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स्‍वामी विवेकानंद जी का—सेवा दर्शन

12 जनवरी-स्‍वामी विवेकानंद जी जन्‍म जयंती पर विशेष लेख 

 

स्‍वामी विवेकानंद विश्‍व में भारतीय संस्कृति के गौरव को प्रतिष्‍ठा दिलाने वाले संतों में अग्रगण्‍य हैं। उनका जीवन धर्मज्ञान का जीवन स्‍वरूप है। वे अखंड ब्रह्मचारी, महान ज्ञानी, ओजस्‍वी वक्‍ता एवं पूर्ण संत थे। योग के अभ्‍यासी, वेदांत के ज्ञाता तथा ईश्‍वर के अन्‍नय भक्‍त थे। इन सबसे बढ़कर वे सेवा धर्म के मर्मज्ञ संत थे, जिनके उपदेश एवं आचरण में कहीं अंतर नहीं था। 

सेवा की भावना वास्‍तव में व्‍यक्‍त के स्‍वभाव में ओर संस्‍कारों के परिणामस्‍वरूप अंत:करण में होती हे। सेवा किसी पर थोपी नहीं जा सकती। निस्‍वार्थ भाव से जो किसी की भी सहायता करने को तत्‍पर हो जाता है, वही सेवा कर सकता है। सेवा का मूल है—संवेदनशीलता एवं सहानुभूति। दूसरों की परिस्थिति देखकर उनके द्वारा सहे जाने वाले कष्‍टों का चिंतन स्‍वयं को उस परिस्थिति में मानकर करना तथा उससे तादात्‍मय सम्बन्ध कर लेना ही सहानुभूति है। सहानुभूति कर्म रूप में परिणति ही सेवा है। 

स्‍वामी जी का जीवन सेवावृत्ति के अनेक उदाहरणों से परिपूर्ण है:

’नर सेवा—नारायण सेवा’ उनका आदर्श वाक्‍य है। हर मानव भगवान का ही स्‍वरूप है। स्‍वामी जी ने लिखा है, “भूलना नहीं कि अज्ञानी, दरिद्र, निम्‍न कही जाने वाली जातियों के लोग (मेहतर, चमार, महार आदि) सब तुम्‍हारे ही भाई हैं। उनमें भी तुम्‍हारे ही जैसा रक्‍त-मांस है। हे वीरो! साहस का अवलंबन करो। गर्व से कहो में हिंदू हूँ। प्रत्‍येक भारतीय मेरा सगा भाई हे। चिल्‍लाकर कहो कि प्रत्‍येक भारतवासी, चाहे वह अज्ञानी, दरिद्र हो, ब्राह्मण हो या चांडाल हो, सभी मेरे सहोदर हैं, मेरे प्राण हैं। हर परिस्थिति में, मैं इनकी सेवा के लिए तत्‍पर तथा संकल्पित हूँ।” 

स्‍वामी जी के ये शब्‍द उनके सेवा दर्शन को समझने के लिए सार्थक एवं स्‍पष्‍ट दिशा दर्शाते हैं। इन शब्‍दों में चाहे उन्होंने भारतवासी शब्‍द का प्रयोग उस समय के युवकों को प्रेरित करने के लिए किया था, परंतु वस्‍तुत: स्‍वामी जी अद्वैतवादी थे। वे प्राणी मात्र में प्रभु की उपस्थिति मानते थे। सभी को भगवान का स्‍वरूप मानकर उनकी करने को तैयार रहते थे। तभी तो अमेरिका, इग्‍लैंड आदि देशों में भी वे सेवार्थ गए। भारत उनकी मातृभूमि है। अपनी मातृभूमि की सेवा उनकी प्राथमिकता होना स्‍वाभाविक है। इस बात को उन्‍होनें एक अन्‍य लेख में स्‍पष्‍ट किया था, “हमारा उद्देश्‍य है, संसार का भला सोचना तथा करना, न कि अपने नाम का ढोल पीटना।” कारुण्‍यवश दूसरों की भलाई करना भी अच्‍छा है परंतु शिवत्‍व ज्ञान से मुक्‍त होकर जीवमात्र की सेवा उत्तम है। विज्ञापनबाज़ी से सावधान। यहाँ लालुपता से बचो। सदैव स्‍मरण रखो-शांत, मौन और धैर्यपूर्वक सेवा।” 

स्‍वामी जी ने भाषणों और लेखों में ही सेवा भावना का उल्‍लेख नहीं किया अपितु अपने इन विचारों को अपने जीवन में भी अपनाया। महामारी फैलने के समय उन्होंने स्‍वयं बस्तियों में जा जाकर जनसाधारण की सेवा की। छोटे से छोटे काम से कभी पीछे नहीं हटे। जो स्‍वयं आचरण में लाते हैं उनके उपदेश का भी आदेश के समान पालन किया है—जाओ, जाओ, सब लोग वहाँ जाओ, जहाँ प्‍लेग फैला है। जहाँ दुर्भिक्ष के काले बादल छाए हैं। जहाँ लोग कष्टों से पीड़ित हैं वहाँ जाकर उनका दु:ख हल्‍का करो। मरना तो सभी को है फिर एक उच्‍च आदर्श के लिए क्‍यों न मरो। सेवा करते हुए मर जाना, बीमार पड़े रहकर मर जाने से बेहतर है। 

युवकों को लक्ष्‍य करके ही प्राय: अपनी बात कहते थे और लिखते थे। एक जगह उन्होंने लिखा है, “युवको तुम्‍ही पर देश का भविष्‍य निर्भर है। तुम्‍हें अकर्मण्‍य जीवन बिताते देखकर मुझे मार्मिक पीड़ा होती है—उठो, उठकर काम पर लग जाओ। इधर-उधर मत देखो समय को मत खोओ। यह सोचकर निठल्‍ले मत बैठो की अपने आप सब कुछ हो जाएगा। भगवान भी जो करता है, हमारे हाथों से ही करवाता है।” 

स्‍वामी मानते हैं, “जो भगवान शिव की सेवा करना चाहते हैं वे शिव का भाव समझें शिव का अर्थ ही है कल्‍याण। पर कल्याण के लिए कार्य करना ही सेवा है। भक्‍त को पहले जीवों की सेवा करनी चाहिए। जो ईश्‍वर के सेवकों की सेवा करते हैं, वे भगवान के सच्‍चे सेवक हैं। हे नवयुवको! ग़रीबों, पीड़ितों तथा भूखों की सेवा का कर्त्तव्य मैं तुम्‍हें सौंपता हूँ जो गोकुल में दीन दरिद्र, अनपढ़ ग्‍वालों के सखा थे, जो चांडाल गुह को भी गले लगाने में नहीं हिचके, जिन्होंने शबरी के जूठे बेर प्रेमपूर्वक निस्‍संकोच खाए।” 

बुद्ध अवतार में अमीरों का निमंत्रण अस्‍वीकार करके एक वेश्या का न्यौता स्‍वीकार किया। जाओ तुम भी उसी परमात्‍मा के कार्यों का अनुसरण करो। उन पीड़ितों, दरिद्रों को हृदय से प्‍यार करो। उनकी आवश्‍यकता के अनुसार उनकी सेवा करो। जो नारायण को केवल मंदिर की मूर्तियों में ही देखता है उन पर भगवान प्रसन्‍न नहीं होते, भगवान उन पर अधिक कृपा बरसाते हैं, जो जाति, संप्रदाय को विचार किए बिना किसी दीन-दरिद्र की सेवा करते हैं। भगवान मानते हैं कि यह सेवक मेरा ही कार्य कर रहा है। 

स्‍वामी जी मानते हैं कि—“त्‍याग के बिना सेवा सम्भव नहीं। स्‍वार्थ भावना वाला व्‍यक्ति सेवा नहीं कर पाता। जो केवल अपने परिवार फ़िक्र अपने शरीर की चिंता में लीन रहता है। उसे समाज की दीन तथा दशा दिखाई ही नहीं देगी। अपनी और अपने परिवार की चिंता छोड़कर ही कोई सेवा कर सकता है। स्‍वार्थ से की गई सेवा तो सेवा ही नहीं है। नाम की इच्‍छा या प्रसिद्धि के लिए की गई सेवा ढोंग है।” 

स्‍वामी जी का विचार है कि सेवा भाव त्‍याग भाव से ही होती है। अत: सबसे प्रेम करो। सबकी सहायता करो। सब कुछ दे डालो। सेवा के बदले में कुछ पाने की इच्‍छा मत करो। 

स्‍वामी जी अनेक स्‍थानों पर सेवा का आदर्श महावीर हनुमान जी को बताते है। हनुमान जी ने अत्‍यंत विन्रम भाव से सेवा की। सेवा के बदले कभी पुरस्‍कार या सम्‍मान की अपेक्षा नहीं की। हर प्रकार की सेवा हनुमान जी ने की। 

गोस्‍वामी तुलसीदास जी का यह दोहा जीवमात्र की सेवा और भगवान की भक्ति का महत्‍व स्‍पष्‍ट करता है:

सो अनन्‍य जा के अस मति न टरह हनुमंत 
हाँ सेवक चराचर रूप स्‍वामि भगवंत॥

अर्थात्‌ अनन्‍य भक्ति नहीं है जो इस विचार पर भरोसा करते हैं। कि समस्‍त जड़ चेतना में भगवान का ही रूप दिखाई पड़ रहा है और मैं प्रभु का रूप मानकर ही सब जीवों की सेवा में लगा हुआ हूँ। 

इस प्रकार स्‍वामी जी सेवा-दर्शन जीव मात्र में परमात्‍मा का वास समझकर सेवा करने के लिए तत्‍पर रहने का विचार व्‍यक्‍त करता हूँ। 

आज देश के सभी युवकों को स्‍वामी विवेकानंद जी के सेवा दर्शन से प्रेरणा लेकर यह संकल्‍प लेना चाहिए कि हम सभी जीव मात्र की सेवा निःस्‍वार्थ भाव से करते रहेंगे। 
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