अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

ऊँची उड़ान का आमंत्रण देती वन्दना मिश्रा की कविताएँ

समीक्षित पुस्तक: बहुत कुछ शेष है अभी (काव्य संकलन)
कवयित्री: वन्दना मिश्र
प्रकाशक: आई सेक्ट पब्लिकेशन, भोपाल
पृष्ठ संख्या: 200
मूल्य: ₹300

आस्मितावादी विमर्शों के दौर में आज स्त्री-विमर्श का एक ज्वंलत विमर्श है। सत्ता संघर्ष में सायास अधिकार विहीन, स्मृतिविहीन और अभिव्यक्ति विहीन कर दी गई स्त्रियों ने जब मिले हुए सीमित अवसरों के बीच, अपनी निजताओं को पहचानते हुए कुछ लिखना पढ़ना या कहना शुरू किया प्रायः तब से स्त्री-विमर्श की शुरूआत मानी जा सकती है।

स्त्री लेखन की पहचान करते हुए विदुषी रचनाकार डॉ. वन्दना मिश्रा ने दो पद्धतियाँ अपनाई हैं। पहली समग्रतापरक और दूसरी व्यक्तिपरक या विशिष्टतापरक। इस दृष्टि से देखने पर बहुत कुछ शेष है अभी काव्य संग्रह में स्त्री-चेतना की एक मुकम्मल तस्वीर उभरती है। दरअसल डॉ. वन्दना मिश्रा जी के साहित्य में संघर्ष से जुड़ कर ही मुक्ति की चेतना आकार लेती है। वे उस विडंबना को पहचान रही थीं कि राष्ट्रीय मुक्ति में स्त्री-मुक्ति गौण ही है। स्त्री को अपनी लड़ाई स्वयं लड़नी होगी। इसका साक्ष्य उनकी कविता में मिलता है जिसे उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ कि:

“बहुत कुछ शेष है अभी
शेष है जीवन
जीवन के दिन घड़ियाँ
धड़कनें
मलबे के बीच
पाषाणों में दब
उम्मीदें शेष हैं”

तो वह अपनी एक दूसरी कविता में आवेश जनित आक्रोश के बीच बड़ी ही शालीनता के साथ एक ताज़ा हवा के झोंके की तरह निराला की सुप्रसिद्ध कविता वह तोड़ती पत्थर को विस्तार देते हुए उसके आकार में स्वंयम को स्थापित करती हैं:

“वह तोड़ती पत्थर
निराला ने देखा था
जिसे इलाहाबाद के पथ पर
मैं आज उसी माँ की बेटी हूँ
उसी पथ पर बैठी हूँ”

लोक के आलोक में ही सृजनात्कमता सही रूप रंग और विस्तार लेती है। वन्दना के मन में लोक जीवन के आदिवासी जो भूख की विभीषका के चलते चैत की फ़सल काटने के लिए घर से चल देते हैं उन्हें अभिव्यक्त करती है यह कविता:

“खाईं गकरियाँ गाए गीत
जे चले चैतुआ मीत।
मुँह अँधियारे बड़े सकारे
चले चैतुआ काँवर धारे।
पकी फसल तो चमकी आँखें
कौवे ने खुजलाईं पाँखें।”

वन्दना मिश्रा की कविताएँ जहाँ संवेदना के उच्चशिखर पर जाकर मन की संवेदना को सपाट शब्दों में व्यक्त करते हुए बालिका की स्थिति को व्यक्त करती हैं:

“सूनी आँखों से तकती
वह अबोध बालिका
मानो! मुझसे कुछ कहती है
मेरी जिजीविषा ही मुझसे
गोबर, पन्नी बिनवाती है।”

अतिरंजनाओं, घृणाओं और आवेशजनित संवेगों के इस दौर में पसीने से भीगी आस, आधी दुनिया की आँख, नैसर्गिक क्रान्ति तथा परिव्राजक चार खंडों में संगृहीत कविताएँ तमाम विडम्बनाओं के बीच सामान्य और शिष्ट भाषा से मार्मिक और सुरुचिपूर्ण संसार को व्यक्त कर ऊहापोह मन को झकझोर देती हैं:

“तीर से ज़्यादा आहत करती है
भूख की पीड़ा
तोड़ देती है
मर्यादाओं के जाल
नैतिक बोध मसल देती है
बच्चों की भूख
ईमानदारी, मेहनत के सारे
अल्फ़ाज़ फीके पड़ जाते हैं
भूख की पीड़ा के आगे
चीत्कार उठता है मन
तन को कचोटती भूख से
तड़पता आदमी
कुछ भी करने आमादा हो जाता है
पर घुटने नहीं टेकता।”

कवि अग्निवेद की प्रसिद्ध कविता “हारेगी नहीं हरिया” की तरह आशा और विश्वास के बीच वन्दना मिश्रा की रचनाऐं आशा के नये आकाश में मुक्त रूप से ऊँची उड़ान भरने का आमंत्रण देती हैं। मन पर छाये अँधियारे को शब्दों की रोशनी से प्रकाशित कर नई ऊर्जा से भर देती हैं:

“आशान्वित देखती है-पूरब की ओर
सूरज आएगा ज़रूर
उसके आँगन
फाड़ देना चाहती है
टाँगन के बादलों को
हाथों के पोरों से
बलात्।” 

— हिमांशी अग्निहोत्री (शोध छात्रा)
ए-305, ओ.सी.आर. बिल्डिंग, विधानसभा मार्ग,
लखनऊ.-226001
मो.: 9415508695

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं