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वे उसे कामरेड बना के छोड़ेंगे 

कवि महोदय बहुत ख़ुश थे, उनकी नई कविता पर पहली ही प्रतिक्रिया उनके किसी मित्र की आई थी, “कमाल की कविता, अंतरराष्ट्रीय स्तर की”। कवि की तो जैसे बाँछे ही खिल उठीं, एक कवि को इस से ज़्यादा चाहिए ही क्या, यूँ इस कवि को कोई ख़ास लोग जानते नहीं थे, ना ही मंचीय साहित्य ख़ेमे में कोई अहमियत थी। पर कवि महोदय ख़ुद को बहुत बौद्धिक मानते थे, और इस कविता में उसने मध्युगीन बर्बरता से लेकर हिटलर और ब्रिटिश उपनिवेशवाद सहित वर्तमान राजनीतिक सत्ता को भी लपेटे में लिया है। इधर एक ग्रुप में कविता भेजी तो किसी उम्दा लेखक का कमेंट आया, “बेहद ज़रूरी पोस्ट!” बस फिर क्या, उसने धड़ाधड़ कविता अलग-अलग जगह पर भेजनी शुरू कर दी। कवि को लगा ये एक कविता ही उसे राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दे देगी। ख़ुशी से मन में लड्डू फूटने लगे। 

पर महाशय की ख़ुशी ज़्यादा देर तक नहीं चली, जब एक ज़ालिम कमेंट आया, “ये एक घटिया वाम पंथी, देशद्रोही और चीन का गुणगान करती कविता है”। 

कविता में यूँ चीन  का ज़िक्र तक नहीं था, कवि ने पूछना भी चाहा कि राष्ट्रविरोधी या वामपंथ जैसा क्या है इस कविता में, पर इस से वो एक व्यर्थ बहस में पड़ गया। 

कवि ने एक वकील दोस्त से बात की और उसे सारी बहस की बात बताई। वकील दोस्त ने कहा, “पढ़ा मैंने, ऑन द रिकॉर्ड है ये और बहस से साफ़ है कि वो आदमी सरकार का पक्षधर और तुम सरकार विरोधी हो।”

“लेकिन सरकार का विरोधी नहीं हूँ मैं, मैंने तो उन ग़लत नीतियों का विरोध किया जो मानवता के ख़िलाफ़ हैं।” 

“एक ही बात है, नीतियाँ कौन लाता है! सरकार! नीतियों का विरोध यानी सरकार का विरोध, तुम जल्द ही लपेटे में आओगे।” 

इस बीच कविता चलते-चलते एक नामी अभिनेत्री तक पहुँची, सरकार की चरम समर्थक अभिनेत्री काफ़ी उग्र और मुँहफट है। उसने कवि और कविता को आड़े हाथ लेते हुए ट्वीट किया—“ऐसे चीन परस्त वामपंथी गुंडे कवि, दो-दो सौ में अपनी कविताएँ बेचते फिरते हैं।”

कवि को दो सौ रुपए अपनी कविता की क़ीमत कम लगी, वैसे कवि बेरोज़गार था (जिसके पास रोज़गार हो वो कवि क्यों बने भला)। उसे लगा इस कविता के बदले उसे सरकारी नौकरी मिल जाए तो वो उसे बेच भी दे, पर इस से कम में तो हर्गिज़ नहीं! 

बात अब मीडिया तक आ पहुँची, अभिनेत्री का ट्वीट जो आया था। मीडिया के लिए उसे नज़रंदाज़ करना नामुमकिन था। नामी पत्रकारों ने कवि को रास्ते में घेर लिया। कवि उस वक़्त बाजार से अंडे और ब्रैड लिए जा रहा था। उसके पैरों में स्लीपर थे और टी-शर्ट और पाजामा पहने वो किसी कॉमेडी फ़िल्म का जोकर ज़्यादा और बौद्धिक कवि कम लग रहा था। 

पत्रकारों ने उसे चारों तरफ़ से घेर लिया, “क्या ये आरोप सही है कि आप चीन परस्त और वामपंथी हैं।” 

इतने सारे पत्रकारों को देख कवि को ख़ुशी हुई, जैसे वो एक सेलिब्रिटी बन गया है।

“देखिए, मैं किसी राजनीतिक विचारधारा को नहीं मानता, मैं सिर्फ़ मानववाद में यक़ीन रखता हूँ, मेरी कविता में सिर्फ़ इंसान और इंसानियत का ज़िक्र है।”
 
“आपकी बात को कैसे मान लिया जाए, कविता में तो कुत्ते और भेड़िए का भी ज़िक्र है तो क्या आप कुत्तावाद और भेड़ियावाद में भी यक़ीन रखते हैं?” सवालों की धड़ाधड़ बौछार हुई। 

इन सवालों में अभी कवि उलझा ही हुआ था कि एक पत्रकार की नज़र उसके हाथ में पकड़े लिफ़ाफ़े में पड़े अंडे और ब्रैड पर गई, “ये आपके हाथ में क्या है? अंडे! आप मांस खाते हैं? कौन-कौन सा मांस खाते है? क्या प्रतिबंधित मांस भी?” 

उधर एक न्यूज़ चैनल पर चिल्ला-चिल्ला कर बोलने वाले एक एंकर ने ब्रेकिंग न्यूज़ चला दी, “ब्रेकिंग न्यूज़, कवि के हाथ में पकड़े थैले में मिले अंडों का सच, ये अंडे सिर्फ़ अंडे नहीं उनके अंदर भरा हुआ है मांस, मांस भरे अंडे कहाँ से आए? और ये मांस किस जानवर का है, ये चीन की साज़िश है या पाकिस्तान की, और साज़िश के सूत्रधार कौन है, इस साज़िश का पूरा सच दिखाएँगे ब्रेक के उस पार . . . “

तभी एक पत्रकार की नजर कवि के स्लीपर पर पड़ी, “ये चप्पल आपने कहाँ से ली?” 

कवि समझ नहीं पाया कि चप्पल का कविता से क्या संबंध, अनमने में उसने कहा, “सन्डे मार्केट से।” 

“ये चप्पल तो चाइना मेड है, क्या आप चाइना सामान को एंडोर्स करते हैं?” 

कवि बेचारा हड़बड़ा गया। अंडे और ब्रैड का लिफ़ाफ़ा उसके हाथ से गिर गया, उसे ज़्यादा फ़िक्र घर में नाश्ते के लिए इंतज़ार करते परिजनों का हुआ। पाजामे की जेब में इतने पैसे भी नहीं कि अंडे और ब्रैड फिर से ले सके। 

उधर चिल्लाने वाले टीवी एंकर ने ब्रेकिंग न्यूज़ चला दी, “कवि ने किया चाइनीज प्रोडक्ट्स को एंडोर्स, सिर्फ़ हमारे चैनल पर देखें . . . एक्सक्लूसिव तस्वीरें कवि के स्लीपर्स की . . . ”

कवि के ख़िलाफ़ चार राज्य दूर एफ़आईआर दर्ज की गई। गिरफ़्तार तो उसे इस राज्य में भी किया जा सकता था, पर यहाँ विपक्षी दल की सरकार थी। 

विपक्षी दल ने कवि पर एफ़आईआर को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला बताया। इधर कुछ मार्क्सवादियों ने कवि से मिल के कहा, “जैसे तुमने मार्क्सवाद को अपना लिया, वैसे ही तुम्हें हम अपना लेंगे कामरेड।” 
“अरे मैंने मार्क्सवाद नहीं अपनाया भाई, मैंने सिर्फ़ सच लिखा, और मुझे कामरेड नहीं बनना,” कवि ने परेशान हो कर कहा। 

“समझे, ये दक्षिणपंथियों से मिला हुआ है, इसलिए इसे इतनी तव्वजो मिल रही,” भुनभुनाते हुए वो चल दिए। 

 एफ़आईआर तो दर्ज हुई ही थी, अंत गिरफ़्ताअरी भी हुई। 

पुलिस अफ़सर के सामने मिमियाते हुए कवि ने कहा, “सर मैंने कोई गुनाह नहीं किया, मुझे फँसाया जा रहा है।” 

अफ़सर ने हँस कर कहा, “कविता लिखते हो ये क्या कम गुनाह है? कविता लोगों को बर्बाद करने के लिए लिखी जाती है। प्रेम कविता हो तो वो युवाओं को बरगलाने का काम करती। नारीवादी हो तो घरेलू स्त्रियों को बर्बाद करती, और सामाजिक कविताएँ तो पूरे समाज का नाश करती हैं। तुम तो उस से भी आगे, राजनीतिक कविता कहते हो, पूरी राजनीति को ख़त्म करना चाहते हो।” 

कवि डर से पसीने-पसीने हो रहा था। 

अफ़सर मुसकुराए, “घबराओ मत, यहाँ कविता के क़द्रदान भी हैं, हमारे जूनियर अफ़सर, बस कविता ज़रा लय में सुनते हैं।” 

कवि की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। 

मामला अदालत तक पहुँच गया। कवि महोदय को जब पुलिस अदालत ले कर जा रही थी, उस वक़्त उसके चेहरे को छोड़ कर बाक़ी सारे शरीर का एक-एक हिस्सा लय में कविता कह रहा था। रास्ते में भीड़ कवि के ख़िलाफ़ नारेबाज़ी कर रही थी, ये भीड़ अदालत क़ानून को नहीं मानती, त्वरित न्याय करना ही इस भीड़ का परम कर्तव्य है। भीड़ चिल्ला रही थी कि कवि को उसके हवाले किया जाए, ताकि वो उसे तुरंत न्याय देने की कारवाई पूरी की जाए। पुलिस अफ़सर कवि के कान में फुसफुसाया, “भला मानो हमारा कि तुम्हारा चेहरा तो एकदम सही दिख रहा है। इन लोगों के हाथ आ जाते तो सोचो क्या होता।” 

अदालत में कारवाई शुरू हुई, कवि पर आरोप पूछे गए।

वकील ने धारदार आवाज़ में कहा, “सबसे पहला आरोप है धार्मिक भावनाएँ आहत करने का . . . 

कवि चिल्लाया, “ये बिल्कुल ग़लत है, कविता में तो धर्म का ज़िक्र तक नहीं, जज साहब।” 

वकील ने खा जाने वाली आवाज़ में चीख़ कर कहा, “यही तो तुम्हारी चाल है, लिखते कुछ हो, कहना कुछ और चाहते हो, योर ऑनर पहले ही ये साफ़ हो चुका है कि इसके थैले में जो अंडे थे उनमें मांस भरा था। यानी दिखने में अंडे और असल में मांस, यही इसकी कविता की भी असलियत है। जो लिखा है सिर्फ़ वो ही नहीं देखें। देखें इसका शातिर दिमाग़, जो लोगों की धार्मिक भावनाएँ आहत करना चाहता है। असल जाँच तो इसके दिमाग़ की होनी चाहिए . . . ” 

बहस परत दर परत आगे बढ़ रही थी। एक बड़ी कंपनी जिसके बारे में ये भ्रम फैलाया गया है कि उसे सरकार का सरंक्षण मिला है, या सरकार को उस कंपनी का, ने अदालत में पेश हो कवि के दिमाग़ की कोशिकाओं के नमूने की माँग की, ताकि सच पूरे देश के सामने आ सके। ताकि फिर कोई ऐसा दिमाग़ देश में ना आए। अदालत ने इसकी मंज़ूरी दी और अगली रिपोर्ट आने तक कवि को हिरासत में भेज दिया। 

जिस दिन कंपनी वाले वाले कवि की दिमाग़ की कोशिकाओं का नमूना लेने आए, उस से ठीक कुछ समय पहले कवि ने जेल की दीवार पर एक और कविता लिखी। अपनी पहले वाली कविता में ही कुछ और जोड़ कर। परन्तु हैरानी की बात ये थी कि जैसे-जैसे कोई उस कविता को पढ़ना शुरू करता, पढ़े जा चुके अक्षर ग़ायब होने लगते और अंत में पूरी कविता ग़ायब हो जाती। साथ ही पढ़ने वाले को दिमाग़ी बुखार आ जाता और वो भी सोचने और समझने की कोशिश करता। 
 
इस बीच कंपनी ने एनाटॉमी की रिपोर्ट सील बंद लिफ़ाफ़े में अदालत में पेश कर दी। सुनवाई की अगली तारीख़ तय हो गई थी। सुनवाई वाले दिन सिपाही कवि को बैरक से लेने गया और बोला, “चल रे तेरा केस है आज।” 

कवि उसी दीवार से सटा बैठा था जिस पर उसने कविता लिखी थी, दीवार पर सर का पिछला हिस्सा टिका कर बैठा हुआ था, उसने जैसे कुछ सुना ही नहीं। 

सिपाही ने हल्की सी लात मारकर फिर कहा, “चल कामरेड।” 

कवि एक तरफ़ लुढ़क गया। अब वो कवि नहीं रहा था। 

बाहर खड़े एक बड़े रिपोर्टर के नए-नए बने असिस्टेंट ने रिपोर्टर से कहा, “सर क्यों ना उस दीवार पर लिखी कविता पर कवर स्टोरी बनाएँ?” 

“धत्त, उसे कौन देखेगा, उससे टीआरपी थोड़ी बढ़ेगी, वो देख सामने कवि के स्लीपर्स पड़े हैं, उस पर कवर स्टोरी बन सकती है, कामरेड कवि के चाइनीज़ स्लीपर का असली सच . . .”

और वो कविता दीवार उड़ कर आसमान में कहीं खो गई, किसी फीनिक्स की तरह, कहीं और जाकर अपनी ही राख से दोबारा जन्म लेने के लिए . . . 

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