तेजेंद्र शर्मा की कविता में मानवाधिकार के स्वर
रचना समीक्षा | डॉ. अशोक मर्डेहिंदी के प्रवासी लेखकों में तेजेंद्र शर्मा एक प्रमुख कवि माने जाते हैं। उनकी कविता में विषय-वैविध्य के साथ साथ मानवाधिकार से जुड़ेे कुछ पहलू भी नज़र आते हैं। कहानी के अपेक्षा उन्होंने कविताएँ अपेक्षाकृत कम लिखी हैं लेकिन उन कविताओं में मानवीयता देखी जा सकती है। पंजाब में 1952 को जन्मे तेजेंद्र शर्मा आजकल प्रवासी साहित्य का चर्चित नाम है।
आज विश्व साहित्य में मानवाधिकार को लेकर काफ़ी कुछ लिखा जा रहा है, उसकी चर्चा हो रही है। इस दिशा में प्रवासी रचनाकारों में तेजेंद्र शर्मा का नाम उल्लेखनीय है। उनकी कविता में एक प्रकार की विविधता देखी जा सकती है। एक ओर तो यह कवि अपनी राष्ट्रभक्ति दिखलाता है तो दूसरी और प्रवासी भारतीय होने के नाते उस देश से भी लगाव और अपनत्व का प्रदर्शन करता है। इस प्रवासी रचनाकार ने उस देश की संस्कृति परिवेश को लेकर भी लिखा है। उनके लेखन में एक प्रकार की यह समानता देखी जा सकती है कि देश कौन सा भी क्यों ने हो मानवाधिकारों के पक्ष को प्रखरता से रखना उनकी एक प्रधान विशेषता मानी जा सकती है। मानवाधिकार मानव का मूल अधिकार है। देश परिवेश बदलने पर भी मनुष्य मनुष्य ही रहता है और उसके अधिकार अधिकार के रूप में ही कायम रह जाते है। व्यक्ति के अधिकारों को कोई भी छीन नहीं सकता है।
टेम्स का पानी, डरे सहमे बेजान चेहरे, ये अचानक इसे क्या हुआ है, कि अपने शहर में अपना ठिकाना है, क्या पतझड़ आया है, लंदन में बरसात, नहीं है कोई शान, मेरे पासपोर्ट का रंग, दोहरा नागरिक, सो नहीं पाता हूँ, ऐ इस देश के बनने वाले भविष्य, मैं जानता था, आदमी की ज़ात बने, तो लिखा जाता है, ज़िन्दगी को मज़ाक में लेकर, देखा है तुम्हे जब से, इस उमर में दोस्तों, बहुत से गीत ख़्यालों में, मेरी मजबूर सी यादों को, रास्ते ख़ामोश हैं, कैसे कह दूँ, कटी ज़िन्दगी पर लगाना ना आया, औरतों को ज़माने ने, तपते सहरा में जैसे, अपनों से दूर चल पड़ी, तुम्हारी आवाज़, दरख़्तों के साये तले, नव वर्ष की पूर्व संध्या पर, प्रजा झुलसती है, बर्फ़ भी आज हमारा, ये कैसा पंजाब है लोग, ये घर तुम्हारा है, लंदन में बरसात, सहमे सहमे आप है, सारों को पूजो, सो नहीं मैं पाता हूँ, गिलहरी, अपने वतन को, तेरे जहान में इन्सान परेशान यहाँ, नववर्ष की पूर्व संध्या पर, कर्मभूमि, हिंदी की दूकानें, कहाँ है राम, तुम्हारी आवाज़, मकड़ी बुन रही है जाल, इंकलाब कहलाएगा, पुतला ग़लतियों का, कभी रंजो आलम के गीत, कल अचानक ज़िन्दगी, यार मेरा कैसा है, मैं भी इन्सान हूँ, सारों को पूजो, सहमें सहमें आप हैं आदि कविताएँ उल्लेखनीय है। इनमें से कई कविताओं में मानवाधिकारों के स्वर दृष्टिगोचर होते हैं।
‘नफ़रत का बीज बोया’ यह कविता मानवों के बीच संवेदनशीलता का आग्रह रखती है। जब नफ़रत के बीज बोये जाते हैं तो निश्चित ही छाया और पत्तों में ज़हर होगा। यह नफ़रत की आँधी हम सभी के लिए नुक़सान का कारण बन सकती है। अनेक वर्षों के ज़मींदार के ज़ुल्म सहते आम लोगों के लिए यह पीड़ा का कारण था-
बरसों बद-दिमाग़ी का ज़ुल्म
कली टूटी, मसली, कुचली
ज़मींदार के ग़ुस्से में
क़हर था।
कवि के अनुसार मानवीयता की हानि के लिए नफ़रत के बीज होते हैं और जिसके बोते ही ज़हर निश्चित हो जाता है। जो कि हम सभी के लिए ख़तरनाक साबित हो जाता है। जिस प्रकार बीज होगा उसी प्रकार उसके परिणाम भी होंगे।
नफ़रत का बीज बोया
दरख़्त कड़वाहटों का निकला
शाख़ों की पत्तियों में ज़हर था
‘कैसे कह दूँ’ कविता में कवि का वह मानवतावादी स्वर उजागर हुआ है जो दुश्मन होकर भी उसे माफ़ करना चाहता है। इस तरह की भावना निश्चित ही आदमी आदमी के हित के लिए अत्यंत आवश्यक है इससे ना किसी पर ज़ुल्म होगा ना किसी पर ज़्यादती।
तेरा नुक़्सान करूँ सोच नहीं सकता मैं
मैं तो दुश्मन को भी बरबाद नहीं करता हूँ।
‘आदमी की ज़ात बनें’ कविता मनुष्य को आदमी के रूप में जीने और उसी तरह के बर्ताव की अपेक्षा रखती है। हर एक का प्यार अलग है। हर एक की चाहत अलग है। ऐसे में अपने अहंकार को त्यागकर जब हम आदमी की ज़ात बनकर सभी के सुख-दुखों के साथी बनें तो उस समान कोई आनंद नहीं होगा। कवि कहते हैं -
कि मैं ही मैं हूँ, चलो सोच ऐसी दफ़न करें
हरिक को दाद मिले और कोई बात बने
फ़िदा जो अपने पे होना हमारा छूटे तो
विवाद ख़त्म हो, और आदमी की ज़ात बनें।
विश्व पटल पर किसी एक देश का किसी एक देश पर हावी होना तथा किसी एक का अधिकार क़ायम करने की कोशिश करना इस तरह की वैश्विक वृत्ति ‘मकड़ी बुन रही है जाल’ कविता में दृष्टिगोचर हुई है। उसी प्रकार संस्कृति लुट रही है और अस्मिता पिट रही है... यह कविता मनुष्य के जालरूपी षडयंत्र को उद्घाटित करती है। मानवता के ही संहार के लिए षडयंत्र बनाये जा रहे हैं। ऐसे में हथियारों के खेल में तानाशाह अपना वर्चस्व जमाने की कोशिश कर रहे है। व्यापार की होड़ में नरकंकालों को बिछाया जा रहा है।
ज़माने का मुँह चिढ़ाकर
अँगूठा सबको दिखाकर
तेल के कुओं की ख़ातिर
बिछेंगे अब नरकंकाल
मकड़ी बुन रही है जाल!
हथियायों का यह खेल इतना ख़तरनाक हो चुका है कि मानव मानव के विरुद्ध तनकर खड़ा हुआ है। विशाल सेना के साथ मानव मानव से लड़ने पर तुला हुआ है।
बादल गहरा गये हैं
चमकती हैं बिजलियाँ
तोप, टैंक, बम्ब लिए
चल पडी सेना विशाल
मकड़ी बुन रही है जाल!
ज़ुल्मों की परिसीमा में हर साथी साथ छोड़ रहा है। हर एक भयभीत हो चुका है।
मित्र साथ छोड़ रहे
भयभीत साथी हैं
गलियों पे सड़कों पे
दिखते ज़ुल्म बेमिसाल
मकड़ी बुन रही है जाल!
इस मानवीयता के ख़िलाफ़ हो रहे युद्ध में मनुष्यता का शत्रु बलवान दिख रहा है। मकड़ी की लाठी से भैंस भगाने तथा मदमस्त हाथी के सामने कंगाल को प्रस्तुत कर असहाय निरीह की पीड़ा को दर्शाया जा रहा है...
लाठी है मकड़ी की
भैंस कहाँ जाएगी
मदमस्त हाथी के
सामने खड़ा कंगाल
मकड़ी बुन रही है जाल!
