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स्त्री को उसकी संपूर्णता में तलाश करतीं कविताएँ

समीक्षित कृति: नाच रही है पृथ्वी (कविता-संग्रह) 
कवयित्री: अंजना वर्मा
प्रकाशक: श्री साहित्य प्रकाशन, शाहदरा, दिल्ली, 
पृष्ठ:145, 
मूल्य: ₹350/-


कविता महज़ भावोद्गार नहीं, बल्कि एक गहन सामाजिक उत्तरदायित्व है। एक रचनाकार जब रचना की ओर प्रवृत्त होता है तब अनुभवों की एक मोटी गठरी उसके साथ होती है। यही गठरी उसके लेखन को सहृदयों के हृदय में स्थान दिलाती है। वरिष्ठ रचनाकार अंजना वर्मा वर्तमान समय की एक महत्त्वपूर्ण कवयित्री हैं। ‘नाच रही है पृथ्वी’ उनकी स्त्री केंद्रित कविताओं का एक महत्त्वपूर्ण संग्रह है। पृथ्वी नाच रही है इस बिम्ब को आधार बनाकर कवयित्री ने स्त्री जीवन के संभवतः सभी रूपों और आयामों पर प्रकाश डाला है। यहाँ स्त्री के चिरपरिचित और अपरिचित, पुरातन और नूतन-सभी रूप द्रष्टव्य हैं। 

अंजना वर्मा एक सजग कवयित्री हैं। स्त्री को देखते हुए और स्त्री-जीवन को जीते हुए उन्होंने पाया:

“स्त्री कई सूतों वाली
एक रेशमी डोर है
जो बुनती है रचती है
सँभालती है रिश्तों की दुनिया
सबकी दुनिया ही उसकी दुनिया है
उसकी दुनिया में सब हैं
सब में वह है
उसमें सब हैं”

स्त्री की इससे सुंदर व्याख्या नहीं हो सकती। स्त्री बुनती, रचती और सँभालती है। इसीलिए स्त्री के बिना सब कुछ बेमायने है। स्त्री को परखते हुए कवयित्री उसमें पृथ्वी के समानधर्मी गुणों को लक्षित करती है:

“ओ पृथ्वी! 
तुम नाच रही हो लगातार
और तुम्हारे साथ-साथ
कई और पृथ्वियाँ भी
नाच रही हैं अथक
तुम्हारी ही तरह 
क्योंकि नाचना 
सहज स्वभाव है उनका”

नाचने के बिम्ब को सृजित कर कवयित्री ने स्त्री के धैर्य, सहनशीलता और अनथक कर्मरत जीवन को उसका स्वभाव बताते हुए स्त्री के चरित्र की विराटता को ज़ाहिर किया है। पृथ्वी घूमती है पर यहाँ पृथ्वी नाच रही है। नाचना इसलिए क्योंकि स्त्री अपनी पारंपरिक पहचान से मुक्त हो रही है। उसके कर्म का दायरा बढ़ गया है। उसकी ज़िम्मेदारियाँ कई गुना बढ़ गई हैं। वह अपनी अस्मिता को लेकर सचेत है तो अपनी ज़िम्मेदारियों को लेकर सजग भी है। नाचना आनंद का सूचक है तो हमारी संस्कृति की पहचान भी। स्त्री आनंदमग्न अपने दायित्व का निर्वाह करते हुए अपनी नई अस्मिता, नए अस्तित्व को गढ़ रही है। कवयित्री लिखती है: “जिस दिन स्त्री नाचना बंद कर देगी/उसी दिन बंद हो जाएगा/ओ पृथ्वी! /तुम्हारा भी नृत्य/और तुम्हारी दुनिया की धड़कन/ रुक जाएगी“

‘नाच रही है पृथ्वी’ कविता-संग्रह की ग़ौर करने वाली बात यह है कि इसमें स्त्री के उस रूप और भूमिका पर भी प्रकाश डाला गया है जो अब तक अनछुआ है। कोरोना काल के भयावह समय में स्त्री सफ़ाईकर्मी की कर्म-प्रतिबद्धता देखकर उसे वीरांगना संबोधित करते हुए कवयित्री जिस बारीक़ी से उसकी भूमिका को ‘दूसरे लोक की औरतें’ कहकर रेखांकित करती है, वह प्रभावशाली है:

“चाहे कोई निकले न निकले
परन्तु उनके लिए
युद्ध अवश्यंभावी बन गया है
घर से बाहर उन्हें जाना ही है 
समर भूमि निर्जन है
 दुश्मन अदृश्य है 
परन्तु युद्ध जारी है”

इस संग्रह की कविता ‘व्यथा-द्वीप’ का ज़िक्र करना ज़रूरी है। स्त्री की संवेदना उसकी उदासी और व्यथा को ज़ाहिर कई रचनाकारों ने किया है, पर सवाल यह है कि क्या यह काफ़ी है? क्या सचमुच स्त्री अपनी व्यथा से मुक्त हो पाई है? आकाश की चिड़िया भले ही उन्मुक्त उड़ान भर रही हो, परन्तु विकसित समाज में अभी भी धरती की चिड़िया क़ैद है। 

अंजना वर्मा के शब्दों में:

“इस खुले आकाश के नीचे
व्यथा-द्वीप भी है
जहाँ औरतें अभी भी क़ैद हैं”

इस संग्रह की कई कविताओं में पौराणिक और ऐतिहासिक स्त्रियों के संदर्भ में स्त्री अवमानना और शोषण का जो पारंपरिक और नवीन महाख्यान अनावृत्त किया गया है, वह मस्तिष्क के नसों को झकझोरता है। आम्रपाली के संदर्भ में कवयित्री का कहना है: 

“वह गणतंत्र दोषी है
जहाँ इस तरह कुचले जाते हैं
एक बाला के स्वप्न
महान लिच्छिवी गणराज्य में तुम
केवल दैहिक कामना-पूर्ति का साधन थी
यह सर्वश्रेष्ठ सुंदरी होने का
पुरस्कार था या अभिशाप?” 

कुल 63 कविताओं से सुसज्जित इस कविता-संग्रह में स्त्री-जीवन के तमाम पहलू दृष्टिगत हैं, जो इस संग्रह को पठनीय और संग्रणीय बनाते हैं। स्त्री के पारंपरिक और आधुनिक दोनों रूपों से यहाँ परिचित हुआ जा सकता है। कुल मिलाकर स्त्री-जीवन और उसके विविध अनुभवों की प्रामाणिक अनुभूतियों से लबरेज़ यह संग्रह हमारी संवेदना को उद्बुद्ध करने में पूर्णरूपेण समर्थ है। स्त्री-विमर्श के इस दौर में यह संग्रह अपनी सशक्त भूमिका निभाएगा। 

डॉ. शशि शर्मा, गौर अबेसन, रवींद्रपल्ली 
माटीगारा-734 010

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