प्रवासी संवेदना के कवि तेजेंद्र शर्मा जी
रचना समीक्षा | डॉ. सुरीति रघुनंदन‘इस महानगर ने अपनी झोली में मेरे लिये न जाने क्या छुपा रखा है कि यही मेरी कर्मभूमि बन गया है।’
ब्रिटेन जैसे देश में हिंदी को सम्मान दिलवाने वाले हिंदी की पताका को गर्व से लहराते हुए, हिंदी गौरव माननीय तेजेंद्र शर्मा जी लंबे अरसे से कहानी विधा को नए आयाम प्रदान करते आ रहे हैं। लेकिन कथाकार के साथ-साथ उनके भीतर का कवि भी काव्यात्मक सौष्ठव की सुगंध साहित्य में बिखेरता रहता है। कहीं प्रवासी संवेदनाएँ विचलित करती है। अपनों की यादें रह-रह कर घेरे रहती है। मन सहज ही कह उठते हैं-
तुम्हारी याद की इंतिहा ये है
कि हीरे से कांच तक
सोने से पीतल तक
और रद्दी से अनमोल तक
हर शै से जुड़ी हैं तेरी यादें।
प्रवासी अपना देश छोड़ कर दूसरे देश में जाकर बस जाता है। देश से दूर जाने के कई कारण होते हैं। आर्थिक उन्नति, विवाह के उपरांत अपने जीवन-साथी के देश में बस जाना तथा, उच्च शिक्षा प्राप्ति हेतु विदेश में जाना, कारण कोई भी हो। देश छोड़ना भौगोलिक दूरी ही नहीं बल्कि मानसिक दूरी अधिक अनुभव होने लगती हैं। अपने परिवार, दोस्तों रिश्तेदारों से बिछड़ने की बात सोचने मात्र से ही जहाँ पीड़ा होती वहाँ जब वास्तविक जीवन में ऐसा होता है तो बहुत कठिन होता है अपने को समझाना और सँभालना।
कुछ रिश्ते थे
सर्दी में गरम कंबल से।
......
अचानक कहाँ खो गए, वो रिश्ते
रिश्तों को समझना चाहता हूँ।
प्रवासी संवेदना की सूक्ष्म से सूक्ष्मतम इकाई को तेजेंद्र जी की क़लम ने बहुत सादगी और गहराई से विश्लेषण करते हुए पृष्ठों पर अंकित किया है। प्रवासी दिल के मनोविज्ञान को बहुत अच्छी तरह समझा है तभी वह अपने ग़ज़ल में नए देश को अपना बनाने की बात कहते हैं
‘यह घर तुम्हारा है इसको न कहो बेगाना।’
अजनबीपन के दोशाले को प्रवासी भारतीय जितनी शीघ्रता से उतार फेंके उसके विकास के रास्ते उतनी ही शीघ्रता से बनने लगेंगे। स्वदेश के सपनों में खोया मन वास्तविकता को स्वीकार नहीं करता। मन की द्वन्द्वात्मक स्थिति सामंजस्य के उपाय नहीं कर पाती।
अन्य प्रवासी भारतीयों की तरह लंदन कोई नई दुनिया नहीं थी तेजेंद्र जी के लिए। ‘एअर इंडिया’ में नौकरी करते हुए वह कई बार लंदन आते-जाते रहे। अन्य देशों की भी यात्रा की। जिससे उनके लिए प्रवासी देश की जीवन-शैली उतनी नई नहीं रही होगी जितनी की पहली बार अपना देश छोड़ने पर किसी प्रवासी को लगती होगी। हम इस बात से भी इंकार नहीं कर सकते कि अल्पावधि के लिए आने में और स्थायी रूप से रहने में बहुत अंतर होता है। ‘प्रतिलिपि’ को दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने स्वयंम् कहा है कि, ‘जिस प्रकार हर लड़की अपनी इच्छा से विवाह करके मायका छोड़ती है और ससुराल पहुँचती है परंतु अपनों से दूर होने की कसक बहुत कुछ पीछे छूटने का दर्द अनुभव होना स्वाभाविक ही होता है। ठीक उसी प्रकार मैंने भी लंदन में बसने का निर्णय लिया था। किसी देश का हिस्सा बने बिना हम लेखन को स्वाभाविक नहीं बना सकते हैं।’
‘कहाँ-कहाँ के परिंदे बसे हैं आ के यहाँ
सभी का दर्द मेरा दर्द, बस खुदारा है।’
तेजेंद्र शर्मा जी की कविताओं में काल्पनिकता कहीं भी नहीं दिखाई देती हैं। यथार्थवादी दृष्टिकोण रखते हुए अपने काव्य संग्रह ‘मैं कवि हूँ इस देश का’ में अंग्रेज़ी में भी उनकी कविताओं का अनुवाद है जो कि उन्हें प्रवासी देश के स्थानीय लोगों तथा भारत के मध्य सेतु बनाने का कार्य बख़ूबी निभाएगा।
जन्मभूमि की सभ्यता जहाँ उनमें संवेदना जगाए रखती है वहीं दूसरी ओर लंदन की बरसात सुखद और पतझड़ में हरे पत्ते और हरे लगते हैं। टेम्स नदी और गंगा मैय्या में अनायास ही तुलना करवा देती है। व्यावहारिकता के साथ जीते हुए भी तेजेंद्र शर्मा जी संवेदनाशून्य नहीं हुए। तभी तो उनकी लेखनी कह उठती है-
पानी है मटियाया गोरे हैं लोगों के तन
माया के मकड़ जाल में नहीं दिखाई देता मन।
......
जी लगाने के कई साधन है टेम्स नदी के आस-पास
गंगा मैय्या में जी लगता है हमारा अपना विश्वास।
स्वार्थ की पराकाष्ठा पार करते रिश्ते संवेदनशील मानव को भीतर तक विचलित कर देते हैं। जहाँ हम सम्बंधों को दिल की ज़मीन पर पनपते देखने के आकांक्षी होते हैं वहीं वतन से दूर बैठे हमारे अपने ही जब धन संपत्ति को लेकर राजनीति करने लगते हैं। कभी-कभी तो यूँ लगता है कि प्रवासी भाई-बहन को तो जीवित ही मृतक मान लिया गया हो क्योंकि फोन ही रिश्ते निभा रहा है वो भी तब स्वदेश से कोई भूली-भटकी फोन की घंटी की आवाज़ आती है जब कोई मतलब हो या पैसे की आवश्यकता हो। वरना कभी-कभी तो प्रवासी बंधुओं के साथ ऐसी भी घटनाएँ घटित होती हैं बहुत प्रेम से अपनों को फोन किया और उत्तर मिलता है “जल्दी बात करो कोई ज़रूरी काम है हम बहुत व्यस्त हैं।” भावनाओं की इतनी बेक़द्री होते देख अश्रु-धारा बह उठती है। लेकिन अफ़सोस कि उन अश्रु के रूप में छिपी पीड़ा को देखने वाला और अनुभव करने वाला कोई नहीं होता। एकाकीपन का दंश प्रवासी व्यक्ति अकेला झेलता है। भावात्मक टूटन, घुटन, चटकन की आवाज़ें मात्र स्वयं तक सीमित रह जाती हैं। प्रवासी संवेदना को सजीवता प्रदान करने में तेजेंद्र शर्मा जी का कोई जवाब नहीं –
रिश्तों की अहमियत अब ख़त्म सी होने लगी
भेस में अपनों के देखों पल रहे अब साँप हैं।
.......
जब तलक काम था मैं धड़कनों में था उनकी
अब मेरे नाम से ही दिन ख़राब हो जाते हैं।
नए देश में जाने पर भारतीयों को विदेशी भाषा की समस्या आती है जो कि स्थानीय लोगों के साथ सामंजस्य बिठाने के लिए पहली शर्त है। मॉरीशस की स्थानीय भाषा ‘क्रियोल’ है जो कि ‘फ्रेंन्च’ का बिगड़ा हुआ रूप हैं। भाषागत जो कठिनाइयाँ यहाँ भारतीय प्रवासियों को होती है अन्य देशों की भी स्थानीय भाषा होती है। वहाँ भी भाषा सम्बन्धी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। परन्तु लंदन में तेजेंद्र जी को सौभाग्यवश ऐसी किसी समस्या से दो-चार नहीं होना पड़ा क्योंकि वह एम.ए. अंग्रेज़ी में थे और लंदन अंग्रेज़ी का गढ़ है। ऐसे में उन्हें बोलचाल संबंधित कोई कठिनाई नहीं आयी। उन्होंने स्वयंम् इस बात की पुष्टि की है कि उनकी अंग्रेज़ी स्थानीय लोग से अधिक शुद्ध है। परंतु अफ़सोस इस बात का है कि वह चाहकर भी उनकी नक़ल नहीं कर पाते हैं यहाँ जैसी ग़लत अंग्रेज़ी नहीं बोल पाते हैं-
हो जाता हूँ अकेला
वर्षों बाद भी नहीं बोल पाता
यहाँ जैसी ग़लत अंग्रेज़ी
सही बोलकर भी टटोलता हूँ अपनी नाक
नकटा तो नहीं हो गया।
क़दम-क़दम पर भावात्मक द्वन्द्व उनके सामने खड़े मिलते हैं। एक निश्चित अवधि के पश्चात नवीन देश की राष्ट्रीयता प्राप्त होती है निश्चिततौर पर भारतीय राष्ट्रीयता रद्द हो जाती है। विदेशी की मोहर लग जाती है अपने देश में आने के लिए अनुमति-पत्र लेना होता है ‘एयरपोर्ट’ पर विदेशी लोगों की पंक्ति में खड़े होकर औपचारिकताएँ निभानी होती हैं; हम अपने ही देश में अजनबी हो गए। जैसे अपने ही घर में आकर हम अतिथि बन गए। दिल में दर्द की लहरें रह-रह कर उठती हैं। पासपोर्ट के रंग के साथ-साथ सभी संबंधियों का व्यवहार भी बदला-बदला सा दिखता है।
हम पर अनगिनत प्रश्नों की बौछार अपने ही लोगों के द्वारा की जाती है यहाँ तक कि हमें अपना अस्तित्व भी बदला सा लगता है। इस मनोदशा को प्रवासी भारतीय कवि तेजेंद्र शर्मा जी ने अपनी कविता ‘मेरे पासपोर्ट का रंग’ में जीवन्त अभिव्यक्ति दी है-
मेरा पासपोर्ट नीले से लाल हो गया है
मेरे व्यक्तित्व का एक हिस्सा
जैसे कहीं खो गया।
....
मित्रों ने देशद्रोही कर दिया क़रार
मित्रों का व्यवहार कैसे छल जाता है।
कि पासपोर्ट का रंग कैसे बदल जाता है।
विदेश में रहते हुए भी भारतीय परिवारों की रसोई में भारतीय स्वादिष्ट पकवानों की ख़ुशबू आती हैं। हम किसी भी देश में चले जाए पिज़्ज़ा और बर्गर परिवर्तन के लिए तो कभी-कभी चखे जा सकते हैं लेकिन हमारे स्वाद-तंतुओं को इडली, डोसा, छोले- भटूरे ही संतुष्टि देते हैं। उसमें अपने देश का अपनापन दिखाई देता है। पारले जी के बिस्कुट के पैकेट को देखकर माँ द्वारा बिस्कुट खिलाने की याद आ जाती है। हर वस्तु के साथ बीते समय की यादें चिपकी होती हैं जो कभी भी हमसे जुदा नहीं हो सकती है। आयुर्वेदिक मंजन भारतीयता की छाप लिए है इस लिए हमारे आकर्षक का केंद्र नहीं होते बल्कि नानी, माँ पारिवारिक वातावरण का सजीव चित्र खींच देने वाले कैमरे का कार्य करते हैं।
बाज़ार में हज़ारों वस्तुएँ मिलती हैं कोई जापान, कोई ऑस्ट्रेलिया पर भारतीय वस्तुओं की ओर हमारे हाथ स्वत: ही बढ़ जाते हैं। भावात्मक लगाव हमें उनकी ओर आकर्षित करता है। अपने देश से दूरी अपनी देश की उन सब महत्वपूर्ण या महत्वहीन सभी की याद दिलाती है। दूरी ही व्यक्ति या वस्तुओं की हमारे जीवन में कितनी सार्थकता है ? इस बात की आँकड़े हमें सही-सही बता देती है। तेजेंद्र जी के अनुभव व्यष्टि से समष्टि तक की यात्रा आसानी से तय कर लेते हैं। वह मीठी- सी कसक और अपने पसंद के ब्राण्ड मिलने की खुशी चेहरे की रौनक को कई गुना बढ़ा देते हैं। इस बात का वास्तविक अनुभव तो एक प्रवासी भारतीय ही कर सकता है। तेजेंद्र शर्मा जी ने अपनी कविताओं में शाब्दिक- चित्र बहुत सुंदर रूप से उकेरे है-
सब कुछ वैसा ही है
ईलिंग रोड मुझे करता है आश्वस्त
कि मैं दूर नहीं हूँ मुंबई से
साड़ी की दुकानें, वी.बी एण्ड सन्स
मसाले, दाले सब अपने से लगते ब्राण्ड
वही अचार, वही साबुन और आयुर्वेदिक पेस्ट
कुछ भी नहीं बदला
सब कुछ वैसा ही है।
मेरा वतन मेरे साथ
यहाँ चला आया है।
छोटी-छोटी ख़िशियाँ ही परदेस में भावात्मक रूप से मज़बूती देती है। विदेश आने का निर्णय प्रवासी का स्वयंम् का होता है कारण कोई भी हो अपना देश छोड़ने का। प्रत्येक परिस्थिति में संघर्ष आपको करना ही होगा शायद संघर्ष के आकार-प्रकार में ही परिवर्तन होगा। ऐसे में प्रत्येक प्रवासी को मानसिक रूप से सुदृढ़ होना अति आवश्यक है। सकारात्मक सोच के द्वारा ही संघर्ष में भी उत्कर्ष के रास्ते निकाले जा सकते हैं। तेजेंद्र जी का दृष्टिकोण आशावादी है और यही एक विशेषता है जो उन्हें निरंतर सक्रिय बनाए हुए हैं-
मैं कवि हूँ इस शहर का
जो केंद्र है विश्व का
मैं हिस्सा हूँ इस शहर की संस्कृति का
मैंने इसे अपनाया है
अपना बनाया है
अब देश की मिट्टी
नहीं लगती पराई मुझे।
भारतीय संस्कारों को हम छोड़ नहीं पाते और प्रवासी देश की संस्कृति को हम पूर्णत अपना नहीं पाते। प्रवासी भारतीयों की बहुत बड़ी उलझन अपने बच्चों की परवरिश को लेकर होती है। प्रत्येक प्रवासी का विदेश आते ही एक ही सपना होता है की ख़ूब धन कमा कर अपने परिवार को धन भेजा जाए और अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए ऐश्वर्य का साम्राज्य खड़ा कर दिया जाए। जिससे जो संघर्ष प्रवासी भारतीयों की पहली पीढ़ी को करना पड़ा वह उन्हें ना करना पड़े। ऐसे में जो संस्कार वह भारत से लेकर आए थे उन्हें अपने बच्चों को देना भूल जाते हैं जब धन- वर्षा उनके जीवन में भरपूर मात्रा में होने लगती हैं तब वह अपने परिवार की ओर देखने की फ़ुर्सत पाते हैं तो उनको होश फ़ाख़्ता हो जाते हैं। बच्चे अंग्रेज़ी संस्कारों से लिप्त हो माता-पिता के संस्कारों को किसी भी शर्त पर अपनाने को तैयार नहीं होते। ऐसे में अभिभावकों के मनोविज्ञान का मार्मिक वर्णन तेजेंद्र जी की क़लम ने बख़ूबी किया है-
डूबे हैं गहरी सोच में
भयभीत माँ, परेशान पिता
अपने ही बच्चों में देखते हैं
अपने ही संस्कारों की चिता
....
अंग्रेज़ी भला कैसे ढोए
भारतीय संस्कृति का भार।
आधुनिक युग में जहाँ प्रत्येक आदमी अपनी भूलों को अपने दोषों को दूसरे व्यक्ति के सिर मढ़ने से परहेज़ नहीं करता है और स्वयं को सर्वगुण संपन्न समझने लगता है। वहीं सुलझे हुए विचारों का व्यक्ति अपनी भूलों को स्वीकार करता है उन्हें सुधारने की कोशिश करता है क्योंकि सफलता की पहली सीढ़ी आत्म विकास और आत्म सुधार से होती हुई जाती है।
जीवन में ग़लतियाँ होना स्वाभाविक बात है परंतु कभी-कभी हम किसी के दबाव में या भयभीत होकर कार्य करते हैं तो न चाहते हुए भी हम ग़लतियाँ पे ग़लतियाँ करते जाते हैं।
माननीय तेजेंद्र शर्मा जी ने ‘मैं कवि हूँ इस देश का’ काव्य संग्रह की भूमिका में कहा भी है कि कुछ कविताएँ मेरे लिए भी बहुत निजी होती हैं लेकिन प्रयास यही होता है कि जो मेरा निजी है वो इस प्रकार लिखा जाए कि सबका हो जाए। इंसानियत और सच्चाई में डूबा हुआ व्यक्तित्व स्वयं के लिए ही कह उठता है-
अभी पहली से निजात नहीं पाता
कि कर बैठता हूँ एक और
क्योंकि इंसान नहीं हूँ मैं
मैं हूँ एक पुतला ग़लतियों का।
प्रवासी का दर्द समय के साथ-साथ कम होता जाता है। वर्षों पूर्व जिस वतन को आपने रिश्तों की धरोहर सौंपकर आए थे वह सुरक्षित है या नहीं। कहीं कोई संबंधों में दरार तो नहीं पड़ गई। मन दुविधा में रहता है। प्रवासी दुविधा के नाज़ुक दौर से गुज़र रहा होता है।
एक पौधे को जब एक जगह से उखाड़ कर नई ज़मीन पर रोपा जाता है तो उसे भी वक़्त चाहिए होता है पनपने के लिए। मानव दिल की कोमल सतह पर कई रिश्ते सींचता हुआ नऐ रिश्तों को भी बहुत प्रेम और आदर से दिल में जगह देता है।
भारत को एक सुखद याद मानकर नए देश में सामंजस्य स्थापित करने का हर संभव प्रयास करता है ऐसे में अपने रिशतेदारों के व्यंग्य- बाण भी सहने को मजबूर हो जाता है। प्रारम्भिक दिनों में वह अपनी स्थिति को उन्हें समझाने की कोशिशें करता है इस दौर में वह इस क़दर अपनी संघर्ष यात्रा में व्यस्त होता है कि रिश्तों को उनके हाल पर छोड़ देता है और स्वयं को ही समझा लेता है-
बदल न पाओगे फ़ितरत किसी की
ये अपनी कोशिशें तुम करो तो।
कवि हृदय संवेदनशील व्यक्ति दुनिया के किसी भी देश में रहे उसको सम्पूर्ण विश्व ही अपना कुटुम्ब लगता है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भावना से ओत- प्रोत सुप्रसिद्ध कथाकार और कवि श्री तेजेंद्र शर्मा जी की लेखनी पक्षपात नहीं करती चाहे घटना भारत में घटित हो या लंदन से उन के मन पर समान प्रभाव पड़ता है। आतंकवादी हमलों के नकारात्मक प्रभाव प्रत्येक देश पर एक से ही रह्ते हैं। तभी तो कई कविताओं में उनका हृदय चीत्कार कर उठता है। हृदयविदारक दृश्य आँखों के समक्ष आ जाता है –
बच्चों की लाशें हैं
औरतों के शव पड़े हैं
बमों की है गड़गड़ाहट
आया जैसे भूचाल।
मकड़ी बुन रही जाल।
युद्ध सदा ही विध्वंस लाता है विनाश कण-कण में समा जाता है। कई परिवार बिखर जाते हैं हादसों को सोची- समझी साज़िश के तहत अंजाम देना ही आतंकवादी हमलों के पीछे छिपी मानसिकता होती है मुम्बई लोकल बम्ब ब्लास्ट में हास्य कवि ‘ज्वालामुखी’ का निधन तेजेंद्र जी को अंदर तक झकझोर गया और शब्दों में छिपी पीड़ा मुखरित हो उठी :
कल तलक जो हँसाता था
हर कोई उसके लिए रोता है
वो ज्वालामुखी भी सोता है
पेशे सारे ये बात माने हैं
क्रूरता वीरता नहीं होती।
जन्मभूमि से प्रेम नैसर्गिक होता है। आत्मा का रिश्ता है। शरीर विश्व के किसी भी कोने में रहे परन्तु संवेदनाएँ सदा जीवित रहती है भारत के प्रति अपने देश के प्रति लगाव सदा बना रहता है। यह एक ऐसी ख़ुशी है जो अनमोल होती है। कर्मभूमि के प्रति कर्तव्य को निभाना भी हमारी ज़िम्मेदारी होती है अपनी सेवाएँ अपने प्रवासी देश को आख़िरी श्वास तक प्रदान करें। जिस देश की भूमि पर हम रह रहे हैं जिसका अन्न-जल ग्रहण कर रहे जिस पावन वायु में हम साँस ले रहे हैं। उसके लिए सदा बलिदान होने को तैयार रहें। कभी यूँ लगता है कि पूर्व जन्म के संस्कार ही हमें विदेशी वातावरण में आने की प्रेरणा देते हैं ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर देते हैं कि हम स्वेच्छा से जन्मभूमि से बहुत दूर एक नव जीवन प्रारम्भ कर देते हैं। तभी तो कभी हम समझ ही नहीं पाते की अपनों से दूर जाने की शक्ति हममें कैसे आ गयी थी?
मगर वो तो कुछ तो है, जो मुझको यहाँ रोके है
इसी को अब मुझे अपना वतन बनाना है।
प्रवासी जीवन के प्रारंभिक दौर में जीवन में द्वन्द्वों का मेला सा लगा रहता है। हम अकेले होकर भी अकेले नहीं होते हैं। कभी अपनी क़िस्मत को कोसते हैं तो कभी उन परिस्थितियों को जिनके कारण हमें अपने देश से अपने लोगों से दूर होने की पीड़ा को सहना पड़ता है। अपने देश में रहने वाले रिश्तेदारों, भाई- बहनों के प्रति ईर्ष्या का भाव भी स्वत: ही चला जाता है परन्तु जीवन रुकने का नाम नहीं –
रुकता हूँ
होता हूँ परेशान
सोचता हूँ
धीरे- धीरे वही करता हूँ
जो करता हूँ रोज़ाना
कपड़े पहनता हूँ जूते कसता हूँ
और चल देता हूँ
रेलवे स्टेशन की ओर
भारत की यादों में खोया मन धीरे-धीरे अपने हृदय पर नियंत्रण करना सीख जाता है। दिल से कम दिमाग़ से अधिक सोचने लगता है व्यावहारिकता को अपने जीवन का हिस्सा बनाकर अपने लक्ष्य की प्राप्ति हेतु जुट जाता है। अपने मन को प्रशिक्षित करना प्रारंभ कर देता हैं कि नवीन परिवेश में किस प्रकार उमंग, ऊर्जा और आशावादी दृष्टिकोण अपनाकर ही वह अपनी क्षमताओं का सदुपयोग कर पाएगा।
ऐसा नहीं कि प्रवासी संवेदनाशून्य हो जाता है अपितु वह प्रवासी देश को ईश्वर प्रदत्त एक सुनहरा अवसर मानता है जिससे वह भारत देश की सभ्यता और संस्कृति का प्रचार-प्रसार कर पाए। प्रवासी भारतीय स्वयं को इस प्रकार कर लेता है नए वातावरण में कि उसे यह शिकायत होने लगती है कि बिछड़ा गाँव मेरे सपनों में नहीं आता है। तन- मन से सामंजस्य बिठाने में सफल हो जाता है-
नार्थ लन्दन की मेट्रो के
मिले-जुले पसीने की बदबू
मेरे गाँव की मिट्टी की
सोंधी ख़ुशबू पर
क्योंकर हावी हो गई
बधुआ, हरिया और सदानंद
के चेहरों पर
जिम, टॉम और कार्ल
के चेहरे
कैसे चिपक गये।
मोटरों और गाड़ियों का प्रदूषण
गाय भैंसों के गोबर पर
कैसे भारी पड़ गया।
गागर से सागर भरने वाले कथाकार शब्दशिल्पी माननीय तेजेंद्र शर्मा जी ने प्रवासी भारतीयों के संघर्ष को सही शब्दावली से सजाते हुए कविता के रूप में मनभावक अभिव्यक्ति प्रदान करने में पूर्ण सफलता प्राप्त की है। उन्हीं के शब्दों में -
‘मेरी कविता अपने पाठक से संवाद है। मैं कविता सायास नहीं लिख सकता, जब सायास लिखना होता है तो गद्य लिखता हूँ। कभी-कभी शेर लिखने की इतनी तलब उठती है कि किसी स्टेशन पर यदि गाड़ी पाँच मिनट के लिए भी रुकती है तो मैं रफ़ काग़ज़ पर ख़्याल उतार लेता हूँ। कविता एक बुखार की तरह उतरती है, उसे रोकना संभव नहीं। मेरी प्रिय विधा ग़ज़ल है।’
लंदन की ऋतुओं से लेकर यहाँ की जीवन- शैली में तेजेंद्र जी इस प्रकार रच-बच गए हैं कि अपनी कविताओं में ग़ज़लों से लंदन की हर वस्तु, हर व्यक्ति उन्हें अपना लगता है। और बस एक दृढ़ निश्चय भी स्वयं से कर लिया है कि पीछे मुड़ कर नहीं देखना है आगे ही आगे बढ़ना। उनकी बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल सभी प्रवासी भारतीयों को यही संदेश देती है कि-
नदी की धार बहे आगे मुड़े न देखे
न समझो इसको भँवर अब यही किनारा है।
....
