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स्व से सर्व बनती कथाएँ: ‘अधूरा घर’ 

पुस्तक: अधूरा घर
लेखक: गोविंद सेन
प्रकाशक: बोधि प्रकाशन जयपुर
पृष्ठ: 112
मूल्य: ₹ 150 मात्र

कवि-कथाकार गोविंद सेन रेखांकन एवं चित्र भी अच्छे बनाते हैं। अब तक दस से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। यह ‘अधूरा घर’ तीसरा कथा संग्रह है। जाति, रिश्ते, समाज, धर्म आदि में फैले आडंबरों पर तीखी चोट और विभिन्न मानसिकताओं का खरा वर्णन करते हुए बहुत प्रभावी कथा बुनना उनकी विशेषता है। अपने आसपास घटित सच्ची घटनाओं का साकार चित्रण एवं तिरस्कार व चुभन को उकेरने में वे सफल हैं। वातावरण, व्यक्ति व भावों के चित्रण में गोविंद जी सिद्धहस्त हैं। 

पुस्तक की पहली कथा ‘अधूरा घर’ में पत्नी के बिना घर की अस्त-व्यस्तता का साकार चित्रण है। यह ठीक से सोने भी नहीं देती। एक कथन उल्लेखनीय है, “रात को बेतरतीब सपने नींद में ख़लल पैदा करते रहे। जैसा घर बेतरतीब, वैसे ही सपने भी बेतरतीब।” सच में घर के बहाने घर के घर (अंदर) की बात सहज ही बता दी है। वरिष्ठ-समझदार मित्र की सलाह व सीख से बड़ी समस्याएँ हल हो सकती हैं, ‘इडी’ कथा यही कहती है। युवती इडी के संघर्ष व साहस में भीली संस्कृति व रीति-रिवाज़ की सौंधी महक-झलक है। कथा में लोक भाषा का खुलकर प्रयोग सुन्दर व सार्थक बन गया है। 

सपने मानव के थाती हैं। इनके पूरे होने व अपने हाथों तोड़ने का वर्णन ‘तोतिया स्कूटर’ में भली-भाँति है। “स्कूटर के कारण उसकी ज़िन्दगी में थोड़ी सी हरियाली आ गई थी . . . वह उसका आत्मीय बन गया था या कहें कि उस तोते में उसके प्राण बस गए थे।” कथान्त में मन के टूटन की प्रस्तुति को अद्भुत शब्दों में व्यक्त किया है, “शिव के भीतर बाबूजी के लिए जो कोमल तंतु थे, वे जलकर राख हो चुके थे। सारी तितलियाँ निस्पंद हो गई थी। सारे फूल यकायक मुरझा गए थे। मन में उनके लिए क्रोध की झाल उठने लगी। उसे लग रहा था कि किसी ने उसकी खोपड़ी में सुतली बम रख दिया हो।”

दो कथाओं में शासकीय सेवा में रहकर भ्रष्टाचार को क़रीब से देखने और भोगने की अनुभूति के साथ उनका व्यंग्यकार भी ख़ूब अंगड़ाई लेता है। ‘काल्या का मेमो’‘में व्यंग्य की छटा देखिए, “वैसे भी कमल कीचड़ में पैदा होता है। कीचड़ तो गाँव से राजधानी तक फैला हुआ है। एक सनातन-शाश्वत क़िस्म का कीचड़।” 

“. . .स्कूल में दोनों ही मिलकर शिकार करते हैं। हर नए मुर्गे या बकरे को हलाल कर बोटियाँ आपस में बाँट लेते थे। चूँकि काल्या अधिक अनुभवी और शातिर था, इसलिए ज़्यादा बोटियाँ वही हथिया लेता था। इन दिनों मास्टर दयाराम उनके लिए नया मुर्गा था।”
भ्रष्टाचार की दूसरी कथा ‘भगोड़े’ में अनुपस्थित रहने की प्रवृत्ति पर अनोखी व्यंग्यात्मक टिप्पणी प्रशंसनीय है, “प्रिंसीपल लगातार तीन दिन तक स्कूल आए और पूरे समय ठहरे भी तो उससे स्पष्टीकरण माँगा जाना चाहिए। यदि कोई प्रिंसीपल एक हफ़्ते स्कूल आता है, तो उसे निलंबित किया जाना चाहिए और यदि पूरे महीने स्कूल आता है तो उसे निश्चित ही सेवा से पृथक किया जाना चाहिए।”

‘जालिम सिंह की बेटी’ में बाल-सुलभ कल्पना को सुंदर व मोहक शब्दों में व्यक्त किया है, “मैं यह कल्पना करता था कि हमारे हाथ इतने लंबे हो जाए कि वे सिंदोलों के गुच्छों तक पहुँच जाए और फिर सिंदोलों को तोड़ लेने के बाद भले ही छोटे हो जाए . . . यह सोचकर बहुत हँसी आती कि यदि बड़े होने के बाद हाथ छोटे न हुए तो क्या होगा? फिर तो हाथों को हमेशा उठाकर ही चलना पड़ेगा . . .।”

सब कुछ होते हुए भी ‘बेघर’ कथा में बूढ़ी माँ की व्यथा का भाव-भीना चित्रण है। कई घरों में ऐसी बूढ़ी माँ दिखाई दे सकती है। यह कहानी प्रेमचंद की ‘बूढ़ी काकी’ का स्मरण दिलाती लगती है। 

‘बड़ा होता सपना’ में राजनीति के चस्के की सटीक अभिव्यक्ति है। ‘खेवनहार’ में शराबी ड्राइवर के साथ यात्रा-वापसी का लोमहर्षक, भय और चिंता का वर्णन, पाठक को चिंता में डाल देता है, जो कथा की सार्थकता है। चाबी गुमने और चाबी वाले को ढूँढ़ने की कथा ‘चरण भाई चाबी वाला’ है। साधारण का असाधारण महत्त्व दर्शाता यह कथन, “. . . उसके फोन में अनगिनत फोन नंबर थे। पर उसका नहीं था। फ़ेसबुक पर उसके चार हज़ार से अधिक फ़्रेंड हैं, पर इस समय एक वही था जो उसके काम का आदमी था।” . . .सटीक है। 

‘दर्शन की अभिलाषा’ में नीच जाति की बुढ़िया की श्रद्धा के बहाने सामाजिक भेदभाव व धार्मिक आडंबर पर गहरी चिंता के साथ करारा प्रहार भी है। “. . . आश्रम के बाबा की इच्छा के बिना बूढ़ी माँ अंदर नहीं घुस सकती थी . . . पत्थर की चमचमाती तेजस्वी माता जी आश्रम के भीतर थी और जीवित माता अपनी फीके रंग के साथ आश्रम के बाहर। जीवित माता पत्थर की माता के दर्शन के लिए तड़प रही थी।”

‘गिद्ध की खीज’ में आज की सामाजिक व्यवस्था और व्यथा-कथा को जगत जीजा के माध्यम से धूर्तता और गिद्ध प्रवृत्ति का अच्छा चित्रण किया है। “. . . चार लड़के मिलकर भी माता-पिता को नहीं पाल पाते, भले ही श्रवण कुमार होने का ख़ूब दावा करते हो। लड़कियाँ ही अक़्सर बाप की सेवा करतीं हैं। लड़के तो सास-ससुर की सेवा में लीन हो जाते हैं।”

माता-पिता और भाई के रिश्ते वैसे तो बहुत नज़दीकी होते हैं, लेकिन वैचारिक भिन्नता व ग़रीबी के कंटक संयुक्त परिवार और रिश्तों को तार-तार कर जाते हैं। ऐसी कहानियों में भाई के बहाने हड़पू-प्रवृत्ति का चित्रण करने में ‘हड़पू’ कथा सफल है। इसकी ये पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं, “उसकी गिद्ध दृष्टि हमेशा मुफ़्त के माल पर लगी रहती . . . वह आसामी को गन्ने की तरह चूसता चला जाता . . .।” अंधश्रद्धा और अंधविश्वास को व्यक्त करती पंक्तियाँ देखिये “. . . अगरबत्ती घुमाते हुए व टेबल की दराज़ में भी उसका धुआँ घुसाने की कोशिश करता है। मानो उस धुँए के संपर्क में आने से दराज़ में पड़े पैसे दोगुने हो जाएँगे।”

संयुक्त परिवार में त्रसित बेटे की दृष्टि में पिता कितना तिरस्कृत व घटिया हो जाता है ‘धूप में पिता’ कथा में इसका वर्णन है। पितृ भक्तों को कथा अवश्य बुरी लग सकती है। लेकिन दूसरे पक्ष को बताने वाली यह साहसिक कथा है। कबीर, तुलसी, सुर, मीरा से पंत-महादेवी तक और ग़ालिब आदि के शेर-ग़ज़ल सुनाने वाले गहन साहित्यिक अभिरुचि के बस चालक द्वारा छोटे से सफ़र में दो कवियों को अचंभित और परास्त कर देने की बड़ी रोचक कथा है, ‘तुम्बी भर के लाना’। 

परिवेश अनुसार लोक भाषा (निमाड़ी व भीली) के शब्दों की प्रयुक्ति कथाओं को जन और मन के पास ले जाती है। कुछ शब्दों की बानगी देखिए: चुटबुट, अणात, टीचे, डचकणी, झींक, अलसट्टे, कोल्या आदि। आवश्यकतानुसार उर्दू-अंग्रेज़ी के शब्द भी प्रयुक्त हैं। लोक भाषा के मुहावरों व लोकोक्तियों का प्रयोग भी सटीक है, जैसे, ‘सादी से पयल माड़ी (माँ) को, नs बाद में लाड़ी को’। 

कुछ सुन्दर सूक्तियाँ भी निर्मित हुई हैं जैसे, “सुख के दरवाज़े पर दुःख हमेशा बाहर बैठा रहता है, मौक़ा पाते ही दुःख भीतर घुसकर सुख को दरवाज़े के बाहर धकेल देता है।”, “भूखे अजगर को अगर भूख के आगे भक्ष्य-अभक्ष्य का ख़्याल कहाँ रहता है, उसके तो जो भी अलसट्टे में आ जाए, वह उसी को दबोच लेता है।”, “जो कान के कच्चे होते हैं, उनके कान को लोग कूड़ादान बनाने से नहीं चूकते।”, “मेरे मन की रस्सी दोनों तरफ़ से लगी हुई थी एक तरफ़ दुःख था तो दूसरी तरफ़ घृणा और क्रोध।” दो-चार स्थान पर लघु-दीर्घ मात्रा के कारण अर्थ अस्पष्ट हो गया है, जैसे, “शरीर को उम्र से अधिक कुड़ापे ने सूखा /सुखा दिया” ‘(बेघर), “इसे पढ़ना-लिखना और ढंग से रहना सीखा/सिखा सकते हो” (इडी), “कार चलाना कैसे सिखा/सीखा” (खेवनहार), “छोटा/छोटे भाई पढ़-लिख कर सरकारी नौकरी में लग गए/गया थे/था”। इसी तरह मौलभाव/ मोलभाव, बुशर्ट/बुश्शर्ट, रख/राख त्रुटि पूर्ण टंकित है। मुखपृष्ठ पर चित्रकार बंसीलाल परमार की सूझबूझ झलकती है। 

संग्रह में ‘स्व’ से निकालकर ‘सर्व’ बन जाने में सक्षम कहानियाँ हैं। साहित्यिक पत्रिकाओं में गोविंद जी की कहानियों की ख़ूब चर्चा होती आयी है। पठनीय कथाओं का यह संग्रह भी निश्चित ही चर्चित होगा। 

प्रमोद त्रिवेदी ‘पुष्प’, 
132, केशव नगर, 
बड़वानी मार्ग, राजपुर, म.प्र. 
मोबाइल 9893421884

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