हिस्सा होते। इसीलिए आवश्यक है समाज के लोगों का भावनाओं को ना जगाकर, अपने विवेक को जगाना। आवश्यक है समाज के लोगों द्वारा किसी भी घटना-विशेष और अपराध-विशेष के कालक्रम को समझना, पीड़ित और दोषी की स्थिति का विवेचन करना, और राजनैतिक दल-विशेष की स्थिति की जाँच-परख कर एहतियात बरतना। आवश्यक है, परिस्थितियों को दबाव रहित, या किसी सामाजिक असमानता रहित अनुकूल बनाया जाना, ताकि किसी भी सामाजिक रूप से किसी भी असहाय व्यक्तिजन को इन कशमकशों से ना गुज़रना पड़े। 

सन्दर्भ सूची

  1. अल्बर्ट श्वीत्ज़र (1960): इंडियन थॉट एंड इट्स डेवलपमेंट, विल्को बुक्स। 

  2. एम. ऐन. श्रीनिवास (1998): विलेज, कास्ट, जेंडर एंड मेथड: एसेज ऑन इंडियन एंथ्रोलोजी, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रैस। 

  3. कार्ल जंग (1968): द आर्केटाइप्स एंड द कलेक्टिव अनकॉन्शियस, रटलीज एंड कीगन पॉल लिमिटेड। 

  4. चंद्रधर शर्मा (1960): ए क्रिटिकल सर्वे ऑफ़ इंडियन फिलोसॉफी, मोतीलाल बनारसीदास प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड। 

  5. जॉर्ज लैरेन (1979): द कॉन्सेप्ट ऑफ़ आइडियोलॉजी, बी. आई. प्रकाशन। 

  6. पुष्यमित्र उपाध्याय (2012): “सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो, अब गोविंद ना आयंगे” डेलीहंट, (सितम्बर 2020)। 

  7. ब्रायन एस. टर्नर (1996): द ब्लैकवेल कम्पैनियन टू सोशल थ्योरी, ब्लैकवेल प्रकाशन। 

  8. मिशेल फूको (1978): हिस्टरी ऑफ़ सेक्शुएलिटी, पेनथिओन प्रकाशन। 

  9. हन्ना अरेन्डट (1951): द ओरिजिन्स ऑफ़ टॉटेलीटेरियनिज़्म, शोकेन बुक्स। 

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