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तेजेन्द्र शर्मा की कविता : जीवन का बहुरंग

तेजेन्द्र शर्मा  बहुमुखी पप्रतिभा के साहित्यकार हैं। प्रवासी कहानियों में उनका कोई तोड़ नहीं है। कहानियों की प्रस्तुति इतनी मार्मिक और शानदार करते हैं कि लगता है कोई फ़िल्म चल रही है। बहुत कम लोग जानते हैं कि कविता तेजेन्द्र शर्मा की प्रिय विधा है। वह जिस मन से कविताएँ और ग़ज़लें लिखते हैं उसी मन से उसे पढ़ते और गाते भी हैं। तेजेन्द्र शर्मा की कविताओं पर पर कुछ लिखूँ उससे पहले एक कहानी सुनाती हूँ। 'बात उन दिनों की है जिन दिनों हिंदी के प्रख्यात साहित्यकार विष्णु प्रभाकर बंगला के अप्रतिम कथाकार शरत चंद्र की जीवनी 'आवारा मसीहा' लिख रहे थे। उन्हीं दिनों शरतचंद से मिलने के लिए जब वह बंगाल पहुँचे तो पता चला कि, आजकल शरतचंद किसी वेश्यालय में रह रहे हैं। अपने प्रिय रचनाकार की इस घटना ने विष्णु जी को अचंभित किया। वह जानते थे शरत चंद महान और लोकप्रिय साहित्यकार हैं के साथ सम्मानित व्यक्ति भी हैं। ख़ैर, वह जब शरत जी से मिले  तो कारण पूछे। शरत जी ने बताया- 'आजकल 'चरित्रहीन' लिख रहा हूँ। जो  वेश्याओं के जीवन से जुड़ा है। साहित्यकार को कभी भी अपने जीवन-अनुभव से बाहर का लेखन नहीं करना चाहिए।' इस घटना का ज़िक्र मैंने अनायास नहीं किया। कोरा मनोरंजन या रोमांचकता साहित्य का उद्देश्य हो ही नहीं सकता। जब तक अनुभव नहीं होगा साहित्य जीवन के आस-पास हो ही नहीं सकता। तेजेन्द्र शर्मा अपनी कहानियों में जीवन के भोगे हुए अनुभवों को अभिव्यक्त करते हैं। अपनी कविताओं में भी इस अनुभव को नहीं छोड़ते हैं। छोटे-छोटे शब्दों से कविता में भावनाओं का ऐसी विशाल दुनिया रच देते हैं जिससे होकर गुज़रना अपने आप से गुज़रना है। देखें एक कविता- 

“पत्तों ने ली अँगड़ाई है
क्या पतझड़ आया है
इक रंगोली बिखराई है
क्या पतझड़ आया है
पश्चिम में जैसे आज पिया
चलती पुरवाई है
क्या पतझड़ आया है?

कविता हर बंध में नए भावों से जुड़ कर सुंदर भावों को जीवंत करती है- 

“पत्तों ने कैसे फूलों को
दे डाली एक चुनौती है
सुंदरता के इस आलम में
इक मस्ती छाई है
क्या पतझड़ आया है?”

जीवन के प्रति आस्था हो तो व्यक्ति कभी उदास या परेशान नहीं हो सकता है। कविता के केंद्र में पतझड़ है लेकिन कवि उसी पतझड़ में जीवन का अनुराग ढूँढ़ लेता है। उसे इससे जो नयापन दिखाई देता है वही जीवन का स्थायी भाव है। कुछ लोग दुख को दुख नहीं अच्छे दिनों का आधार मानते हैं- 

“कुदरत ने देखो पत्तों को
है एक नया परिधान दिया
दुल्हन जैसे करके शृंगार
सकुची शरमाई है
क्या पतझड़ आया है?
पत्तों ने बेलों ने देखो
इक इंद्रधनुष है रच डाला
वर्षा के इंद्रधनुष को जैसे
लज्जा आई है
क्या पतझड़ आया है?

स्वयं कवि साहित्य के लिए अनुभव को महत्व देता है। अपने एक साक्षात्कार में वह कहते हैं- “लेखन मेरे लिए आवश्यकता भी है और मजबूरी भी। जब कभी ऐसा कुछ घटित होते देखता हूँ जो मेरे मन को आँदोलित करता है तो क़लम स्वयमेव चलने लगती है। मेरे लिए लिखना कोई अय्याशी नहीं है, इसीलिए मैं लेखन केवल लेखन के लिए जैसी धारणा में विश्वास नहीं रखता। लिखने के पीछे कोई ठोस कारण और उद्देश्य होना आवश्यक है और न ही मैं स्वांतः सुखाय लेखन की बात समझ पाता हूँ।”1 

तेजेन्द्र शर्मा की कविताओं में जीवन के प्रति स्नेह है वह कभी भी कम नहीं होता है। उनके यहाँ यहाँ प्रेम में  कोई शर्त नहीं है। वह घनानन्द और कबीर की भाँति स्वच्छन्द है, लेकिन उस स्वछंदता  में जो ख़ूब ठोस प्रेम है, वही जीवन का सच है। उसमें जो समर्पण और एकनिष्ठता है वह  प्रेम का चरमोत्कर्ष है। प्रेम की अक्सर परिणति वियोग ही है लेकिन वियोग ही  जब प्रेम का आनंदवास बन जाए तब ये ग़ज़ल की ये पंक्तियाँ सृजित होती हैं-

“नज़र जो तुमने फेर ली, नहीं है कोई गिला
मेरी वफ़ाओं का अच्छा दिया है तुमने सिला
तुम्हें समझ सकूँ, ये बस में नहीं था मेरे
मेरी नज़र का वो पैग़ाम, कहाँ तुमको मिला।”

प्रेम की सबसे बड़ी विडम्बना यही है कि उसमें किसी भी तरह की वादा ख़िलाफ़ी नहीं चलती है। प्रेम की संभावना हर उस जगह होती है, जहाँ समर्पण होता है। प्रेम के उन क्षण को कौन नहीं जीना चाहता है। समय न हो तो प्रेम किया जा सकता है। उसे महसूसा जा सकता है, लेकिन ज़िन्दगी ही न हो तो क्या किया जाए। ऐसी ही पीड़ाओं को आत्मसात कर जीने वाले प्रेमियों के लिए इससे अच्छी कविता क्या हो सकती है-

“है तुमने ग़ैर की आँखों में बसेरा जो किया
ये दिल है टूट गया और मेरा वजूद हिला
न तुम से कोई थी उम्मीद, न शिकायत ही
न सही जाम, मुझको एक घूँट ज़हर पिला।”

कवि के रूप में तेजेन्द्र शर्मा की शब्द यात्रा बताती है कि भावनाएँ कभी मरती नहीं हैं बेशक जीने की उम्मीद ख़त्म हो जाए। अंतिम समय तक व्यक्ति अपनी भावनाओं का सम्मान करने के लिए संघर्ष करता है और जब तक संघर्ष जीवित है प्रेम भी जीवित रहेगा। प्रेम का संघर्ष सामान्य संघर्ष से अलग होता है जहाँ आप कोई प्रतिरोध नहीं कर सकता है। किसी तरह से भी कोई नफ़रत नहीं कर सकता है बल्कि नफ़रत मिलने के बाद भी उसे प्यार करना होता है-  

“प्रेम की तेरे सितम से मेरी आँख क्यों न होगी नम
मैं भी इन्सान हूँ, पत्थर की नहीं कोई शिला।”

कवि जब अपनी बात को सहजता से नहीं कह पाता तो कल्पना का सहारा लेता है। तेजेन्द्र शर्मा भला कविता की इस शर्त से दूर कैसे हो सकते है। उनकी कविता में जो कल्पना है वह यथार्थ तक पहुँचने का केवल माध्यम है। कवि के पास जो प्रतीक, बिम्ब और उपमान हैं वह स्मृति में ठहरे हुए प्रेम को प्रवाह में बदल देते हैं, ऐसे प्रवाह में जिसमें बहकर किसी किनारे लगना बहुत कठिन है। स्मृति में प्रेम की सुन्दर छवियाँ हों तो जीवन कठिन से कठिन समय में सरल लगने लगता है। कवि के पास स्मृतियों का सुखद संसार है-

“जो तुम न मानो मुझे अपना, हक़ तुम्हारा है। 
यहाँ जो आ गया इक बार वो हमारा है।
तरह तरह के परिन्दे बसे हैं आके यहाँ। 
सभी का दर्द मेरा दर्द बस ख़ुदारा है।”

कुछ कविताएँ तो जीवन सत्य को इतने खुरदुरे पन से सामने लाती हैं कि, आप सोचते रह जाएँगे ये क्या हुआ। कुछ कविताएँ अचानक से ऐसे अंदर उतरती हैं जैसे कोई तेज़ रोशनी उतरकर मन के ऐसे हिस्से को दिखा देती है जहाँ हमारी ही चेतना नहीं पहुँच पाती।  

कवि जब प्रेम करता है तो स्त्री के प्रति उसकी आस्था ऐसे कम हो सकती है। वह स्त्री को सम्मान दिए बिना प्रेम कैसे कर सकता है। कवि भी उसी भावना से गुज़रता है। उसे भी स्त्री की स्थिति का अंदाज़ा है। वह जानता है कि महिलाओं को केवल देह समझा जाता है। कवि स्त्री जीवन के प्रति अपनी संवेदना व्यक्त करते हुए कहता है-

“औरत को ज़माने ने बस जिस्म ही माना है
क्या दर्द उसके दिलका कोई नहीं जाना है।” 

स्त्री आज केवल देह बनकर रह गई है। घर से लेकर ऑफ़िस तक उसको केवल जिस्म समझा जाता है। स्त्री की इस विडम्बना को जब एक पुरुष लिखता है तो कविता अपने आप बड़ी हो जाती है। समाज का कोई भी हिस्सा हो महिलाएँ हाशिए पर रही हैं क्योंकि उसके साथ पहला शोषण उसके घर से ही शुरू हो जाता है। कवि इस बात को समझता है- 

“बाज़ार में बिकती है घरबार में पिसती है
दिन में उसे दुत्कारें, बस रात को पाना है।”

प्रवासी जीवन की तमाम विडंबनाएँ भी तेजेन्द्र जी की कविताओं को देखने मिलती है। लगभग तीन दशकों से लंदन में रह रहे तेजेन्द्र शर्मा को यह बख़ूबी समझ आ गया है कि उनका पासपोर्ट ही उनकी पहचान है। जो उन्हें वहाँ रहने की अनुमति देता है। पासपोर्ट प्रवासियों की अस्मिता का सवाल बनकर उनके जुड़ा खड़ा रहता है। कवि उसी पासपोर्ट के माध्यम से अपने अंदर अपने देश को महसूसता है-

“मेरा पासपोर्ट नीले से लाल हो गया है
मेरे व्यक्तित्व का एक हिस्सा
जैसे कहीं खो गया है.
मेरी चमड़ी का रंग आज भी वही है
मेरे सीने में वही दिल धड़क़ता है
जन गण मन की आवाज़, आज भी
कर देती है मुझे सावधान !
और मैं, आराम से, एक बार फिर
बैठ जाता हूँ, सोचना जैसे टल जाता है
कि पासपोर्ट का रंग कैसे बदल जाता है।”

यह बिलकुल सच है कि प्रवासी साहित्यकार हिंदी के विस्तार में सबसे ज़्दाया मेहनत करते हैं। हिंदी उनके लिए केवल एक भाषा ही नहीं अस्मिता का प्रश्न भी है। जब हिंदी के साथ बाज़ार जैसा व्यवहार किया जाता है तो वह दुखी होता है। कवि इसी बात को व्यंग्यात्मक भाषा में लिखता है- 

“हम उनके  क़रीब आये, 
और उनसे कहा
भाई साहिब, 
हिन्दी की दो पुस्तकों का है विमोचन  .
यदि  आप आ सकें , 
और  संग औरों को भी ला सकें 
तो हिन्दी की तो होगी  भलाई,
और  हो जायेगा प्रसन्न
हमारा तन और मन!”

यह कितनी बड़ी विडंबना है कि जो भाषा हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा है। जिस भाषा ने हमें बोलना सिखाया उसी भाषा को हम लाचार बनाकर प्रस्तुत करते हैं। हिंदी की रोटी खाने वाले लोग अपने आपको हिंदी का सेवक कहते हैं। हिंदी को सेवा की नहीं समर्थन की ज़रूरत है। सम्मान की ज़रूरत है। कवि उसी कविता में आगे लिखता है-

“सुनकर वो मुस्कुराये,
अपने लहजे में हैरानी भर  लाये
हिन्दी की दो दो पुस्तकों का  विमोचन
एक  साथ! और  वो भी लंदन में!
यह  आप में ही है  दम !
वैसे किस दिन रखा है  कार्यक्रम?”

इस कविता की एक विशेषता यह है कि कवि पूरी घटना का बिम्ब बनाते हुए आगे बढ़ता है जैसे दो लोग आपस में बात कर रहे हैं। आप भी देखें-

“शनिवार  शाम को रखा है  भाई
आप तो आइये ही, अपने मित्रों
को भी लेते आइयेगा
कार्यक्रम की शोभा बढ़ाइयेगा।”

कवि हिंदी को बेचारी कहकर उसे बेचारा नहीं बताना चाहता है बल्कि अपनों द्वारा की जा रही उसकी दुर्दशा और अपमान पर व्यंग्य करता है। यह व्यंग्य हमारे जीवन की विसंगति है। हिंदी लोकार्पण और बाज़ार में आकर उलझ गई है। अँग्रेज़ी उसके लिए अगर चुनौती बनी है तो वह भी अपनों के ही कारण-

बेचारी हिन्दी!
सुपर मार्केट , आराम और  एग्ज़ाम
के  बीच फँसी खड़ी है 
समस्या बहुत बड़ी है .
हिन्दीभाषी को लगता है 
कि  जैसे वह  अंग्रेज़ी बोलने वाले
का दास है 
हिन्दी यदि  बहू 
तो अंग्रेज़ी सास है।”

कवि को विदेश में रहते हुए अपने गाँव की भी याद आती है। उसे इस बात का दुख है कि गाँव उससे छूट रहा है। अब वह उसके सपनों से भी दूर हो चुका है। कवि अपने गाँव और समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी और प्रेम का ध्यान रखते हुए भी कुछ नहीं कर पाता है क्योंकि वह अब विदेशी संस्कृति और जीवन को इतना अपना चुका है कि अपनी ज़मीन की जड़ों को भूल गया है। कवि लिखता है-

बहुत दिन से मुझे
अपने से यह शिकायत है
वो बिछड़ा गाँव, मेरे
सपनों में नहीं आता .
वो भोर का सूरज, वो बैलों की घंटियाँ
वो लहलहाती सरसों भी
मेरे सपनों की चादर को
छेद नहीं पाते .
और मैं 
सोचने को विवश हो जाता हूँ
कि इस महानगर की रेलपेल ने
मेरे गाँव की याद को
कैसे ढंक लिया !

इस प्रकार देखें तो तेजेन्द्र शर्मा की कविताओं में जीवन की छोटी-छोटी अनुभूतियों को महत्व दिया गया है। अपने समाज और गाँव के प्रति उनका प्रेम भी इनकी कविताओं में देखा जा सकता है। भाषा और शिल्प दोनों स्तरों पर कविताएँ समृद्ध हैं। 

प्रो. रमा 
प्राचार्या, हंसराज कॉलेज
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली 
संपर्क- 9891172389

संदर्भ:

  1.  https://hindi.webdunia.com/article/hindi-poet-interview


 

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