अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

साहित्य के लोकतंत्र के लिए असहमति अति आवश्यक—विष्णु नागर

हिन्दू कॉलेज में एक दिवसीय कार्यशाला का आयोजन

 

दिल्ली। “सोचना और लिखना ऐन्द्रिक कार्य है जिसमें ज्ञान और भाव इकट्ठे चलते हैं। क़लम को चलाना सबसे ज़रूरी है क्योंकि इसी से सारी शुरूआत होती है।” विख्यात आलोचक और दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व समकुलपति प्रो. सुधीश पचौरी जी ने उक्त विचार हिन्दू कॉलेज में आयोजित एक दिवसीय कार्यशाला 'पुस्तक समीक्षा-क्या, क्यों और कैसे' में व्यक्त किए। इस एकदिवसीय कार्यशाला का आयोजन हिंदी विभाग और आइ क्यू ए सी के संयुक्त तत्त्वावधान में हुआ जिसमें देश भर से सवा सौ से अधिक प्रतिभागियों ने प्रत्यक्ष और ऑनलाइन माध्यम से भागीदारी की। 

प्रो. पचौरी ने फ़िल्मों का उदाहरण देते हुए कहा फ़िल्म देखने के पश्चात फ़िल्म के बारे में बनी हमारी समझ ही समीक्षा है। समीक्षा के लिए किसी भी पाठ के मानी पाठ के भीतर से ही खोजे जाने की ज़रूरत पर बल देते हुए उन्होंने कहा मीडिया ने आज आलोचना को दरकिनार कर दिया है। उन्होंने कविता समीक्षा के औज़ारों को स्पष्ट करते हुए कहा कि कविता अपने मायने स्वयं अंदर दबाए रहती है। जो मायने दबा दिए गए हैं वह हमें अपनी कल्पना और बुद्धि से बाहर लाने होते हैं। प्रो. पचौरी ने संरचनावाद और उत्तर संरचनावाद जैसे सिद्धांतों के माध्यम से नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता 'अकाल और उसके बाद' का पाठ-विश्लेषण कर प्रतिभागियों को समीक्षा की गहराइयों से अवगत करवाया। उन्होंने कहा यदि पुस्तक समीक्षक बनना है तो यह ना सोचिए कि इस पुस्तक पर पहले क्या लिखा गया है। 

इससे पहले कार्यशाला का उद्‌घाटन सुविख्यात लेखक और पत्रकार विष्णु नागर ने दीप प्रज्ज्वलन से किया। नागर ने विभिन्न प्रसंगों और उदाहरणों द्वारा समीक्षा की ज़रूरतों, समीक्षा और आलोचना में अंतर को सरल शब्दों में प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि समीक्षा और आलोचना को अकादमिक दुनिया के बंद दायरों से बाहर निकाल कर ही स्वस्थ रचनात्मक वातावरण बनाया जा सकेगा। उन्होंने साहित्य के लोकतंत्र के लिए असहमति को अति आवश्यक बताते हुए कहा कि यह बुलडोजर समय है जिसमें साहित्य ही नहीं संसार का लोकतंत्र भी ख़तरे में है। नागर ने अपने द्वारा सम्पादित पत्रिकाओं 'कादम्बिनी' और 'शुक्रवार' के कुछ रोचक संस्मरण भी प्रस्तुत करते हुए कहा कि दुर्भाग्यपूर्ण है कि समीक्षा से अप्रसन्न होकर अनेक रचनाकार समीक्षकों और सम्पादकों से शत्रुतापूर्ण व्यवहार करने लगते हैं। उन्होंने व्याख्यान के अंत में कहा कि लेखक ने जो पहले कहा है ज़रूरी नहीं कि वह आज अपनी उसी बात से सहमत हो, लोगों के विचार बदलते हैं जिन्हें समझना चाहिए। हिंदी विभाग के प्रभारी प्रो. रामेश्वर राय ने कार्यशाला की प्रस्तावना रखते हुए पुस्तक समीक्षा की सैद्धांतिकी और व्यावहारिकी की नवोन्मेषी स्थापना पर बल दिया। उन्होंने कहा कि आलोचना एक मोहल्ला है तो समीक्षा उस मौहल्ले का एक घर है। प्रो. राय ने कहा कि बदलते हुए परिदृश्य में हिंदी विभागों को भी अपने समय की ज़रूरतों के अनुसार विभिन्न प्रयोग करने होंगे। 