यह घर तुम्हारा है इसको न कहो बेगाना
मुझे तुम्हारा तुम्हें अब मेरा सहारा है।
समय के साथ-साथ हम भावनाओं और व्यावहारिक जीवन के मध्य संतुलन बनाना सीख जाते हैं। जहाँ नए देश में आते ही हम मात्र अपनी जन्मभूमि की यादों में डूबे रहते थे अश्रुधारा निरंतर बहती रहती थी बेचारगी सी लगती थी। आत्म-प्रेरणा से ही हम उस दौर को पार करते हुए निष्पक्ष दृष्टिकोण विकसित कर लेते हैं जहाँ हम अपने देश की अच्छाइयों- बुराइयों और प्रवासी देश की अच्छाइयों- बुराइयों की तुलना भी कर सकते हैं और एक सही निर्णय लेने में सक्षम होते हैं।
‘गिलहरी’ तेजेंद्र जी की एक ऐसी कविता है जहाँ पाश्चात्य संस्कृति और भारतीय संस्कृति की तुलना की गई है। गिलहरी के प्रतीक के माध्यम से भारत की ग़रीबी और अभावों से दबी जनता भी संतोष-धन से संपन्न है। भारत में जहाँ परिवारों में रिश्ते अभी भी किसी न किसी प्रकार जुड़े हुए हैं परंतु पाश्चात्य संस्कृति में रिश्तों के कोई नाम नहीं होते हैं। एक-दूसरे को नाम लेकर पुकारते हैं यहाँ ना मौसा है ना मौसी ना ही चाचा-चाची। आत्म-निर्भरता इतनी कि थोड़ा बड़े होते ही बच्चे माँ-बाप से अलग रहना पसंद करते हैं। स्वतंत्र जीवन शैली को अपनाते हुए मस्त रहते हैं। किसी के निजी-जीवन में ताँक-झाँक नहीं करते। अपने आप में हर आदमी खोया हुआ है।
मेरे बाग़ की गिलहरी को नहीं भाती
गँवई महक अमरूद की
...
मेरे शहर की गिलहरी सीधी- साधी सी
निकट है प्रकृति के
...
परिवार यहाँ नहीं होते, सब रहते हैं
अलग-अलग यह मस्त देश है।
तुम्हारे देश में है सुख, सुविधाएँ और आराम।
देखो मेरी ओर, देखो मेरे साधारण बदन को,
यह तीन उँगलियाँ जिसकी है
उसका नाम है राम। इस तरह देती है सुख
मुझे असीम, वो जो मेरे शहर की गिलहरी है।
शब्दों के जादूगर तेजेंद्र शर्मा जी की लेखनी अपने पाठकों का दिल जीतने में सफल रही है कविता और ग़ज़लों की नज़ाकत को बरक़रार रखते हुए ही उन्होंने अपनी कथा के संवादों के समान कसावट और सशक्त अभिव्यक्ति को यथावत् रखते हुए हर प्रवासी की संवेदना को अपनी कविताओं में स्थान दिया है। भावों की गंगा प्रत्येक मानव में समान रूप से प्रवाहित होती रहती हैं परंतु कवि ही भावों को आकर्षक आकार देने में पूर्णता सफल रहता है।
उनकी कविताओं में रिश्तों के प्रति लगाव है परंतु टूटन-चटकन की आवाज़ें भी निरंतर आती रहती हैं। संघर्ष में से ही उत्कर्ष के रास्ते निकलते हैं परंतु शर्त यह हैं कि हमारा दृष्टिकोण ही निर्धारित करता है कि हम सफलता का अमृत पिएँगे या फिर असफलता का विष।
तेजेंद्र जी ने जीवन की किसी भी समस्या को अपने सृजन में बाधा उत्पन्न की अनुमति नहीं दीं अपितु निरंतर वक़्त के अनुरूप अपने को ढालते हुए आगे बढ़ते रहे।
आशावादिता ही उनके जीवन की सार्थकता प्रदान करती रहेगी। कठिनाइयों के समक्ष कभी उन्होंने हथियार नहीं डाले अपितु निर्भीक हो कर सामना किया। उन्होंने अपनी ग़ज़ल में बहुत सुंदर शेर कहा है कि-
मुश्किलों में भी ए यारों मुस्कुराते रहे
इस तरह हम ज़िन्दगानि को लुभाते रहे।
.....
हर तरफ छाया अंधेरा ज़िंदगी सुनसान थीं
फिर भी हिम्मत के दिये बस जगमगाते रहें।
डॉ. सुरीति रघुनन्दन
सम्पर्क : 15- ई, बेल रोज़ (Belle Rose), रॉयल रोड, मॉरीशस
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