अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

संस्कार (डॉ. मोहन सिंह यादव)

विवाह के बाद सुहागसेज पर बैठी एक नवविवाहिता स्त्री का पति जब भोजन का थाल लेकर अंदर आया तो पूरा कमरा उस स्वादिष्ट भोजन की ख़ुशबू से भर गया। रोमांचित उस स्त्री ने अपने पति से निवेदन किया कि माँ जी को भी यहीं बुला लेते हैं, हम तीनों साथ बैठकर भोजन करते हैं।

पति ने कहा, "छोड़ो उन्हें, वो खाकर सो गई होंगी। आओ हम साथ में भोजन करते हैं।"

प्यार से उस स्त्री ने पुनः अपने पति से कहा, "मैंने उन्हें खाते हुए नहीं देखा है।"

तो पति ने जवाब दिया कि क्यों तुम ज़िद कर रही हो, शादी के कार्यों से थक गयी होंगी, इसलिए सो गई होंगी, नींद टूटेगी तो खुद भोजन कर लेंगी। तुम आओ हम प्यार से खाना खाते हैं।

उस स्त्री ने तुरंत तलाक़ लेने का फ़ैसला कर लिया और तलाक़ लेकर उसने दूसरी शादी कर ली और इधर उसके पहले पति ने भी दूसरी शादी कर ली। दोनों अलग-अलग सुखी घर-गृहस्थी बसा कर ख़ुशी-ख़ुशी रहने लगे।

इधर उस स्त्री के दो बच्चे हुए जो बहुत ही सुशील, संस्कारी  और आज्ञाकारी थे। जब वह स्त्री साठ वर्ष की हुई, तो वह बेटों को बोली, "मैं चारों धाम की यात्रा करना चाहती हूँ ताकि तुम्हारे सुखमय जीवन के लिए प्रार्थना कर सकूँ।"

बेटे तुरंत अपनी माँ को लेकर चारों धाम की यात्रा पर निकल गये। एक जगह तीनों माँ बेटे भोजन के लिए रुके और बेटे भोजन परोस कर माँ से खाने की विनती करने लगे। उसी समय उस स्त्री की नज़र सामने एक फटेहाल, भूखे और गंदे से एक वृद्ध पुरुष पर पड़ी जो इस स्त्री के भोजन और बेटों की तरफ़ बहुत ही कातर नज़र से देख रहा था। उस स्त्री को उस पर दया आ गईं और बेटों को बोली, " जाओ पहले उस वृद्ध को नहलाओ और उसे वस्त्र दो फिर हम सब मिलकर भोजन करेंगे।"

बेटे जब उस वृद्ध को नहलाकर कपड़े पहनाकर उसे, उस स्त्री के सामने लाये तो वह स्त्री आश्चर्यचकित रह गयी। वह वृद्ध वही था जिससे उसने शादी की सुहागरात को ही तलाक़ ले लिया था। उसने उससे पूछा कि क्या हो गया जो तुम्हारी हालत इतनी दयनीय हो गई; तो उस वृद्ध ने नज़र झुका के कहा कि सब कुछ होते ही मेरे बच्चे मुझे भोजन नहीं देते थे, मेरा तिरस्कार करते थे, मुझे घर से बाहर निकाल दिया।

उस स्त्री ने उस वृद्ध से कहा, "इस बात का अंदाज़ा तो मुझे तुम्हारे साथ सुहागरात को ही लग गया था, जब तुमने पहले अपनी बूढ़ी माँ को भोजन कराने के बजाय उस स्वादिष्ट भोजन का थाल लेकर मेरे कमरे में आ गए और मेरे बार-बार कहने के बावजूद भी आप ने अपनी माँ का तिरस्कार किया। उसी का फल आज आप भोग रहे हैं।"

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

 छोटा नहीं है कोई
|

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के गणित के प्रोफ़ेसर…

अंतिम याचना
|

  शबरी की निर्निमेष प्रतीक्षा का छोर…

अंधा प्रेम
|

“प्रिय! तुम दुनिया की सबसे सुंदर औरत…

अपात्र दान 
|

  “मैंने कितनी बार मना किया है…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

हास्य-व्यंग्य कविता

कहानी

सांस्कृतिक कथा

लघुकथा

शोध निबन्ध

कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं