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वह उसे क्यों पसन्द करती है? 

बोरीवली लोकल ट्रेन में छत से लटकते कुँडे को पकड़े अतिथि के दिलोदिमाग़ में आवेगों का झँझावात मचा है। लेडिज़ फ़र्स्ट-क्लास का डिब्बा होने के बावजूद भीड़ इस क़द्र है कि उसे खड़े होने की बित्ते भर की ही जगह मिल पायी है। अगल-बग़ल औरतें सटी खड़ी हैं। उनके आपस में सटे हाथों से यह पता चलाना मुश्किल-सा हो रहा है कि कौन-सा हाथ किसका है? 

 . . . दादर, माटुंगा रोड, माहिम, बान्द्रा, खार . . . थोड़ी-थोड़ी देर में ट्रेन रेंगते हुए हर एक स्टेशन पर क्रमशः रुकती। हुड़दंग-सा मचाता हुआ औरतों का सैलाब उतरता और भिनभिन करता हुआ दूसरा सैलाब अन्दर घुस जाता . . .। ट्रेन एक झटका देकर दूसरे स्टेशन के लिये चलने लगी। यद्यपि अतिथि रोज़ ही ऐसे भीड़़-भड़क्का में सफ़र करने की आदी है, किन्तु आज उसे औरतों का यह सैलाब व कोलाहल बहुत ही अप्रिय लग रहा है। वह जल्दी से घर पहुँच कर नितान्त एकान्त में चले जाना चाहती है, जहाँ कोई न हो, सिर्फ़ एक चुप्पी व शून्यता हो। 

ट्रेन के झटकों के साथ रह-रह कर वह अपने इर्द-गिर्द खड़ी औरतों से अनायास ही टकराते जा रही है। सम्भवतः सभी औरतें उसी की तरह अपने-अपने दफ़्तर से लौट रही हैं जहाँ वे रोज़ सुबह अपने घर के कई ज़रूरी कामों को छोड़ कर जाती हैं कि घर की आमदनी में अपना भी कुछ सहयोग दे दें ताकि महानगर के ख़र्चों को वहन कर लें। 

उसकी की तरह सभी के कन्धों पर बैग लटक रहे हैं और चेहरों पर एक गहरी थकान। किन्तु अतिथि के मस्तिष्क में एक उपद्रव भी चल रहा है . . . वह आज अपना रेज़िगनेशन लेटर बॉस की मेज़ पर पटक आयी है। एडवरटाइज़िंग कम्पनी का अपना ढाई वर्ष पुराना व मोहक जॉब उसने छोड़ दिया है। कई कारण थे छोड़ने के . . . एक तो बहुत ही व्यस्थता थी। तीस-चालीस हज़ार रुपये देकर ये कंपनियाँ समझती हैं कि उन्होंने लोगों को ख़रीद लिया हैं। अतिथि से पूरी नहीं हो पाती थी उनकी अपेक्षायें। लेकिन घर की आर्थिक मजबूरी व कम्पनी से मिलती ऊँची तनख़ाह का मोह उसे नौकरी से चिपके रहने को बाध्य करता रहा। कई बार चाहने के बावजूद वह नौकरी छोड़ नहीं पायी। 

ऑफ़िशियली ऑफ़िस का समय सुबह नौ से शाम पाँच बजे तक था, लेकिन देर रात तक उसे रुकना पड़ता था। कई बार उसने कम्पनी के बॉस से कहा था कि वह रात आठ-नौ बजे तक ऑफ़िस में नहीं रुक सकती है। नौ बजे ऑफ़िस से निकल कर रात दस बजे तक वह घर पहुँचती है। स्नान, भोजन इत्यादि से निपट कर बारह-एक बज जाता है बिस्तर में लेटने पर। सुबह आठ बजे फिर घर से दफ़्तर लिये निकल पड़ना। ज़िन्दगी बस ऑफ़िस व लोकल ट्रेन तक सिमट कर रह गई है। अपनी कोई व्यक्तिगत ज़िन्दगी नहीं रह गई उसकी। इतना ही नहीं, कम्पनी के काम से जब-तब क्लाइंटस से मिलने दूसरों शहरों में जाना। अभी पिछले ही सप्ताह वह चार रोज़ के लिये नागपुर गई थी। आज फिर बॉस, कल सुबह के लिये बंगलौर चलने को कहने लगे। इस बार उसने स्वीकार नहीं किया, स्पष्ट इन्कार कर दिया। इन्कार बहस में बदला और बहस की परिणति त्याग पत्र। 

त्याग पत्र देने से पहले बॉस के साथ बड़ी घृणित व उग्र बहसबाज़ी हुई। उस कलह की वजह से अतिथि का मन विषाद से भरा है। साथ ही कई अन्य प्रश्न उसे बेचैन कर रहे हैं। वह जोश में रेज़िगनेश लेटर बॉस की टेबल पर पटक तो आयी है, लेकिन क्या वह जानती नहीं कि उसकी नौकरी उसके घर के लिये इतनी आवश्यक है? घर का एक-एक ख़र्चा उसी की तनख़ाह से चलता है। उसके पति, अनिल कुमार की नौकरी का तो कोई ठिकाना ही नहीं। आज एक कम्पनी में सेल्स-बॉय बनता है, दो महीने बाद दूसरी कम्पनी का प्रोडक्ट बेचने लगता है, और तीसरे महीने बेकार बन कर घर बैठ जाता है। जब काम में रहता भी है तो घंटों के ही हिसाब से उसे वेतन मिलता है—इतना कम कि उसके भरोसे तो मकान के लिये लोन की किश्त भी नहीं चुकाई जा सकती। 

सब कुछ जानते-बूझते हुए भी उसने कितने ग़ुरूर से अपना रेज़िगनेशन लेटर बॉस की टेबल पर दे मारा। किसी दूसरी नौकरी का इन्तज़ाम होने तक का भी धैर्य नहीं रखा। अब क्या होगा? कैसे होगा? दूसरी नौकरी क्या फटाक से मिल जाती है? 

अनेकों प्रश्न एक विकराल दैत्य की भाँति अतिथि के सम्मुख फूँ-फूँ फकार मार रहे हैं। वह गहरे उेड़बुन में है कि सहसा खिड़की के बाहर प्लेटफ़ॉर्म पर लगे बोर्ड में उसने पढ़ा—मलाड। वह हड़बड़ा गई। उसका स्टेशन आ गया . . . आगे खड़ी औरतों को ज़ोर से खदेड़ते हुए वह एकदम से उतर गई। 

“बड़ी जाड़ी औरत है! देखो तो कैसे धक्का मार कर चलती है?” पीछे से एक औरत का स्वर गूँजा। 

अतिथि ने कोई ध्यान नहीं दिया। थके-हारे क़दमों से प्लैटफ़ॉर्म की सीढ़ियाँ चढ़ कर ऊपर ब्रिज पर आ गई। आहिस्ते-आहिस्ते रेलवे का ब्रिज पार किया। 

बस स्टॉप पर आकर आशानगर को जाने वाली ३४३ बस का इन्तज़ार करने लगी। लोहे की लगी मोटी रेलिंग में यूँ ही उकड़ूँ होकर बैठ गई। सीधे खड़े रहने की ताक़त ही नहीं रह गई है। बस पूरे बीस मिनट में आयी। फिर वही लोगों का रेला . . . बेताब बस में घुसने के लिये . . . किसी तरह ताक़त लगा कर वह लोगों को चीरते हुए बस में घुसी। 

अपनी प्रियदर्शिनी सोसाइटी के पास के वाले स्टॉप पर वह उतर गई। सोसाइटी के अन्दर आते वक़्त गेट पर खड़े गुरखे, गेटकीपर ने उसे रोज़ की तरह सैल्यूट मारा। वह हमेशा उसके सैल्यूट का एक शिष्ट मुस्कान फेंक कर जवाब देती है, किन्तु आज वह मधुर मुस्कान अपने चेहरे पर नहीं ला सकी। बस एक उदास, उपेक्षित नज़र गुरखे पर ड़ाल कर आगे बढ़ गई। उसके चेहरे की इस असहज गंभीर भाव-भंगिमा देख कर गुरखा सकुचा गया। 

अपनी ही सोच में डूबी अतिथि विंग पाँच की ओर बढ़ी। लिफ़्ट का दरवाज़ा खोल कर सातवाँ नंबर दबाया। सोसाइटी का यह फ़्लैट भी उसकी एडवरटाज़िंग कम्पनी की नौकरी के दम पर लिया गया है। उसकी ऊँची तनख़ाह के कारण ही उसे कर्ज़-कम्पनी से मकान के लिये अच्छा-ख़ासा ऋण मिला है। ऋण की किश्तें प्रतिमाह उसी के वेतन से निकल रही हैं। अब बिना किसी वेतन के ऋण की प्रतिमाह तीन हज़ार की किश्तें कैसे अदा की जायेगी? सोसाइटी के रख-रखाव के लिये प्रतिमाह सात सौ रुपये कहाँ से दिये जायेगें? और उनके घर के सारे ख़र्चे! . . . ओह माँ! अतिथि सिहर उठी। 

लिफ़्ट से निकल कर, गलियारे में चलते हुए . . . बेमन-सी वह अपने दरवाज़े के सामने खड़ी हो गई। कन्धे पर बेतरतीब से झूल रहे बैग में चाबी टटोलने लगी। सोचने लगी कि पता नहीं अनिल ऑफ़िस से आया होगा या नहीं! . . . अपने सेल्स बॉय के अटपटे काम में न तो उसके ऑफ़िस जाने का कोई समय रहता है, न वापस घर आने का। कई दफ़ा पूरा का पूरा दिन घर में बिता देता है। कहता है फ़ोन से काम चल जाता है। हे भगवान! . . . फ़ोन का बिल तो वह भूल ही गई . . .। 

जब देखो अनिल वह कोर्डलेस फ़ोन लेकर नम्बर घुमाता रहता है। जबसे उसने उसे मोबाइल ख़रीद कर दिया है तो हर समय मोबाइल पर लगा रहता है। कभी अपनी नौकरी के जायज़ काम की वजह से, कभी यूँ ही अपने सिरफिरे दोस्तों से फ़ालतू की गूफ़्गूत करने के लिये। उसने उसे कई बार आगाह किया कि वह फ़ोन का इतना अधिक इस्तेमाल मत किया करे, बिल बहुत ज़्यादा आता है। लेकिन वह कभी मानने से बाज़ ही नहीं आता। 

बैग से चाबी निकाल कर अतिथि ने दरवाज़ा खोला। अकस्मात, राव-राव का शोर कानों में गूँजा। यह क्या . . . यह शोर! वह तो आज घर में एक अपूर्व शान्ति, एक नीरवता चाहती है। उसका मन इस क़द्र उखड़ा हुआ कि किसी तरह का शोर, कोई हो-हल्ला उसे बरदाश्त नहीं . . .। 

भुनभुनाते हुए वह घर के सँकरे गलियारे को पार कर बैठक में आ गयी। चौखट पर ठिठक कर अन्दर का नज़ारा देखने लगी . . .।यह उसके ध्यान से उतर गया था कि आजकल इंडिया का क्रिकेट मैच चल रहा है। 

अनिल और उसके चार दोस्त आँखें फाड़े टीवी के आगे जमे बैठे हैं। चाय के जूठे कप-प्लेटें सोफ़े पर, मेज़ पर जगह-जगह बेतरतीब से फैले हुए। उनमें बची चाय की लकीरें सूख कर जम गई हैं। सोफ़े के सभी कुशन अस्त-व्यस्त इधर-उधर ढुलके हुए हैं। टीवी का कवर ट्रॉली से लटकते हुए नीचे ज़मीन पर झूल रहा है। 

अनिल या तो आज अपने काम पर नहीं गया या फिर मैच देखने की वजह से काम से भाग कर घर जल्दी आ गया। साथ में अपने चार सड़क-छाप दोस्तों को भी ले आया। पच्चीस इंच के रंगीन टीवी के सामने पसर कर ज़ी-चैनल में क्रिकेट मैच देखने का लुत्फ़ भी उसी की नौकरी की वजह से है। हर महीने इस स्पेशल कनेक्शन के दो सौ रुपये केबल वाले को देने पड़ते हैं। कई बार उसने इस कनेक्शन को हटाने की सोची। इसलिये नहीं कि वह दो सौ रुपयों का ख़र्चा प्रतिमाह वहन नहीं कर सकती; वह क्रिकेट मैच के दौरान अनिल के दोस्तों की लगते जमघटों से परेशान है। ले–दे कर डेढ़ कमरे का तो घर है उनका। यह एक ड्राइंगरूम ही थोड़ा बड़ा व खुला है। दूसरे कमरे को तो पूरा कमरा कहना भी बेकार है। हर बार अनिल छोटे बच्चों की तरह ज़िद करके उसे कनेक्शन न हटाने से मनवा लेता है। 

अनिल ने एक सरसराती नज़र से उसे देखा। उसका पूरा ध्यान टीवी पर चलते मैच पर है। लापरवाही से एक संक्षिप्त वाक्य बोला, “आ गई तुम।” आँखें फिर स्क्रीन पर स्थिर हो गईं। उसके बाक़ी साथी भी स्क्रीन पर एकटक टकटकी लगाये बैठे हैं। अतिथि की तरफ़ किसी को देखने की फ़ुरसत नहीं है। अतिथि अपमानित महसूस करने लगी, साथ ही ग़ुस्से से उसकी साँसों का वेग बढ़ गया। 

यह आज की ही बात नहीं, जब भी टीवी पर क्रिकेट मैच चलता है, वह इस क़द्र मशग़ूल होकर देखता है कि उस वक़्त वह कहीं नहीं देखता—बीवी की तरफ़ भी नहीं, जिससे उसने प्रेमविवाह किया था। 

“लगता है इंडिया जीत जायेगा,” वह चहकते हुए बोला। आँखें उसकी पूरी एकाग्रता से सीधी गेंद पर टिकी हैं। इतनी एकाग्रता से शायद बैटिंग कर रहे खिलाड़ी की भी नहीं टिकी हैं! 

“अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। साउथ अफ़्रिका के तो बोलर भी बैटमैनों की तरह फ़ील्ड में जम जाते है,” उसका एक दोस्त बोला। 

“हाँ एक बार डोनाल्ड . . .” दूसरा दोस्त कहने को हुआ कि तीसरा एकदम से चिल्लाया, “अरे-अरे पौलोक आउट!” 

बाक़ी भी चिल्लाये, “आउट! आउट! पौलोक आउट!” 

“अब भारत जीत जायेगा। फ़ाइनल में पहुँच जायेगा!” अनिल गद्‌गद्‌ होते हुए बोला। 

“बहुत दिनों बाद भारत को क्रिकेट में जीत मिली है,” कहते हुए अनिल व उसके दोस्त जोश में बेतहाशा तालियाँ पीटने लगे। टीवी में भी दर्शकगण की तालियों की गड़गड़ाहट मच उठी है। अतिथि से यह हल्ला बरदाश्त न हो सका। अपने कानों में उसने हाथ रख लिये। वैसे भी जबसे मैच फ़िक्सिंग में अजहरुदीन जैसे शालीन क्रिकेट खिलाड़ियों के शामिल होने की बात चर्चा में आयी है, उसका मन इस खेल से उखड़ गया है। और आज इस उचाट मनस्थिति में टीवी पर चलता क्रिकेट मैच मन को और भी अशान्त कर रहा है। 

सहसा अनिल उससे बोला, “तुम खड़ी क्यों हो? मैच बड़े दिलकश मोड़ पर पहुँच गया हैं, आकर यहाँ बैठ जाओ।” 

जवाब में अतिथि ने सिर्फ़ उसे वितृष्णा से घूरा। पलट कर वह बेडरूम में चली गई। दरवाज़ा भिड़ा दिया। ज़मीन पर अपना बैग पटकते हुए निढाल बिस्तर पर पसर गई। टीवी का प्रबल नाद, साथ-साथ अनिल और उसके दोस्तों के क़हक़हों-ठहाकों का शोर भिड़े दरवाज़े को चीर कर निरन्तर अन्दर आ रहा है। यह कोलाहल उसे बुरी तरह व्यग्र कर रहा है। उसका सिरदर्द होने लगा। उसने उठकर दराज से डिस्प्रिन की गोली निकाली, बिना पानी के ही घूँट ली। 

उसे इस समय घर में एक निस्तब्धता, एक अटूट चुप्पी चाहिये। कुछ गुमसुम क्षण चाहिये। और अनिल . . . उसे अपने पति से चिढ़ होने लगी। कितनी बार उसने उससे कहा था कि वह टीवी पर क्रिकेट मैच देखने के लिये अपने इन बेमतलब के दोस्तों को न बुलाया करे। वे यहाँ आकर धरना देकर बैठ जाते हैं। उनके घर को हाईजैक कर लेते हैं। उनका पूरा घर उन लड़कों की तरह अस्त-व्यस्त, बिखरा-बिखरा-सा लगने लग जाता है। मगर अनिल उसकी कोई भी झिड़की को कभी गंभीरता से नहीं लेता। दरअसल ज़िन्दगी की किसी भी बात को अनिल ने गंभीरता से लेना सीखा नहीं। सरल, बेबाक तरीक़े से ज़िन्दगी बिताने की उसकी शैली है। 

अतिथि ने उससे अपने घर वालों के ख़िलाफ़ शादी की है। दोनों अँधेरी के भवन कॉलेज में साथ-साथ पढ़ते थे। प्रथम वर्ष से ही वह दोनों एक-दूसरे के प्रति अनुरक्त हो गये थे। तीन वर्षों तक उनका लव अफ़ेयर चला था। बी. एससी. के बाद अतिथि बजाज इन्सटिटयूट से एम.बी.ए. करने लगी और अनिल इधर-उधर छोटी-मोटी कम्पनियों में छुटपुट नौकरी की तलाश करने लगा। लेकिन उनका अफ़ेयर चलता रहा। 

एम.बी.ए.के बाद जब मुद्रा एडवरटाइज़िंग कम्पनी में अतिथि की नौकरी लग गई, तो उसने अपने घर वालों के सामने अनिल से अपनी शादी की बात रखी—सीधे व सधे शब्दों में। जैसा कि उसे शक था उसके घर वालों ने कड़ा विरोध किया। कई कारण थे उनके विरोध के . . . अनिल का विजातीय होना, अपेक्षाकृत कम प्रतिष्ठित घर का होना जैसे आम मुद्दे तो थे ही . . . मगर अहम मुद्दा उनके एतराज़ का अनिल व अतिथि की प्रतिभाओं में असमानता का था। अतिथि अनिल से अधिक पढ़ी-लिखी थी। एडवरटाइज़िंग कम्पनी के मोहक जॉब में थी। उससे अधिक परिपक्व, सुलझे विचारों की। अनिल उससे कम पढ़ा-लिखा, बेहद साधारण व्यक्तित्व का, अस्थायी मामूली-सी नौकरी पर। 

रोष में आकर अतिथि के घर वालों ने न जाने अनिल को कितनी हेय उपाधियों से अलंकृत किया था—फक्कड़, फ़क़ीर, दो टके का आदमी, सड़क-छाप . . . अतिथि उसके साथ शादी करके उनकी जग-हँसाई करेगी। अतिथि की सखियों ने भी आश्चर्य से उससे पूछा था—अनिल में ऐसी कोन सी विशेषतायें हैं, जो वह उसे इतना पसन्द करती है? सभी अचरज से पूछा करते थे—आख़िर वह उसे इतना पसन्द क्यों करती है? 

वह स्वयं नहीं जानती थी कि वह उसे इतना पसन्द क्यों करती है? किसी का भी एतराज़, किसी का भी आश्चर्य उसे अपने फ़ैसले से डगमगा नहीं पाया था। कोर्ट में जाकर उसने मजिस्ट्रेट के सामने अनिल से विवाह कर लिया और आजीवन उसके साथ ज़िन्दगी बिताने की ठान ली। 

लेकिन विवाह के बाद उसे आभास हुआ कि ज़िन्दगी का असली धरातल अति कठोर है। अनिल से उसकी शादी के लिये उसके घर वालों का विरोध ग़लत नहीं था। उसकी सखियों का आश्चर्य—यूँ ही नहीं था। वास्तव में मुंबई जैसी महानगरी में ज़िन्दगी के निर्वाह के लिये अनिल जैसे फक्कड़ क़िस्म के युवक पर आश्रित नहीं हुआ जा सकता। उसीने कमर कस ली थी अपनी गृहस्थी की गाड़ी खींचने के लिये। संजोग से उसके पास ऐसी जॉब थी, जो उसे बढ़िया वेतन दिला रही थी। उनके सभी ख़र्चों की पूर्ति आराम से हो ही रही थी। ज़िन्दगी अच्छी ही कट रही थी। लेकिन अब . . . 

धड़ाम से दरवाज़ा खुला। अनिल चहकते हुए अन्दर घुसा। उत्साहित स्वर में बोला—“इंडिया जीत गया।” 

बिना कोई प्रतिक्रिया व्यक्त किये अतिथि निरुत्साहित-सी ख़ामोश बैठी रही। 

“अरे हद करदी तुमने! . . . मैं कह रहा हूँ कि इंडिया जीत गया, फ़ाइनल में पहुँच गया है और तुम हो कि कोई असर ही नहीं हो रहा।” 

“अगर इंडिया जीत गया, फ़ाइनल में पहुँच गया तो मैं क्या करूँ?” 

स्वर की उत्तेजना से अनिल सकपका गया। एकदम से बोला, “भई कुछ मत करो, कुछ मत करो। मैं तो ख़ामख़ाह इसलिये बताने आ गया कि तुम ख़ुश होगी। बहुत लम्बे अर्से बाद इंडिया को क्रिकेट में जीत मिली है,” कह कर वह कमरे से बाहर जाने लगा। 

“रुको,” अतिथि चीखी। 

वह ठिठक गया। 

“मुझे तुमसे कुछ कहना है।” 

“कहो।” 

“ऐसे नहीं, पहले यहाँ मेरे पास आकर इत्मीनान से बैठो,” अतिथि बेड पर अपना हाथ मारते हुए बोली। 

“अरे मैन-ऑफ़-द-मैच घोषित होने वाला है . . . तेंदुलकर को मिलेगा। उसने बड़ी धाँसू बैटिंग की है,” अनिल कमरे से लगभग बाहर भागते हुए बोला। 

“बन्द करो यह बकवास,” अतिथि चीखी। 

 पल भर अनिल ने उसे असमंजसता से ताका; फिर लापरवाही से अपना हाथ हिलाते हुए तल्ख़ी से बोला, “मुझे मालूम है तुम्हें क्या कहना है? तुम्हारा कोई प्रमोशन हो गया होगा! या बॉस के साथ फिर कहीं जाना होगा! ऊटी, चेन्नई . . .” कहकर वह सीधे ड्रांइगरूम की ओर भागने लगा। 

अतिथि पीछे से चिल्लाई, “नहीं! मेरा कोई प्रमोशन नहीं हुआ। मुझे बॉस के साथ कहीं नहीं जाना। मुझे तुम्हें बताना है कि मैं हार गई हूँ।” 

जाते-जाते अनिल हठात् रुक गया। मुड़ कर अतिथि को हैरत से देखा। उसकी बात उसे समझ में नहीं आ रही है। 

वह टूटे स्वर में बोली, “मेरी नौकरी चली गई है। मैंने आज रिज़ाइन कर दिया है।” 

अनिल उसे और हैरत से देखने लगा। चेहरे के तल्ख़ व कठोर भाव एकदम से नरम हो गये। फिर न जाने क्यों वह यकायक ज़ोर से हँस पड़ा। 

“ओ हो . . . तभी तुम आज इतनी उखड़ी-उखड़ी उदास-सी हो,” हँसते हुए वह बोला। 

“इट इज़ नॉट फ़न्नी। यह बहुत सीरियस बात है। सोचो ज़रा हमारा ख़र्चा, लोन की किश्त, सोसाइटी का पैसा . . . सब कहाँ से होगा?” 

“मैं हूँ तो!” 

“तुम?” न चाहते हुए भी अतिथि के चेहरे पर उपहास की हँसी बिखर गई। 

“हाँ मैं!” शब्दों पर बल देते हुए अनिल एक गहरे आत्मविश्वास से बोला। “अगर मैं चाहूँ तो एक दिन में बीस घंटों तक लगातार काम कर सकता हूँ। तुमसे ज़्यादा नहीं, पर अपने इस छोटे से घर के ख़र्चे चलाने लायक़ तो कमा ही सकता हूँ।” 

अतिथि को उसका आत्मविश्वास अच्छा लगा, लेकिन वह उसे एक अविश्वास से देखने लगी। 

वह उनमुक्त स्वर में बोला, “तुम सारी फ़िक्र छोड़ दो। अपने पति को इतना निकम्मा मत समझो,” कहते हुए वह आगे बढ़ा, और एक झटके से उसे उठा लिया। 

“अरे-अरे यह क्या कर रहे हो? छोड़ो मुझे . . .” उसकी गोदी में कसमसाते हुए अतिथि स्वयं को मुक्त करवाने का असफल प्रयास करने लगी। 

अतिथि को अपनी मज़बूत बाँहों में थामे वह ड्राइंगरूम में आया। सभी दोस्त उन्हें हतप्रभ देखने लगे। चेहरे पर कौतुक हास्य के भाव से आ गये। अनिल इतराते हुए एक से बोला, “जा भारती, नीचे रेड़ी वाले से गर्म बटाटा-बड़े और जलेबी ला।” 

दूसरे से बोला, “और विरेश, तू किचन में जाकर चाय बना। आज इंडिया नहीं, मेरी मैडम अपना मैच जीती है।” 

बात का बग़ैर कोई गूढ़ अर्थ निकाले, सभी दोस्त हर्ष से चहकने लगे। बधाई देने के लिये अतिथि से हाथ मिलाने लगे। 

“अरे हटो यहाँ से,” उनके हाथों को परे झटकते हुए अतिथि बोली। पर अनायास उसकी भी हँसी छूट गई। हँसते हुए बोली, “मेरी यहाँ नौकरी चली गई है। और तुम मुझे बधाई दे रहो हो!” 

सभी दोस्त चकरा कर, हतप्रभ अनिल को देखने लगे। 

अनिल बोला, “देखो भई . . . मैडम कई दिनों से अपनी नौकरी में परेशान चल रही थी। रोज़ उसे छोड़ने की बात करती थी। आज छोड़ दी वह कमबख़्त नौकरी . . . मुद्रा को बॉय बोल दिया। हुई न ख़ुशी की बात!” 

समर्थन में गर्दन हिलाते हुए सभी दोस्त हुल्लड़-सा मचाते हुए अतिथि की ओर बढ़े। उससे हाथ मिलाने लगे। सहज ही अतिथि के हाथ भी आगे बढ़ गये। 

एक बोला, “नौकरी की क्या कमी? एक छोड़ो हज़ार मिलती हैं।” 

दूसरा बोला, “मुंबई तो अपनी ऐसी है, आदमी अगर ठान कर सुबह नौकरी ढूँढ़ने निकल जाये, शाम को चार हाथ में लेकर लौटता है।” 

तीसरा, “मुझे हारना ज़्यादा अच्छा लगता है। हार कर ही आदमी को अपनी सही पहचान हाती है।” 

चौथा, “हाँ यार, हर समय ख़ुशी-ख़ुशी ही अच्छी थोड़ी होती है। कभी हार का भी मज़ा चखना चाहिये। और असली हारना तो तभी होता है जब आदमी दुबारा जीतने की ख़्वाहिश छोड़ दे। मैं अभी अतिथि मैडम को इस हारने वाली जीत की ख़ुशी में कड़कदार चाय पिलाता हूँ। तू जाकर भारती तब तक बटाटा-बड़ा और जलेबी लेकर आ। दिस इज़ ए पोज़िटिव प्रॉब्लम। क्या मालूम अतिथि मैडम की क़िस्मत में कोई दूसरी अच्छी नौकरी लिखी है?” 

वह सभी अनिल के दोस्त निहायत ही मामूली लड़के हैं, लेकिन उनकी बातें अतिथि को इस वक़्त एक विश्वास, एक ताक़त दे रही हैं। अपने सेल्स-बॉय के काम में लोकल ट्रेन में सुबह से शाम, एक छोर से दूसरे छोर रास्तों की धूल छाँटने के साथ-साथ वे ज़िन्दगी की भी धूल छाँटते हैं। ज़िन्दगी को इतने क़रीब से जीते हैं कि उसके छोटे-छोटे सुख व दुखों से परे हो जाते हैं। ये छोटे, मामूली लोग ज़िन्दगी को शायद ज़्यादा बेहतर समझते हैं। अतिथि को दिलासा देते हुए शायद वे स्वयं इस सच्चाई से अनजान थे कि उनकी बातें कितनी गूढ़ हैं! 

