तेजेन्द्र शर्मा के किरदार कभी बेबस नहीं होते....
साहित्यिक आलेख | वन्दना यादववरिष्ठ साहित्यकार तेजेन्द्र शर्मा के कृतित्व पर लिखना, चुनौती भरा काम है। एक ऐसा साहित्यकार जो भारत में रहते हुए वैश्विक साहित्य रच रहा था और अब वर्षों से विदेश में रहते हुए वैश्विक साहित्य के साथ-साथ भारतीय संस्कृति पर भी लिख रहा है। जिसकी हर कहानी नया विषय, नया थीम लिए होती है। जो यह मानता है कि जब तक कुछ नया कहने को ना हो, नहीं लिखना चाहिए! यानी हर बार कुछ नया रचें! नयेपन की ललक के बावजूद शर्मा जी की कहानियों में मौत, स्त्री विमर्श और मानवीय संवेदनाएँ स्थायी चरित्र के रूप में विद्यमान रहते हैं।
तेजेन्द्र शर्मा की अब तक प्रकाशित लगभग अस्सी-ब्यासी कहानियों में अनेक बार मौत का चित्रण हुआ है परन्तु हर बार मौत अलग-अलग चरित्रों में, अलग सामाजिक स्तर में और बिल्कुल पृथक अंदाज़ में आती है। कभी-कभी ऐसा भी हुआ कि शब्दों के माध्यम से चरित्र की मौत हुई पर दरअसल लेखक ने मानवीय संवेदनाओं का मृत्यु चित्र उकेर दिया। कभी लेखक ने चेतना को आस्था के सामने मौत दी तो कभी मौत ने जीवन को नई राह दिखाई। यानी मौत को हर बार एक नया ट्रीटमेंट! यही नयापन हरबार पाठकों और शोधार्थियों को हैरान करता है।
अपने प्रिय लेखक की लेखनी पर क़लम चलाते हुए अध्यापकों और शोधार्थियों ने भी कहानियों में मौत की विविधता महसूस की। हर बार नए अंदाज़ में आई मौत का अनुभव कर पाठक का हैरान हो जाना लाज़मी है। दरअसल तेजेन्द्र शर्मा दो बिल्कुल अलग तरह के सामाजिक जीवन को, विभिन्न संस्कृतियों को एक साथ जी रहे हैं। वर्तमान में लेखक ब्रिटेनवासी हैं। ब्रिटेन को तेजेन्द्र शर्मा ने अपना लिया परन्तु भारत को छोड़ा नहीं है। यह कारण लेखन में घालमेल पैदा कर सकता था परन्तु तेजेन्द्र शर्मा ने इसे बहुत समझदारी से अपनी क़ाबिलीयत में ढाल लिया।
भारत की याद, लेखक में नॉस्टेल्जिया नहीं लाती बल्कि वह तटस्थ हो कर सामाजिक घटनाओं को नदी के तेज़ वेग की तरह बह जाने देता है। बाढ़ का पानी उतरने के बाद की शांत नदी की तरह वह हालात को समझ कर अपनी क़लम उठाता है। इसी तरह ब्रिटेन के समाज पर भी अपने लम्बे अनुभव के आधार पर वह लिखता हैं। "क़ब्र का मुनाफ़ा" कहानी इसका सटीक उदाहरण है जिस के बारे में डॉ. केशव कुमार शर्मा, डॉ. संजीव सिंह, डॉ. संगीता शरणप्पा उप्पे और पूजा गर्ग ने भी लिखा है।
शोधार्थियों ने लेखक की रचनाओं को सिर्फ़ कालजयी ही नहीं बताया उन्होंने इस कथ्य को अपने लेखों से स्थापित भी किया है। इस कड़ी में डॉ. अभिलाषा सैनी ने तेजेन्द्र शर्मा के लेखन को 'प्रवासी साहित्य में योगदान' पर अपना मत रखा है। यह सत्य है कि भारत से बाहर गए (चाहे वे अपनी मर्ज़ी से गए या जबरन ले जाए गए) रचनात्मक व्यक्तियों ने अपनी रचनाशीलता से समाज को गढ़ने में अपना योगदान दिया। इसी क्रम में बुद्धिजीवी वर्ग ने लेखन से समाज को नई पहचान दी। इस समय लगभग सभी देशों में हिन्दी साहित्य पर काम हो रहा है मगर जितना काम ब्रिटेन में हो रहा है, उतना कहीं ओर नहीं हुआ। यह काम ब्रिटेन में रह रहे सभी हिन्दी लेखक कर रहे हैं मगर व्यक्तिगत रूप से तेजेन्द्र शर्मा स्वंय तो हिन्दी को स्थापित करने में लगे ही हुए हैं, वे अपनी संस्था कथा यू. के. के माध्यम से भी हिन्दी भाषा और हिन्दी साहित्य को आगे से आगे बढ़ाने में सदैव प्रयासरत रहते हैं।
अपने प्रिय लंदनवासी लेखक के कृतित्व पर लिखते हुए युवा पीढ़ी ने अनेक पहलुओं पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। डॉ. जास्मीन पटनायक ने शर्मा जी के शिल्प विधान पर लिखा है तो दूसरी ओर चारू अग्रवाल ने कहानियों में नीहित कटु यथार्थ पर गंभीरता से अपने विचार रखे हैं। यह सत्य है कि यथार्थवाद पर कहानी रचने में तेजेन्द्र शर्मा माहिर हैं। कहानी रचने की प्रक्रिया में वे वर्तमान समाज में गहराई तक पैर जमाए बैठी समस्याओं को इस ख़ूबसूरती से उठाते हैं कि समस्या कहानी को बोझिल नहीं बनाती। शब्दों को इस्तेमाल करने में जादूगर की कूंची के माफ़िक वे अपनी क़लम चलाते हुए कुछ बिल्कुल नया और चौंकाने वाला कह देते हैं। फिर चाहे वे जातिवाद पर कहानी में निहित चरित्रों के माध्यम से पाठकों को चकित करने वाले हों या मृत्यु पर्यंत के कर्मकांडों पर प्रहार कर रहे हों।
डॉ. सोमलता सिंह 'विदेश में बसा देश' विषय पर लिखते हुए बताती हैं कि किस तरह अंग्रेज़ी माहौल में भी तेजेन्द्र शर्मा ने सप्रयास अपने भीतर भारतीयता को जीवित रख रखा है। आरती चौधरी ने उन्हीं कहानियों में बयां रिश्तों के खोखलेपन को अपने लेख का विषय बनाया है। रिश्तों के बीच पसरे ठंडेपन को लेखक ने बहुत ख़ूबसूरती से उठाया है। खोखले होते रिश्तों पर कहानीकार ने बार-बार प्रहार किया है। कभी महानगरीय जीवन इसका कारण बना तो कभी तेज़ी से बदलाव की ओर बढ़ती युवा मानसिकता ने आसान रास्ता इख़्तियार करते हुए सुविधामय ऑप्शन का चुनाव किया।
तेजेन्द्र शर्मा की कहानियों की यह ख़ूबी है कि हर पाठक को कहानियों में से अपने लिए कुछ ना कुछ मिल ही जाता है। कभी पाठक किसी चरित्र को हूबहू अपने जैसा पाता है तो कभी कहानी में विदित समस्याएँ उसके अपने जीवन का हिस्सा लगती हैं। कहानियों में वर्णित स्थान या चित्रण भी पाठकों को अपने आसपास से लिए गए लगते हैं। अनुज कुमार चौहान का लेख इसी विषय को ध्यान में रख कर लिखा गया है। उन्होंने कहानियों में 'पात्र परिकल्पना' पर लेख में विस्तार से अपने विचार रखे हैं।
साहित्यकार तेजेन्द्र शर्मा, अपनी कहानियों में संवादों का प्रयोग बहुत ख़ूबसूरती से करते हैं। टेलीविजन के लिए धारावाहिक लेखन के समय की सीख को वह इसका श्रेय देते रहे हैं। सीख़ जहाँ से भी ली अंतत: महत्वपूर्ण यह है कि यह सीख़, हिन्दी साहित्य के ख़ज़ाने को समृद्ध ही कर रही है! छात्रा यशोधरा यादव ने अपने लेख में यही बात उठाई है। संवादों के प्रयोग से कहानी गढ़ने में माहिर तेजेन्द्र शर्मा, अपनी कहानियों को संवादों के माध्यम से रोचक बनाने में तो सफल रहते ही हैं। नए प्रयोग के तौर पर इस नित-नया रचने वाले कहानीकार ने एक पूरी की पूरी कहानी ही संवादों पर रच दी! मज़ेदार बात यह है कि प्यार की इंटेलेक्चुअल जुगाली नाम की कहानी सिर्फ़ संवादों पर टिकी होने के बावजूद कहानी में कहानीपन बरक़रार है। ऐसा करते हुए हर बार कुछ नया करने की इच्छा रखने वाले तेजेन्द्र शर्मा 'कुछ नया' करने की गरज़ से कहानीपन के मूल पैरामीटर को नुक़्सान नहीं पहुँचाते बल्कि इस तरह के प्रयोग करके वे युवा कहानीकारों को कुछ नया रचने की राह दिखाते हैं।
तनु कुलश्रेष्ठ ने अपने लेख में 'तेजेन्द्र शर्मा की कहानियों में नारी पात्र' को विषय बनाया है। सावित्री और सीमा चौधरी ने भी लेख लिखते हुए इसी विषय का चुनाव किया। इससे पहले भी बहुत से शोधार्थियों ने तेजेन्द्र शर्मा की कहानियों में नारी पात्रों पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। कुछ पाठकों और आलोचकों ने तो पुरूष देह में स्त्री मन रखने तक की उपाधि लेखक को दी है।
महिला मन का अंतर्द्वंद्व, उसके स्वभाव की सहज झिझक और सामाजिक वर्जनाओं के बीच की स्त्री को तेजेन्द्र शर्मा अपनी कहानी में उतारते हैं। तमाम परेशानियों से जूझता लेखक का महिला पात्र कितना भी परेशान क्यों ना हो मगर वह बेबस कभी नहीं होता। अपनी कहानी के चरित्रों को तेजेन्द्र शर्मा वह किरदार देते हैं जिससे उनकी कर्मठता मिसाल बन जाती है। अपने हालात बदलने के लिए लेखक अपने पात्रों से किसी मसीहा के आने का इंतज़ार नहीं करवाते। चरित्र स्वंय अपने स्तर पर अपनी परेशानियों का हल खोज लेते हैं। इस कड़ी में चाहे वह 'कल फिर आना' की रीमा हो या फिर मौत... एक मध्यान्तर कहानी में अस्पताल के बिस्तर पर मौत का इंतज़ार करते पति की पत्नी पुनीत हो। तेजेन्द्र शर्मा की लेखनी की यही ख़ूबी है कि उनके नारी पात्र बेचारे नहीं हैं। वे हार कर नहीं बैठते। उन्हें संघर्ष करना और आख़िरकार अपनी मंज़िल पर पहुँचने का रास्ता ढ़ूँढ़ना आता है।
क़लमकार तेजेन्द्र शर्मा अपने चरित्रों के साथ बहुत बार निर्मम भी हो जाते हैं। वे कठोर हृदय या यों कहें कि वह निष्ठुर कहानीकार है। जिस तरह की व्यूह रचना वे अपने किरदारों के गिर्द बुनते हैं उससे लेखक के ह्रदयहीन होने का साफ संकेत मिलता है मगर उसके तुरंत बाद चरित्रों की जिजीविषा, उनकी सफल होने की ज़िद देख कर हर कहानी का पहली कहानियों से बिल्कुल अलग होने का अहसास हो जाता है और यह भी पता लगता है कि समाज का संघर्षरत व्यक्ति तेजेन्द्र शर्मा की कहानी का किरदार हो सकता है। लेखक के तौर पर तेजेन्द्र शर्मा हार रहे व्यक्ति के साथ जा कर खड़े तो हो जाते हैं मगर इसके बाद वे किरदार में इतना जीवट भर देते हैं कि वह अपना हक़ पाने का संघर्ष करता है। अंतत: अपने चरित्रों को सफल होते हुए या सफलता की ओर बढ़ते हुए देखना कहानीकार को सुख देता है। इतने सब के बावजूद तेजेन्द्र शर्मा की कहानियाँ अंत में हर बार चौंका देती हैं। वे पाठक को झकझोरने का माद्दा रखती हैं। पूरी कहानी पढ़ने के बाद पाठक बहुत देर तक ख़ामोश बैठा रहता है क्योंकि उसके भीतर विचारों का मंथन चलता है जो बोलने और तर्क करने से आगे की स्थिति है।
तेजेन्द्र शर्मा एक सामाजिक व्यक्ति हैं। अपने आसपास के माहौल से किरदार चुन कर उसे शब्दों में ढालना उन्हें बख़ूबी आता है। कब क्या नया विषय वे सबके बीच से उठा लें, कहना मुश्किल है। जिन बातों को आम सामाजिक व्यक्ति, साधारण मान कर ध्यान भी नहीं देता, बहुत बार ऐसी स्थिति भी समूची कहानी रच देती है तो कई बार व्यक्ति का संघर्ष, कहानी कहलवा लेता है। अलग-अलग मुद्दों को उठाती कहानियों में मानवीय संवेदनाएँ हर बार विद्यमान रहती ही हैं। वे कब, किस रूप में आती हैं और किस तरह माहौल पर असर डालती हैं यह कहानी से गुज़र कर ही महसूस किया जा सकता है।
मैं व्यक्तिगत रूप से यह सोचती हुई गदगद भाव से भर जाती हूँ कि हमारी युवा पीढ़ी , हमारे छात्र, हमारे शोधार्थी और पाठक उस कहानीकार को सुनने, उससे मिलने और बात करने का सुख उठा सकते हैं जिसकी कहानियों ने हिन्दी साहित्य के विस्तृत कैनवास को अपने शब्दरंगों से रंग दिया है। तेजेन्द्र शर्मा ने एक युग अपने नाम कर लिया है। अपनी रचनाधर्मिता से हिन्दी को वह स्थान दिलवाने का सतत प्रयास किया है जो असंभव तो नहीं था परन्तु हाँ, आसान भी नहीं रहा।
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