यहाँ ख़ामोश नज़रों की गवाही
शायरी | ग़ज़ल आशुतोष द्विवेदी21 Apr 2015
यहाँ ख़ामोश नज़रों की गवाही कौन पढ़ता है?
मेरी आँखों में तेरी बेगुनाही कौन पढ़ता है?
नुमाइश में लगी चीज़ों को मैला कर रहे हैं सब,
लिखी तख़्तों पे - "छूने की मनाही" कौन पढ़ता है?
जहाँ दिन के उजालों का खुला व्यापार चलता हो,
वहाँ बेचैन रातों की सियाही कौन पढ़ता है?
ये वो महफ़िल है, जिसमें शोर करने की रवायत है,
दबे लब पर हमारी वाह-वाही कौन पढ़ता है?
वो बाहर देखते हैं, औ' हमें मुफ़लिस समझते हैं,
खुदी ज्ज़्बों पे - अपनी बादशाही कौन पढ़ता है?
जो ख़ुशक़िस्मत हैं, बादल-बिजलियों पर शेर कहते हैं,
लुटे आँगन में मौसम की तबाही, कौन पढ़ता है?
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
ग़ज़ल
कविता
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं