शिक्षा और आर्थिक स्वावलम्बन के परिप्रेक्ष्य में स्त्री-सशक्तिकरण
आलेख | सामाजिक आलेख डॉ. दर्शना धवल1 Oct 2023 (अंक: 272, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
स्त्री सशक्तिकरण क्यों आवश्यक है या महिलाओं को सशक्त कैसे बनाया जाये? स्त्री सशक्तिकरण एक अवधारणा है और इसके अन्तर्गत इस समाधान को ढूँढ़ने का प्रयास है कि महिलाओं को सशक्त कैसे बनाया जाये। इसके लिए बहुआयामी प्रयास करने होंगेे क्योंकि यह राह उतनी भी आसान नहीं है। इसका प्रभाव सममाज की बुनियादी तह को विचलित कर सकता है। यह पितृ सतात्मक ढाँचे पर प्रहार करता हुआ दिखाई देता है। जबकि वास्तव में इसका उद्देश्य स्त्री-पुरुष को एक दूसरे का पूरक समझते हुए समतामूलक समाज की ओर आगे बढ़ने का है।
स्त्री को सशक्त करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण क़दम है स्त्री-सशक्तिकरण। सशक्तिकरण से तात्पर्य किसी व्यक्ति की उस क्षमता से है जिससे उसमें ये योग्यता या आत्मविश्वास आ जाता है जिसमें वो अपने जीवन से जुड़े सभी निर्णय स्वयं ले सकें और अपने ऊपर हो रहे अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा सके। स्त्री-सशक्तिकरण भी महिलाओं को सक्षम और मज़बूत बनाने का उपक्रम है। स्त्री-विमर्श, नारीवादी सिद्धान्त, स्त्री-सशक्तिकरण वास्तव में इन सभी का उद्देश्य स्त्री को समाज में सम्मानित स्थान दिलाने से है। इसी प्रकार स्त्री-आन्दोलन भी इसी क्रम में आता है। जिसका उद्देश्य समाज की उन मान्यताओं और परम्पराओं पर प्रश्न चिह्न लगाना है जो स्त्री को दोयम दर्जे का नागरिक समझती हैं। भारतीय संविधान के अनुसार पुरुषों की तरह सभी क्षेत्रों में महिलाओं को बराबर अधिकार देने के लिए क़ानूनी प्रावधान है। बस आवश्यकता है महिलाओं में इस चेतना का प्रसार करने की और इसका सशक्त माध्यम है शिक्षा। शिक्षा के द्वारा ही व्यक्ति अपने अधिकार और कर्त्तव्यों को भली भाँति जान सकता है और सामाजिक आर्थिक रूप सेे सक्षम होने में मज़बूती से आगे बढ़ सकता है।
21वीं सदी के आरम्भ में भारत ने सन् 2001 वर्ष को स्त्री-सशक्तिकरण का वर्ष घोषित किया है। आज़ादी के 71 वर्ष बाद भी स्त्रियों की शिक्षा का प्रतिशत पूर्णता प्राप्त नहीं कर सका है। भारत जैसे देश में जहाँ सिद्धान्तों और मान्यताओं में नारी को दैव्य गुणों से सुशोभित किया है वहीं व्यवहार में वह एक आज भी शोषण का शिकार है। स्त्रियों के लिए समुचित शिक्षा की व्यवस्था के द्वारा उन्हें सक्षम तथा सशक्त बनाया जा सकता है। आज़ादी के बाद शिक्षा के क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं। राष्ट्र के भावी निर्माण और विकास को ध्यान में रखकर शिक्षा-नीति को बनाया गया। जिसमें स्त्री-पुरुष दोनों के लिए समान शिक्षा व्यवस्था की गई। जिससे एक आदर्श समाज और राष्ट्र का निर्माण हो सके। लोकतन्त्र में स्त्री को भी स्वतन्त्र नागरिक का दर्जा मिलता है जिसे समान रूप से संवैधानिक अधिकार प्राप्त होते हैं। मृणाल पांडे के अनुसार, “बीसवीं सदी में स्त्रियों के शिक्षा-योजनाएँ बनाते वक़्त, अपने यहाँ जो लक्ष्य या सिद्धान्त योजनाकारों के सामने थे वे मूलतः 19वीं सदी के समाज-सुधार आन्दोलनों या सांस्कृतिक पुनरुत्थान धाराओं के सोच में कोई भिन्न नहीं हैं। स्त्रियों को पढ़ाने-लिखाने की ज़रूरत तो हर बार रेखांकित की गयी, पर समाज के पित्तृसत्तात्मक परिवारिक ढाँचें से स्त्री की अशिक्षा को जोड़कर समाज की कार्यशैली में स्त्री-सम्पन्नता बख्शने वाले कोई नये क्रान्तिकारी क़दम नहीं उठाये गये। स्त्री को पढ़ाना ज़रूरी माना गया पर महज़ इसलिए कि (अ) वह बेहतर माँ बनकर बेहतर बच्चे पालेगी और (ब) घर के बाहर के काम करके परिवार की आय और उसके जीवन स्तर को बेहतर बनायेगी। पर उद्देश्य ‘अ’ उद्देश्य ‘ब’ को कैसे निरस्त कर रहा है, यह देखा नहीं गया।”1 अर्थात् हमारी अच्छी से अच्छी शिक्षा-नीतियाँ भी उस मानसिकता को नहीं बदल पाई जिसमें स्त्रियों को बराबरी का दर्जा दिलाने की बजाय उन्हें यही सिखाती है कि स्त्री का मुख्य कर्म घर-परिवार की पारम्परिक भूमिका निभाने में है। उच्च-शिक्षा प्राप्त नारी का भी प्रथम कर्त्तव्य मातृत्व और आदर्श गृहणी का रोल निभाने में है। तमाम आधुनिकताओं के बावजूद भी स्त्री-शिक्षा में हम आदर्श लक्ष्य तक नहीं पहुँच सके हैं। पर साथ ही हमें यह भी देखना होगा कि स्त्री-शिक्षा में बाधाएँ क्या-क्या हैं। यह अलग-अलग राज्यों में भिन्न-भिन्न हैं। कहीं ग़रीबी के कारण, कहीं अधंविश्वास के कारण, कहीं परम्पराओं और रूढ़ियों के नाम पर स्त्री को शिक्षा से दूर रखा जाता है। आज जब नया तकनीकी परिवर्तन एक तरह से विकास की बुनियादी शर्त बन गया है, देश में उच्च शिक्षा पा रही स्त्रियों की तदाद का मात्र 3 प्रतिशत होना साफ़ इशारा करता है कि आने वाले समय में, जहाँ उच्च तकनीकी शिक्षा से जुड़ी नौकरियों की संख्या बढ़ेगी, वहाँ स्त्रियाँ कार्यक्षेत्र में हाशिये की उस जगह में सिमटती जायेंगी जहाँ कम तनख़्वाह, कम सुविधा वाले और एकरस क़िस्म के गैर-तकनीकी काम बचे रहेंगे। अगर, नयी शिक्षा-नीति सचमुच स्त्री-युग में समता लाने का प्रयास कर रही है, तो इस बात की अज़हद ज़रूरत स्पष्ट हो जाती है कि स्त्रियों को विज्ञान और तकनीकी के विषय पढ़ने को न केवल प्रेरित-भर किया जाए, बल्कि इन्हें उनके दैनिक जीवन से जोड़ कर देखा जाए तथा प्रस्तुत किया जाये और उनके स्कूलों में उसकी सही सुविधाऐं भी दी जायें।”2
वास्तव में स्त्री को शिक्षा देने की व्यवस्था के साथ यह सुनिश्चित किया जाए कि शिक्षा का प्रसार सही दिशा में हो रहा है या नहीं। यहाँ कुछ बुनियादी बातों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। स्त्री-सशक्तिकरण के लिए आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति और परिवार के स्तर पर एक वैचारिक बदलाव हो। यदि हम बेटी के जन्म पर ही यह संकल्प लें कि उसके पालन-पोषण में उसके विकास में किसी तरह की दोयम सोच नहीं रखेंगें तो आधी समस्या वहीं हल हो सकती है और आधी समस्या लड़कों के पालन-पोषण के समय हो जाएगी अर्थात् उसी भाँति हम लड़कों को भी बाल्यावस्था से ही ऐसे संस्कारों से पोषित करें जिसमें स्त्री के सम्मान का भाव हो। आख़िरकार स्त्रियों से जुड़ी समस्याओं की जड़ तो वो मानसिकता ही है जिसमें पुरुष को स्त्री से उत्तम माना गया है। शिक्षा के द्वारा हम ज्ञान तो दे सकते हैं पर उनका क्रियान्वयन रूप हो परिवार और समाज के स्तर पर ही करना होगा। एक शिक्षित स्त्री को परिवार में उचित स्थान देना तो परिवार और समाज के पुरुषों के हाथ में है। अधिकाशतः यह देखा गया है कि उच्च शिक्षा प्राप्त स्त्री से यह उम्मीद रखी जाती है वह और अधिक कुशलता से घर और बाहर का सामंजस्य बैठाए।
स्त्री-सशक्तिकरण की दिशा में एक अन्य महत्वपूूर्ण क़दम है आर्थिक स्वावलम्बन। रमणिका गुप्ता के अनुसार—“स्त्री अगर आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी हो तो उस पर ज़ुल्म नहीं होंगे और होंगे भी तो कम होंगे। स्वावलम्बी होने से औरत का सम्मान बढ़ता है और उसका आत्मसम्मान भी। साथ ही वह प्रतिकूल परिस्थितियों और प्रतिबन्धों को नकारने की क्षमता हासिल कर लेती है। वह समाज की संकीर्ण परम्पराओं से परे मुक्ति की राह पर चल सकती है।”3 आर्थिक रूप से सक्षम नारी आत्मसम्मान के साथ अपने निर्णय ले सकती है। आर्थिक रूप से मज़बूत होने पर वह सुख-सुविधाओं के उपकरण भी जुटा सकती है। आज के तथाकथित आधुनिक समाज में भी परिवारिक उत्तरदायित्वों को निभाना श्रम की श्रेणी में नहीं आता जबकि उसमेंं स्त्री के शारीरिक और मानसिक दोनों श्रम लगते हैं। बदले में न तो उचित मानदेय और न ही सम्मान मिलता है। आर्थिक रूप से सक्षम होने की पहली कड़ी शिक्षित होने से ही आरम्भ होती है। लेकिन साथ ही साथ हमें यह भी अवलोकन करना होगा कि आर्थिक स्वावलम्बन स्त्रियों को किस हद तक समस्यामुक्त कर रहा है। कहीं वह किसी अन्य विसंगतियों को तो जन्म नहीं दे रहा। वास्तव में हमारे समाज में एक मानसिकता यह भी है कि यदि औरत नौकरी करेगी तो वह क़ाबू से बाहर हो जाएगी। इससे स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि आर्थिक निर्भरता स्त्री को निश्चित ही कुछ समस्याओं से मुक्त करेगी। जहाँ कहीं भी पुरुष स्त्री को दिये जाने वाले अधिकारों और सुविधाओं से डरता है वास्तव में वह स्त्री को परम्परागत पितृसत्तात्मक ढाँचे से मुक्त होता पाता हैै। सुधा अरोड़ा के अनुसार, “औरत नौकरी करेगी तो एक बाहरी बड़े ‘स्पेस’ से उसका साक्षात्कार होगा। इससे बेहतर है कि उसके हर जन्मदिन पर पाककला की पुस्तकें उसे भेंटकर रसोई में स्वादिष्ट व्यंजन पकाने में उसे उलझाए, भरमाए रखो। घर आए मेहमानों के सामने उसकी पाककला की तारीफ़ के क़सीदे पढ़कर उसका मुख्य स्पेस रसोई का चूल्हा (चक्की) बना दिया जाए।”4 वास्तव में स्त्री स्वयं भी पति और बच्चों की दुनिया में इतनी रम जाती है कि तारीफ़ के चंद शब्दों से वह स्वयं को सशक्त महसूस करने लग जाती है। एक दिन जब वह इन सबकी अभ्यस्त हो जाती है तो वह समय भी आता है जब पति और बच्चों को भी उसकी उतनी ज़रूरत नहीं होती।
समय गुज़रने के साथ-साथ आधुनिक नारी ने यह जान लिया है कि आर्थिक सक्षमता उसकी अस्मिता की प्रथम शर्त है। यदि उसे समाज का एक सजग नागरिक बनना है तो अर्थ तो उसके पास होना ही चाहिए। पति पुत्र की अधीनता उसका जीवन-यापन तो कर सकती है पर उसको अर्थ नहीं दे सकती। “अर्थ सत्ता या मनीपावर से इंकार नहीं किया जा सकता, पर वही अर्थ जब पुरुष कमाकर लाता है तो वह गृहस्वामी, घर का सर्वेसर्वा है, आदर का पात्र है। उसके घर में घुसते ही पत्नी या बहन को पंखे का स्विच ऑन कर देना चाहिए, चाय का कप या शरबत का गिलास लेकर खड़े हो जाना चाहिए और वही अर्थ जब औरत कमाकर लाए तो कितने घरों में उसके ससुराल वाले पलक पांवड़े बिछाए खड़े रहते हैं?”5 वास्तव में किसी स्थिति के कुछ फ़ायदे-नुक़्सान दोनों होते हैं। हमें यह देखना है कि सम्मानजनक स्थिति किसमें अधिक है। देखा जाए पुरुषात्मक सत्ता स्त्री-सशक्तिकरण से सदैव भयभीत हुई है। उनका यह भय ही स्त्री मुक्ति के द्वार खोलता है। सामंतवादी ढाँचे में ही स्त्री-पुरुष का स्थान ऊँचा-नीचा है। पर आज की युग-परम्परा में इसका कोई स्थान नहीं है। वह पुरुष की भाँति समाज की एक स्वतन्त्र इकाई है। उसे भी संविधान से नागरिक अधिकार प्राप्त हैं। आर्थिक आत्मनिर्भरता उसमेंं आत्मविश्वास और दृढ़ता पैदा कर रही है, साथ ही उसके जीवन को नए अर्थ दे रही है। फ्रेडरिक एंगेल्स के अनुसार “जब वे अर्थिक कारण मिट जाँएगे जिनसे स्त्रियाँ पुरुषों के चिर-प्रचलित व्यभिचार को सहन करने के लिए विवश है अर्थात् जब स्त्री को यह चिन्ता नहीं रह जाएगी कि यदि उसके पति ने उसे त्याग दिया तो अपना और अपने बच्चों का पेट पालन वह कैसे करेगी।”6
शिक्षित और आर्थिक स्वावलम्बी स्त्री-समाज में एक आदर्श भूमिका निभा सकती है। शिक्षा ने स्त्री को भला-बुरा सोचने की समझ प्रदान की है। ऐसा नहीं कि शिक्षा और आर्थिक सक्षमता स्त्री की सभी समस्याओं का समाधान है पर हाँ आज के युग की माँग यही है और सत्य भी यही है कि स्त्री यदि शिक्षित होगी तो वह हर लिहाज़ से सही है। स्त्री के जीवन में समस्याएँ तो चिरकाल से हैं कभी उसे दुर्गा बना दैव्य स्थान पर बिठा देते हैं कभी उसको परम्पराओं और रूढ़ियों के नाम पर बलि चढ़ा देते हैं। सती-प्रथा, अनमेल-विवाह, विधवा विवाह जैसी समस्याएँ बहुत पुरानी हैं। पर भूमण्डलीकरण और बाज़ारवाद के इस युग ने भी स्त्रियों को नई समस्याओं की सौग़ात दी है। आज भी बलात्कार, घरेलू हिंसा, आत्महत्याएँ हमारे समाज के लिए कोई नई बात नहीं है। तथाकथित अतिआधुनिक परिवेश में स्त्री का शोषण अधिक हो रहा है। “पहले ये धारणा थी कि आर्थिक स्वतंत्रता या अर्थिक रूप से आत्मनिर्भर स्त्री सामाजिक परिवर्तन में मुख्य भूमिका अदा करेगी। मगर देखा ये गया कि स्त्री की अर्जित सम्पत्ति या वेतन पर या तो माता-पिता का क़ब्ज़ा होता है या पति या ससुराल का। अपने मन से वह जब भी ख़र्च करती है तो एक अपराध-बोध अपने मन में रहता है कि कहीं इसका जवाब देना है।”