कार्यशाला के दूसरे सत्र में सुविख्यात प्राध्यापक व लेखक प्रो. गोपाल प्रधान ने 'कथा समीक्षा की चुनौतियाँ' विषय पर समीक्षा और साहित्य की सृजनात्मकता की व्याख्या करते हुए कहा सत्ता की आलोचना करने का कोई ना कोई रचनात्मक तरीक़ा रचनाकार निकाल ही लेता है। प्रो. प्रधान ने आलोचना की परिभाषा को प्रस्तुत करते हुए कहा कि यथार्थ या वास्तविकता को पाठकों के सामने रखना ही आलोचना है। उन्होंने पंचतंत्र का उदाहरण देते हुए कहा कि जब हम मानव को सामने रखकर आलोचना नहीं कर पाते तब हम मानवेतर प्राणियों के माध्यम से मानव समाज के आलोचना करते हैं। सच्ची समालोचना को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा कि पक्षपात से दूर ले जाने वाला आलोचना कर्म ही सच्ची समालोचना कहलाने का अधिकारी है। एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि समस्त लेखन रचनात्मक है। स्वान्तः सुखाय होते हुए भी लेखन दूसरों के लिए ही लिखा जाता है। गद्य में भी संगीत होता है। पूरी पंक्ति एक अर्थ की उद्भावना करती है जिसमें से एक भी शब्द हटाया नहीं जा सकता। 

चौथे और अंतिम सत्र में युवा आलोचक और 'बनास जन' के सम्पादक डॉ. पल्लव ने कथेतर विधाओं की समीक्षा पर व्याख्यान दिया। उन्होंने कथेतर को परिभाषित करते हुए बताया कि ऐसा गद्य जो व्याकरण की शर्तों पर कथा न हो लेकिन जिसका आस्वाद कथा जैसा हो। कथेतर में आत्मकथा, जीवनी, यात्रा आख्यान, संस्मरण, रेखाचित्र, डायरी, रिपोर्ताज़, निबंध, साक्षात्कार, पत्र और आख्यान जैसी रचनाओं को शामिल करते हुए उन्होंने इनके स्वरूप पर विस्तार से चर्चा की। उन्होंने कहा कि गद्य के प्रचलित कथा माध्यम जब यथार्थ के उदघाटन में कमज़ोर दिखाई दे रहे हों तब कथेतर विधाएँ अपने समय और समाज का सच्चा मूल्यांकन करने लगती हैं। उन्होंने प्रतिभागियों से पुस्तक समीक्षा के व्यावहारिक पक्षों की चर्चा में कहा कि समीक्षा से पूर्व अध्ययन बहुत आवश्यक है। 

कार्यशाला में हिंदू कॉलेज के प्राध्यापक प्रो. हरींद्र कुमार, डॉ. अरविन्द सम्बल, डा धर्मेंद्र प्रताप सिंह, नौशाद अली, रमेश कुमार राज, डॉ. प्रज्ञा त्रिवेदी और डॉ. स्वाति सहित अनेक विश्वविद्यालयों के शोधार्थी, विद्यार्थी और अध्यापकों ने भाग लिया। आयोजन स्थल पर राजकमल प्रकाशन और रचयिता समूह द्वारा कार्यशाला विषयक पुस्तकों की प्रदर्शनी लगाईं गई थी। 

जसविंदर सिंह
प्रथम वर्ष, हिंदी विभाग
हिंदू महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय

साहित्य के लोकतंत्र के लिए असहमति अति आवश्यक—विष्णु नागर

हाल ही में

प्रगतिवादी काव्य की सामान्य प्रवृत्तियाँ संगोष्ठी संपन्न, युवा उत्कर्ष साहित्यिक मंच, तेलंगाना

युवा उत्कर्ष साहित्यिक मंच (पंजीकृत न्यास)…

नदलेस ने की अनामिका सिंह अना के नवगीत संग्रह ‘न बहुरे लोक के दिन’ पर परिचर्चा

दिल्ली। नव दलित लेखक संघ ने अनामिका सिंह…

अश्विनी कुमार दुबे के कहानी संग्रह ‘आख़िरी ख़्वाहिश’ के लोकार्पण एवं समकालीन कथा साहित्य पर चर्चा

  बेहतर आदमी तो समाज और साहित्य के…

रचनाओं को परिष्कृत करने के लिए उन पर चर्चा ज़रूरी—अश्विनी कुमार दुबे

  क्षितिज साहित्य संस्था द्वारा होली…

पुनीता जैन को ‘श्री प्रभाकर श्रोत्रिय स्मृति आलोचना सम्मान’

  16 मार्च 2024 को मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा…

अन्य समाचार