एक दोस्त किचन में चाय बनाने के लिये घुस गया। दूसरा नीचे रेड़ी वाले से बटाटा-बड़े ख़रीदने चला गया। दो दोस्त अतिथि के पास बैठ कर उसे हँसाने का प्रयत्न करने लगे। 

“अतिथि मैडम, ज़रा बताओ कि फ़िक्र कैसे की जाती है?” 

“अच्छा परेशान होने की एक्टिंग करो।” 

“नहीं, यह बताओ कि मुसीबत के समय इन्सान का चेहरा टेढ़ा होकर कैसा हो जाता है?” कहकर वह दोस्त स्वयं का चेहरा टेढ़ा करना लगा। 

उनकी बे-सिर पैर की बातों व हास्य मुद्राओं से अतिथि उन्मुक्त हँसने लगी। उनका स्नेही व्यवहार उसे गुदगुदाने लगा। वह भूल ही गई कि आज उसकी नौकरी छूटी है और इस वक़्त उसे चिन्ता ग्रस्त रहना चाहिये। 

अनिल एक हल्की मुस्कुराहट से कुछ पलों तक उसे उन्मुक्त हँसते ताकता रहा। फिर रैक पर जाकर उसने दराज से कुछ पेपर्स निकाले। 

अतिथि के पास आकर संकोच से उसने वे पेपर्स उसकी ओर बढ़ाये। 

“क्या है?” वह बोली। 

थोड़ा रुक कर वह झिझकते हुए बोला, “तुम्हारे लिये विज्ञापनों की कुछ कटिंग हैं। दरअसल इस नौकरी में तुम्हारा मिज़ाज देख कर मुझे बहुत पहले ही आभास हो गया था कि तुम इस नौकरी में ज़्यादा देर टिकने वाली नहीं। मैंने न्यूज़ पेपरों से विज्ञापनों की तुम्हारे लिये कटिंग काटनी शुरू कर दी थीं।” 

अतिथि ने सीधे उसके हाथों को पकड़ लिया। भावुक स्वर में बोली, “ओह अनिल, तुम मुझे कितना जानते हो? इतना तो शायद मैं अपने को नहीं पहचानती,” अधीर स्वर में उससे पूछने लगी, “तुम्हें पक्का मालूम था कि मैं जल्दी ही इस नौकरी को छोड़ दूँगी।” 

वह मूक गर्दन हिलाने लगा। 

अतिथि की आँखेंं सहसा ही नम हो गई। नम आँखों से अनिल को प्यार से देखने लगी। 

एक दोस्त झट से कम्प्यूटर की ओर बढ़ा। स्विच ऑन करते हुए बोला, “लो अतिथि मैडम, जब तक आपके लिये चाय बनती है, फटाफट कम्प्यूटर पर दो-तीन अर्ज़ियाँ टाइप कर डालो। मैं आज ही पोस्ट कर दूँगा।” 

अनिल उसे धकेलते हुए से कम्प्यूटर के पास ले आया। दोनों हाथों से उसे कुरसी पर बैठाया। उसकी आँखों में टिके आँसुओं को पोंछते हुए बोला, “बिना कोई जोखिम उठाये न हार मिलती है न जीत! जो छूट चुका है, उसके बारे में सोच कर दुखी मत हो। जो आने वाला है सिर्फ़ उसके बारे में सोचो। जो कुछ होता है अच्छे के लिये होता है।” 

अतिथि एक नये साहस से भर गई। मुस्कुरा कर एक पल उसने अनिल को देखा, फिर पलट कर कम्प्यूटर की स्क्रीन पर नई नौकरी के लिये एप्लिकेशन टाइप करने लगी। अनिल उसके पीछे खड़े होकर स्क्रीन पर टाइप होती एप्लिकेशन को मूक पढ़ने लगा। 

ज़िन्दगी की हर बात को अनिल बड़ी सरलता से लेता है। ज़िन्दगी के हर रूप को वह पसन्द करता है। जीवन के प्रति उसका यह विश्वास, मुसीबतों में उसकी यह सकारात्मक धारणा अतिथि को एक स्फूर्ति, एक अज्ञात शक्ति से भरा करती है। इसलिये वह उसे पसन्द करती है . . .। 

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