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सूर्यधर्मा: एक अकेला पहिया

 

पुस्तक: एक अकेला पहिया (नवगीत-संग्रह), 
ISBN: 978-93553-693-90, 
कवि: अवनीश सिंह चौहान
प्रकाशक: प्रकाश बुक डिपो, बरेली, फोन :  0581-3560114
प्रकाशन वर्ष: 2024, 
संस्करण: प्रथम (पेपरबैक), 
पृष्ठ: 112, 
मूल्य: ₹250/-

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साहित्य-जगत में डॉ. अवनीश सिंह चौहान एक प्रतिष्ठित नवगीतकार हैं। वे हिन्दी और अंग्रेज़ी भाषाओं के प्रख्यात लेखक और इन दोनों भाषाओं की आभासी दुनिया और प्रिंट मीडिया के जागरूक संपादक हैं। यहाँ यह भी बताना चाहूँगा कि वे आभासी दुनिया में नवगीत की स्थापना करने वाले उन्नायकों में अग्रपांत रहे हैं। यद्यपि आपका नवगीतीय अवदान बहुत अधिक नहीं है, किन्तु जो है उसकी सुगंध देश की सीमाओं से बाहर निकलकर वैश्विक हो गई है— विश्व स्तर पर आपके हिन्दी और अंग्रेज़ी भाषी पाठकों की संख्या लाखों में है। 

2013 में आपका पहला नवगीत संग्रह— ‘टुकड़ा काग़ज़ का’ विश्व पुस्तक प्रकाशन (नई दिल्ली) से प्रकाशित हुआ, जो देखते ही देखते साहित्य जगत में चर्चा के केंद्र में आ गया। फिर दूसरा और तीसरा संस्करण 2014 व 2024 में बोधि प्रकाशन (जयपुर) से प्रकाशित हुआ। ‘टुकड़ा काग़ज़ का’ का नवगीतकार स्वभावतः लघुता में विराटता को देखता है। उसका यह देखना एक व्यापक अनुभव संसार को दर्शाता है। उसके नवगीतों में अति सामान्य चीज़ें असामान्य बनकर विराट बिम्ब का सृजन करती हैं— ‘टुकड़ा काग़ज़ का’, ‘देवी धरती की’, ‘गली की धूल’, ‘बच्चा सीख रहा’, ‘एक आदिम नाच’ या ‘एक तिनका हम’ आदि नवगीत अद्भुत हैं। ‘एक तिनका हम’ में तिनके का उत्सर्ग भाव जिस रूप में मानवता का उदाहरण बना, वह उल्लेखनीय है—

साध थी उठ राह से
हम जुड़ें परिवार से
आज रोटी सेंक श्रम की
ज़िन्दगी कर दी हवन।
(‘टुकड़ा काग़ज़ का’: 106) 

न्यूनाधिक रूप से ‘एक अकेला पहिया’ में अवनीश जी का स्वर पहले जैसा ही है। उनके नवगीतों की ज़मीन जन-सांस्कृतिक है और शब्द-बिम्बों में भारतीय आत्मा के दर्शन होते हैं। आपकी भाषा शैली में सहजता है, किन्तु उसमें चुंबकीय गुण का होना उल्लेखनीय है। आपके विचारों में ‘मन’ अनेक तरह से परिभाषित हुआ है। मन को सुंदर बनाने में एक पौधे की कल्पना मार्मिक है, अद्भुत है, देखिए—

छू न कुसंगत सके पौध को 
काट-छाँट करना होता है 
ग़ुस्सा होता, बक-झक करता, 
पीड़ा होने पर रोता है 

ठंडा हो फिर 
देखे मुझको 
जैसे माता नज़र उतारे।
(‘एक अकेला पहिया’: 29) 

कवि के रचना विधान से गुज़रते हैं तो समकालीन नवगीत का नज़ारा भी साथ चलता है। प्रासंगिक है कि इस नज़ारे पर थोड़ी बात की जाए। देखने में आजकल आ रहा है कि नवगीत के भाव-संप्रेषण में भाषा का खुरदरापन बढ़ा है। कई कारण हैं। पहला कारण तो यही है कि समकालीन नवगीत की प्रवृत्तियाँ जीवन के विविध आभासों और आयामों में फैलती गई हैं। यहाँ तक तो ठीक था, किन्तु इस फैलाव में वैचारिक सोद्देश्यता भंग होती गई और कहन अर्थात्‌ भाषा शैली भावनात्मक भंगिमायुक्त न रहकर ठेठ और सूचनात्मक होती गई। नवीनता की बात की जाए तो नए शब्दों की चमक तो दिखती है, किन्तु वह बहुधा नवगीतीय मिज़ाज की चिंता से अपेक्षाकृत मेल नहीं खाती। कथ्य और लय का पहले से कुछ ज़्यादा ही सामान्यीकरण हुआ है। एक बात और। कथित ‘क्लासिकल टाइप’ रचनाओं पर सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाए तो अंतर्वस्तु जैसी चीज़ गौण होती गई है, उसको पकड़ने में कभी-कभी पाठकों का परिश्रम भी निष्फल चला जाता है। 

उपरिकथित परिदृश्य को ध्यान में रखकर कहना चाहूँगा— नवगीत में शब्दों का यथेष्ट प्रबंधन ही काफ़ी नहीं होता, उसमें उसकी सोद्देश्यता स्पष्ट रूप से झलकनी चाहिए, साथ ही भावनात्मक घनत्व और कथ्यगत कौशल्य (वही कहन भंगिमा आदि का अपेक्षित संतुलन) भी लड़खड़ाना नहीं चाहिए। यहाँ यह भी कहना उचित होगा कि सारे कुँओं में भाँग नहीं पड़ी है। नवगीत के ध्वजारोहियों की कमी नहीं है। आईना ही देखना हो तो प्रख्यात कवि जय चक्रवर्ती का नवगीत-कर्म पर्याप्त है। वे अपने नवगीतों में कहन और उसकी सोद्देश्यता को लेकर सजग रहते हैं— “धूर्त, छली, कपटी बतलाते/ ख़ुद को ईश्वर/ बिना किए कुछ बैठे हैं/ श्रम की छाती पर/ बचा नहीं है अंतर/ अब साधू में, ठग में/ आओ पुनः कबीर पुनः/ आओ इस जग में” (‘जिंदा हैं अभी संभावनाएँ’: 2022)। 

उपर्युक्त विचारों के बरअक्स ‘एक अकेला पहिया’ के नवगीतों से गुज़रता हूँ तो किसी सीमा तक नतीजे संतोषप्रद लगते हैं। अवनीश जी की कहन भंगिमाओं में मानवता की पुख़्ता ज़मीन दिखाई देती है, किन्तु उस पर उग आए विरोधाभासी कैक्टसों के विरुद्ध उनकी आवाज़ भी दर्ज है। अधिकांश नवगीतों का स्वर व्यंग्यात्मक है, जिसके पीछे लक्ष्यार्थ झलकता है। संगृहीत रचनाओं से देश-समाज का कोई भी परिदृश्य छूटा नहीं है। वहाँ शैक्षिक जगत, आभासी दुनिया, राजनीतिक व्यवस्था, स्त्री-विमर्श और प्रेम-प्रकृति आदि के विसंगत व्यापार हैं, जिसको कवि ने खुली आँखों से देखा है। ये नवगीत अंधकार को चीरते हैं और प्रकाश में कुछ अप्रस्तुत दिखलाते हैं। आपका एक नवगीत है— ‘अंगुली के बल’— दुनिया का सारा इतिहास, सारे बही-खाते आदि सब इंटरनेट पर आ गए हैं। बस ‘की बोर्ड’ पर अंगुली चलाने की देर है। लेकिन अवनीश जी यह भी कहते हैं— “बातों से बातें निकलीं/ हल कोई कब निकला है” ('एक अकेला पहिया’: 47) और व्यस्तता इतनी कि “इंतजार करते-करते ही/ हार गयी मृगनैनी” (48)। 

शब्द इतना सस्ता पहले नहीं था। शब्द के सस्ता होने से व्यक्ति अब संवेदनहीन भी हुआ है। शब्द सूचना मात्र रह गया है। पठन-पाठन ‘तोता रटंत’ हो गया। जाप (कर्म) को सिद्ध करने वाला अब वह मन नहीं है। लगन, निष्ठा और पवित्रता का अभाव है। ‘संशय है’ नवगीत में कवि कहता है— 

शोधों की गति घूम रही 
चक्कर पर चक्कर 
अंधा पुरस्कार 
मर-मिटता है शोहरत पर 

संशय है 
ये साधक 
सिद्ध करेंगे जाप।
(‘एक अकेला पहिया’: 46) 

अवनीश जी के नवगीतों में अन्विति की प्रधानता है, किन्तु वह भाषा की कई प्रकार की बुनावट से प्रभावित हुई है। अधिकांश नवगीत विषय केंद्रित हैं जिनमें संवादात्मक तथा कथात्मक शैली के प्रयोग हुए हैं। इन प्रयोगों के साथ नामों के उल्लेख आदि अंतर्वस्तु को अधिकाधिक संप्रेष्य बनाते हैं— ‘मन का पौधा’, ‘एक अकेला पहिया’, ‘ये बंजारे’, ‘कहाँ जाय गौरैया’, ‘विज्ञापन’, ‘लालटेन’, ‘बॉस’ और शिक्षा, कंप्यूटर, प्रकृति, राजनीति, प्रेम, अध्यात्म आदि विषयों को लेकर भाव-वस्तु की मार्मिक व्यंजना हुई है। यद्यपि ऐसे प्रयोग समय के साथ एक अलग ध्वनि लेकर आए हैं, किन्तु हमें ऐसे प्रयोगों के जनक महाप्राण निराला को नहीं भूलना चाहिए। 

असल में हमारी व्यवस्थाओं और परंपराओं में पतनोन्मुखता और दैन्यता आदि की जड़ें बहुत पहले से गहरी धँसी हुई हैं जिन्हें केवल ब्रिटिश हुकूमत की आलोचना करके दबाया नहीं जा सकता है। भारत की संस्कृति और उसका वैभव (ऐश्वर्य) तो एक दीप-ज्योति की भाँति है, लेकिन उसके तलीय अंधकार पर कहीं आलोचना का प्रकाश दिखाई नहीं देता। शायद भारतेंदु को आधुनिक युग का प्रणेता इसीलिए कहा गया, क्योंकि वहाँ भारत अपने अंधकार के विरुद्ध जागता है। 

छायावाद में प्रारंभ से ही निराला की कविताओं में जनोन्मुखता, दैन्यता और जागरण का स्वर स्पष्ट है। उस काल की— ‘जूही की कली’, ‘विधवा’, ‘भिक्षुक’, ‘दिल्ली’, ‘जागो फिर एक बार’, ‘सखि, बसंत आया’ और ‘वह तोड़ती पत्थर’ आदि कविताओं का स्वर्णिम इतिहास है। कहना चाहूँगा—तत्कालीन सामंतसाहों-जमींदारों आदि के वर्चस्व में जिन कुरीतियों और जिस दैन्य समाज का स्थापन होता गया, वह सब निराला की दृष्टि में था। हिंदी कविता में निराला पहले कवि हैं जिनके काव्य-रूपों की शिल्प-शैली में नवजागरण की व्याप्ति है। जागरण-चेतना संप्रेष्य हो, शायद इसीलिए उन्होंने अपने गीतों में कथात्मक और संवाद शैली के साथ नामों के प्रयोग भी किए। निराला का एक गीत है— ‘कॉलेज का बचुआ’, जिसमें तत्कालीन शैक्षिक विसंगतियों पर व्यंग्य है— “जब से एफ़। ए। फ़ेल हुआ/ हमारा कॉलेज का बचुआ॥वाल्मीकि को बाबा मानै #। नाना व्यासदेव को जानै/ चाचा महिषासुर को, दुर्गा-/जी को सगी बुआ॥हिन्दी का लिक्खाड़ बड़ा वह/ जब देखो तब अड़ा पड़ा वह/ छायावाद, रहस्यवाद के/ भावों का बटुआ॥धीरे-धीरे रगड़-रगड़ कर/ श्रीगणेश से झगड़-झगड़ कर/ नत्थाराम बन गया है अब/ पहले का नथुआ” ('निराला रचनावली': रचनाकाल 1928)। 

कहना चाहता हूँ— आज उत्तर आधुनिकतावादी साइबर-संचार के दौर में भी हमारी ज़मीनी समस्याओं में कोई सकारात्मक बदलाव नहीं आया है। देखा जाए तो संवेदनात्मक स्तर पर अवनीश की चिंताएँ, आज जो प्रासंगिक हैं, कभी निराला की चिंताएँ थीं। संग्रह के कतिपय गीत जैसे— ‘वे व्यापारी निकले’, ‘संशय है’, “. . . गुर हथियाने में’, ‘कविवर बड़े नवाब’ आदि के व्यंग्य आज के शैक्षिक जगत की पोल खोल देते हैं—

भैया जी की कविताएँ हैं 
नहीं ओढ़नी, नहीं बिछौना 
शब्द बहुत पर कथा न कोई 
कौन छुए अब दिल का कोना
 
साँसें फूल गईं मथ-मथ कर 
निकली नहीं चिरैया जी।
(‘एक अकेला पहिया’: 53) 

या—

दो कौड़ी का लेखन फिर भी 
कविवर बड़े नवाब 

अक्षर-अक्षर जोड़-गाँठ कर 
कविता करता यार 
अर्थ न ढूँढ़े मिलता, पाठक— 
कहते हैं बेकार 

क़ैद मिली सुंदर शब्दों को 
कवि की छपी किताब।
(‘एक अकेला पहिया’: 59) 

संग्रह में कुछ ऐसे नवगीत हैं जो स्त्री-विमर्श को नया मुद्दा देते हैं। दूसरी तरफ़ राजनीतिक विडंबनाओ पर गीतकार की दृष्टि तर्कसंगत लगती है। समाज के मंच पर नारी शक्ति का कितना ही वंदन-अभिनंदन हो, जब तक नेपथ्य से उसकी चीख सुनाई देती रहेगी, तब तक सब केवल दिखावा मात्र है। असल में समाज स्वयं नहीं जानता कि वह उत्तरआधुनिक व्यक्तिवाद और उससे उत्पन्न अजनबीपन से अब पहले से ज़्यादा असंगठित हो चुका है। किसी भी वर्ग का, कोई भी व्यक्ति हो, वह भूमंडलीय (बाजारवाद) प्रतिस्पर्धा में दौड़ते हुए यदि अलग-थलग पड़ गया (जिसकी सम्भावना शत-प्रतिशत रहती है), तो पीछे मुड़कर कोई देखने वाला नहीं है। ऐसे असंगठित समाज में स्त्री-विमर्श जैसे वाद भी किताबी होकर रह गए। कृति का शीर्षक नवगीत— ‘एक अकेला पहिया’ अकेली पड़ गई उस युवा स्त्री के स्वाभिमान और संघर्ष की शौर्य-कथा है जिसको उसी असंगठित समाज के ताक़तवरों द्वारा तथा व्यवस्थाओं के छल और अपनों के छल द्वारा छला गया है। नतीजतन स्त्री ‘एक अकेला पहिया’ होकर रह गई। अवनीश जी इन स्थितियों में गंभीर होते हुए इस अति संवेदनशील मुद्दे पर सोचने के लिए विवश करते हैं—
चलने को चलना पड़ता, पर— 

तनहा चला नहीं जाता 
एक अकेले पहिए को तो 
गाड़ी कहा नहीं जाता।
(‘एक अकेला पहिया’: 37) 

'न्यूड मॉडलिंग’ सामाजिक व्यवसाय हो गया है। इस धंधे में समाज की ही भूमिका है, किन्तु फिर क्यों इसमें प्रवृत्त स्त्री, समाज द्वारा ही बहिष्कृत-सी हो जाती है। इस गीत में कई अंतर्कथाएँ साँसें ले रही हैं, जिनके विस्तार में यहाँ नहीं जाना है। हमारे देश में स्वाभिमान शब्द जितना नैतिक है, उतना ही मनोवैज्ञानिक। गीत की अंतिम पंक्तियों में कई तरह का श्लेष आ गया है— “मुकर गया था तट पर नाविक/ बहती रही उफन कर नदिया” (38)।” ग़ौरतलब ध्वनि यह भी है कि नाविक के मुकर जाने से नदी का उफनना बंद नहीं हो जाता। यह उफनना नदी (स्त्री) का स्वाभिमान है। व्यंजना यह भी है कि यह एक अकेला पहिया असहाय नहीं, स्वावलंबी है। यह सूर्याधर्मा है। और पुरुषार्थ की उँगली पर आ जाए तो सुदर्शन चक्र भी है। 

दूसरी तरफ़ कवि की दृष्टि अभिजात वर्ग के बच्चों पर भी है। इन बच्चों को मातृत्व नसीब नहीं, क्योंकि अभिभावक पैसों के पीछे भाग रहे हैं और नौकरानियों के हवाले बच्चे संस्कारविहीन हो रहे हैं—

बच्चे किए हवाले— आया, 
क्या सच्ची, क्या खोटी 
कभी खिलाती, कभी झिड़कती, 
कभी दिखाती सोटी 

माँ बिन बच्चे की बेकदरी 
अभिभावक अनजान।
(‘एक अकेला पहिया’: 39) 

‘एक अकेला पहिया'— एक ध्रुवीय व्यवस्था की ओर भी संकेत करता है। इस व्यवस्था के बरअक्स कवि की कुछ आशंकाएँ हैं, जो कुछ नवगीतों में प्रकट हुई हैं— ‘कुछ शुभम कहो . . . ‘, ‘कब तक? ‘, ‘अखिल देश बस कहने का’ आदि से गुज़रते हुए कहना पड़ता है कि एक तो ग़रीब का भूखा पेट, दूसरे उसके सिर पर है राष्ट्र का गौरव। व्यवस्था का यह सेतु कितना हास्यास्पद है, कितना कमज़ोर है, यह सोचने वाली बात है। कहना चाहूँगा— जिस जनता से राष्ट्र परिभाषित हो रहा हो उस अखण्ड जनता को जाति जैसे अप्रासंगिक शब्दों में उलझाए रखना, उसको एकजुट न होने देना, आज के समय में क्या अनैतिक नहीं है? राष्ट्र एक जाति है, यह केवल भावनात्मक सच नहीं। यह एक सच्चाई है, जिसका अर्थ है— भारतवासियों को अपनी सोच को बदलना होगा। आज देश का स्वागत समय के क्रूर थपेड़ों से हो रहा है। इस विषय पर कवि भावुक है। उसकी पीड़ा एक अकाट्य सत्य प्रस्तुत करती है—

जंग-भूमि क्यों भारत धरती 
राष्ट्र-भाव क्या नहीं समझती 
सदी न उबरी जाति-युद्ध से 
अखिल देश बस कहने का।
(‘एक अकेला पहिया’: 58) 

अब थोड़ी बात संग्रह के प्रेम-सौंदर्य-मूलक गीतों पर। यह जो प्रेम-सौंदर्य है, भारतीय संस्कृति का मौलिक तत्त्व है। वह प्रेम विज्ञान ही तो है जो रूप (सृष्टि) में तत्त्व (आत्मा-परमात्मा) का अन्वेषक है। वह जीवन की जातीय-भूमि है। 

विचार करें तो सामाजिक भूमिका में गृहस्थ, साधु-संत, ज्ञानी, विज्ञानी, कवि-लेखक, चित्रकार, मूर्तिकार, किसान, श्रमकार आदि सभी प्रेममार्गी हैं। रास्ते अलग-अलग हो सकते हैं, जीवन-लक्ष्य सभी का एक है। अतः जीवन-प्रेम और प्रेम-जीवन दोनों एक ही बात हैं। आद्योपरांत हम साहित्य-संसार जो सृजित करते आ रहे हैं, वह सब प्रेम की सौंदर्यमूलक अवधारणा का रूप-प्रतिरूप है। प्रेम-ऊर्जा की परिधि व्यापक है। परिधि से केंद्र के निकट होते जाने का अर्थ है— वस्तुगत से आत्मगत होते जाना। साहित्य (गीत-नवगीत) प्रेम-भूमिका के बिना विकलांग है। 

अवनीश जी के नवगीतों में प्रेम-यात्रा के विविध रंग हैं। सच तो यह है— आप के नवगीतों की ज़मीन ही प्रेमाध्यात्म है। वे कहते हैं— प्रेम कितना ही सुविधावादी क्यों न हो, किन्तु जीवन की परिपूर्णता में आँसू की भी भूमिका है। इस भाव को सुविधावादी आसन से उतरकर ही आत्मसात किया जा सकता है— 

अर्थ समझना होगा इक दिन 
आँसू की भी भाषा का 
कला वही जो बोध करा दे 
जीवन की परिभाषा का

फिर यदि घाव मिले तो मरहम 
बन जाता विश्वास है।
(‘एक अकेला पहिया’: 102) 

संगृहीत प्रेमानुभूतियाँ नैसर्गिक हैं जो वसंत आगमन से प्रारंभ होती हैं— “कानों को कोयलिया—/ के स्वर पड़े सुनाई/ महक उठी अमराई” ('एक अकेला पहिया': 91)। किन्तु जैसे-जैसे मन प्रेमानुरागी होता जाता है उसका अनुबंध आकुल-व्याकुल होता है। कवि-मन की प्रीति, प्रिय को पाने के लिए नाना उपाय करती है। कभी भ्रमर बन गुनगुनाती है, कभी कोयल बन कर गीत गाती है, तो कभी मोर बन कर नृत्य करने लगती है। कहने का आशय यह कि— 

भटक-भटक कर जान रहे हम 
क्या होते हैं ढाई आखर।
(‘एक अकेला पहिया’: 98) 

मिलन अति निकट हो तो कभी-कभी प्रीति भय का रूप ले लेती है। प्रेमी को तरह-तरह के भयावह चित्र डराने लगते हैं— 

गूँगा दिवस, 
रात अँधियारी 
चित्र भयावह दिख-दिख जाए।
(‘एक अकेला पहिया’: 96) 

ढाई आखर को गुनते-गुनते कवि का मन दार्शनिक भाव में बहकर प्रेम का व्याख्याता जैसा दिखने लगता है— 

जो चलते हैं प्रेम-पन्थ पर 
अगम डगर भी अगम न लगती 
विरह-अगन की पगडण्डी भी 
विमल हृदय को शीतल करती।
(‘एक अकेला पहिया’: 99) 

संग्रह के अंत में कुछ गीतों में कवि का प्रेम-भाव, भक्ति-भाव में परिवर्तित हुआ है। कवि यहाँ एक समाज सुधारक जैसा दिखता है, यह दिखना मेरे विचार से प्रेम-तत्व और जीवन-राग का घुलमिल कर सामाजिक होना है। कवि अवनीश का व्यावहारिक और आचरणिक जीवन वृंदावन में सामान्य-जन की तरह नहीं दिखता। असल में आप का मन वहाँ की पारंपरिक जीवन-शैली में युगीन चेतना द्वारा आस्था-रूपी मूल्यों पर से जमी धूल को हटाना चाहता है— 
कर्म न त्यागो सच का, बिगड़े— 

काम सभी बन जाते हैं। (‘एक अकेला पहिया’: 107) 

और—

वर्तमान को रोज़ जगाती 
संतों की चेतन-वाणी 
वृंदावन नव वृंदावन है 
प्रेम-भाव की रजधानी।
(‘एक अकेला पहिया’: 109) 

अवनीशीय काव्य-भाषा के मिज़ाज पर जब ध्यान देता हूँ तब कई चिंतकों और मर्मज्ञों के सार-कथनों के संदर्भ स्मरण में आते हैं। सुप्रसिद्ध ललित-आलोचक और नवगीत-वाङ्मय के मर्मज्ञ डॉ. सुरेश गौतम ने एक जगह कहा है— “गीत, सभ्यता-संस्कृति के संरक्षण का एक क़दम हो सकता है, यह साहित्य-समाज को समझना है! क्योंकि गीत साहित्य की नाभि है।”

नवगीत-कस्तूरी का जिन रचनाकारों को आभास है उनमें एक नाम अवनीश सिंह चौहान का हो सकता है। मेरी दृष्टि में वे नवगीत के ‘गुलेरी’ हैं। अवनीश जी के कुछ नवगीतों में वह बात है। पुनः कहना चाहूँगा— आप का संपूर्ण नवगीत-चिंतन भारतीय संस्कृति की भूमि से उपजा है। आपके गीत शाश्वतता का बोध कराते हैं। नवगीत के इतिहासपुरुष डॉ मधुसूदन साहा ने अपनी संपादित पुस्तक— ‘शिखर के सात स्वर’ में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य की ओर संकेत किया है। वे कहते हैं— “सांस्कृतिक बोध के पुनरुत्थान के अभियान में नवगीत की विशिष्ट भूमिका रही है। लगभग पाँच दशकों से चली आ रही नवगीत यात्रा के चार चरणों के विकास क्रम में जातीय अस्मिता और संस्कृति-बोध की जितनी प्रखर अभिव्यक्ति हुई है, उतनी संभवतः कविता की अन्य किसी विधा में नहीं हुई है।”