7 लेकिन इसके बावजूद संतोष इस बात का है कि वह शोषण के ख़िलाफ़ भी आवाज़ उठाती है। अपनी बात को मज़बूती से रखती है। यह उसके सक्षम और परिपक्व होने का प्रमाण है। शिक्षित और आर्थिक स्वावलम्बी स्त्री का अटल सत्य यह भी है कि वह प्रतिकार अवश्य करेगी। आर्थिक स्वायत्तता उसे काफ़ी हद तक अपने बारे में सोचने का स्पेस देगी। कामकाजी स्त्रियाँ अपना आत्मसम्मान निर्मित करना जानती हैं। वे अपनी अस्मिता और स्वाभिमान को लेकर चैतन्य हैं।
वास्तव में स्त्री-सशक्तिकरण का उद्देश्य ही यही है कि स्त्री एक मनुष्य की तरह समाज में जीवन-यापन कर सके। उसकी योग्यता और क्षमता को केवल स्त्री होने के नाते विश्लेषित न किया जाए। स्त्री पुरुष के जैविक अन्तर को परिभाषित करने का अधिकार केवल पुरुषों का नहीं है बल्कि स्त्री-पुरुष का स्वस्थ सम्बन्ध ही स्त्री को उचित सम्मान दिला सकता है। घर-परिवार में स्त्री की भूमिका केवल उत्तरदायित्तवों से भरी न हो बल्कि उसमें वैचारिकता तथा बौद्धिकता का भी समावेश हो। परिवार के सभी निर्णयों में उसकी बराबर भागीदारी का अवसर हो। इसके लिए किसी शिक्षा नीति की आवश्यकता नहीं है बल्कि एक स्वस्थ मानसिकता की आवश्यकता है। यदि स्त्री शिक्षित और आर्थिक स्वावलम्बी होगी तो इसका लाभ परिवार और समाज को ही मिलेगा। बदलाव केवल वैचारिक धरातल पर लाना है और उसे व्यवहारिक जामा पहनाना है।
डॉ. दर्शना धवल
एसोसिएट प्रोफ़ेसर
लेडी श्रीराम कॉलेज
लाजपत नगर
नई दिल्ली
संदर्भ-गृंथ सूची:
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स्त्री देह की राजनीति से देश की राजनीति ततक, मृणाल पाण्डे पृ. 116-117, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा. लि., दिल्ली।
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वही, पृ.-119
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स्त्री विमर्श, क़लम और कुदाल के बहाने, रमणिका गुप्ता, पृ.-15, शिल्पायन, दिल्ली।
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आज़ाद औरत कितनी आज़ाद, स. शैलेन्द्र सागर, रजनी गुप्ता, पृ.-61, सामयिक प्रकाशन, दरियागंज, दिल्ली।
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वही, पृ.-63
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स्त्री-विमर्श, डॉ. विनय कुमार पाठक, पृ.-78, भावना प्रकाशन, दिल्ली।
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आज़ाद औरत कितनी आज़ाद, पृ.-168
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