साहा जी आगे कहते हैं— “एक अच्छा और सच्चा नवगीत हमेशा समाज-सुधारक एवं लोकमंगलकारी होता है, विद्रोही और विध्वंसक नहीं।” आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने स्पष्ट शब्दों में कहा है— “कविता में लोकरंजन की प्रतीति से ज़्यादा लोकमंगल की स्वीकृति को महत्त्वपूर्ण माना जाता है।” कबीर, तुलसी आदि महाकवियों की जनप्रियता सदियों बाद भी क्यों बरक़रार है, यह विचारणीय है। कहना होगा— समकालीन चिंतन की परंपरा में अवनीश जी नवजागृति के सर्जक हैं। वे भाषा को साधने में कथ्यगत नवीनताओं के अलावा सहज विन्यास के लिए हिन्दी शब्दों के साथ अंग्रेज़ी शब्दों— ‘ब्रेकिंग न्यूज़’, ‘पिच’, ‘चीटिंग’, ‘केमीकल’ ‘प्रोज़ेक्ट’, ‘पी.पी.टी. ‘ (पावर प्वाइंट प्रिजेंटेशन) आदि को जज़्ब कर लेते हैं। नए अर्थों के लिए वहुधा नए युगल शब्द— ‘समर्पण-भोर’ ('एक अकेला पहिया': 94), ‘जग-दर्पण’ (105) आदि प्रयोगों में लाए गए हैं। इन गीतों में कहीं-कहीं नवीन सूक्तियाँ सहज ही निर्मित हो गई हैं। ‘टेढ़ी चाल जमाने की’ (52), ‘समय बड़ा है चोर’ (93) या ‘प्यार जीवन-दर्शन है’ (101) जैसी सूक्तियाँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। उदाहरण के लिए ‘प्यार हो गया सुविधावादी’ गीत का दूसरा अंतरा दृष्टव्य है—

परिणय जैसे शब्द आजकल 
भीतर दहशत भरते हैं 
जबकि प्यार जीवन-दर्शन है 
सुख-दुख मिलकर रहते हैं
। (‘एक अकेला पहिया’: 101) 

इसमें प्रथम दो ध्रुव पंक्तियाँ अपने समय का एक सच हैं। लेकिन पूरक पंक्तियाँ सूक्तवत हैं। ‘परिणय’ के संदर्भ में ‘प्यार जीवन-दर्शन है’ का अर्थ अर्थातीत हो गया है। एक दूसरा गीत उठाता हूँ— ‘कठिन है भाई।’ इस गीत में कवि लघु-जन (साधारण-जन) का पक्षधर है, किन्तु वह उन विपन्न लोगों पर व्यंग्य भी करता है जो संपन्न लोगों की नक़ल करते हैं। कवि का कहना है— जब अंतर्मन सुंदर होगा, तभी तन भी सुंदर लगेगा। जीवन को ही साधना समझने वाले इस कवि का कहना है कि ऐसी साधना (प्रयत्न) करो, जिससे दिखावटीपन के विपरीत आचरणों में स्वाभाविक-सी सहजता आए, क्योंकि— 

जैसे हैं 
वैसा दिखना भी 
बहुत कठिन है भाई।
(‘एक अकेला पहिया’: 42) 

समकालीन सरोकारों को केंद्र में रखकर भाषा की सहज बुनावट में नवगीत-रचना, जिनकी अंतर्वस्तु की चमक सहज ही पकड़ में आ जाए, ऐसे नवगीतों को ‘सहज नवगीत’ की संज्ञा से अभिहित किया जा सकता है। ‘एक अकेला पहिया’ के नवगीत इस तथ्य के वाजिब उदाहरण हैं। 

अंत में रसज्ञजनों को एक सूत्र से अवगत कराना चाहूँगा— जब तक नवगीत की अंतर्क्रिया के साथ मन क्रियाशील नहीं होगा, तब तक नवगीत सपाट ही लगेगा। इसलिए नवगीत के परिवेश से जुड़ो, तो एक कर्मयोगी की तरह जुड़ो। तभी शब्द-योग भी सार्थक होगा। विश्वास है, साहित्य जगत में इन सूर्यधर्मा नवगीतों का स्वागत होगा। 

लेखक से संपर्क :
वीरेन्द्र आस्तिक,
‘सौभाग्य श्री’, 105, प्रथम तल, एच.एस-19,
कृष्णापुरम, कानपुर—208007 (उ.प्र.)

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