‘इस महाविनाश के खेल में असहाय और लाचारों तक को बख़्शा नहीं जा रहा है। बच्चों और औरतों को भी अपने खेल का शिकार बनाया जा रहा है। विनाश के हथियार छुपे हैं, तोप, टैंक, बम लिए विशाल सेना चल पड़ी है... ऐसे में परिस्थिति भयावह है। बमों की गड़गड़ाहट में मानवता का स्वर लाचार हो चुका है।
बच्चों की लाशें है
औरतों के शव पड़े हैं
बमों की है गड़गड़ाहट
आया है भूचाल!
मकड़ी बुन रही है जाल!
महाविनाशकारी और आतंकी के इस खेल को ख़त्म करना ज़रूरी है। कवि इसे ही ‘मकड़ी बुन रही है जाल’ कहते हैं। इस जाल को भेदना-तोड़ना ज़रूरी है। विश्व भर में हो रही दादागिरी को ख़त्म करना आवश्यक है। तब कहीं आदमी अपने अधिकारों की रक्षा कर पाएगा। सुखी जीवन जी पायेगा।
मकड़ी के जाले को
तोड़ना जरूरी है
विश्व भर में दादागिरी
यही है बस उसकी चाल
मकड़ी बुन रही है जाल!
राष्ट्राभिमान की भावना के साथ साथ मानवीयता का समर्थन हर व्यक्ति का, जाति या राष्ट्र का प्रथम कर्तव्य होता है।
‘सो नहीं मैं पाता हूँ’ कविता में कवि अपने प्रवासी जीवन में भी अपने देश के प्रति प्रेम बनाए हुए है। उनकी संवेदनायें अपने देश के प्रति हैं। ‘अपने वतन को’ कविता में कवि ने अपने देश की दुर्दशा पर खेद प्रकट किया है। वे कहते है कि जिन लोगों ने देश की आज़ादी के लिए जान लुटा दी उनको याद तक नहीं किया जाता है और ना ही उनकी शान में गीत गाए जाते है। उसी प्रकार जो सरहदों पर दुश्मनों से लड़ते हैं उनकी ख़ातिर एक शब्द भी नहीं गुनगुनाया जाता है।
‘आदमी की ज़ात बने कविता’ में आदमी के अकेलेपन की ओर कवि संकेत करते है। आज आदमी के पास समय नहीं है और ना ही वह किसी के लिए ख़ुशियों की सौग़ात बन सकता है, ‘हरेक शख़्स को है प्यार अपने नग़मों से, यहाँ किसी के लिए वाह कौन कहता है।’ किसी भी प्रकार के विवादों को ख़त्म कर कवि आदमी को आदमी की ज़ात के रूप में सामने आने की पेशकश करते है। स्वयं का अहं दफ़न कर दूसरों के लिए वाहवाही करना भी हमारा धर्म होना चाहिए। ‘कि मैं ही मैं हूँ, चलो सोच ऐसी दफ़न करें..........विवाद ख़त्म हो और आदमी की ज़ात बनें।’
‘इंक़लाब कहलाएगा’ कविता श्रमिकों को आधार मानकर लिखी गई है। मेहनतकश पूरी तरह से शोषकों को समझ चुका है। अब वह मुफ़्त में लुट जाने को तैयार नहीं है और ना ही भीख और लाचारी का सहारा लेता है। अब वह ख़ुद्दारी और अपने अधिकारों के हक़ की लड़ाई के लिए तैयार है। समय के बदलाव को ही वह इंक़लाब मानता है और समय बदलने की पेशकश करता है -
अब न लाभ उठाने देंगे, ग़ुरबत और लाचारी का
भीख पे जीना छोड़ दिया अब, हक़ माँगे खुद्दारी का
अगर नहीं हालत बदली, हालात को बदला जायेगा
समय बदलना ही शायद, अब इंक़लाब कहलाएगा
तेजेंद्र जी की अनेक कविताएँ हैं लेकिन जिन कविताओं में मानव-अधिकारों का स्वर मुखर हो उठता है, उन्हीं का ज़िक्र यहाँ किया गया है।
वे भारतीय संस्कृति को कदापि न भूले हैं। प्रवासी साहित्यकार होने के बावजूद भी वे जिस राष्ट्र में रहते है उस राष्ट्र से भी उतना ही प्रेम करते हैं जितना अपनी मातृभूमि से करते हैं। उनका मानना है कि सुख शांति मानव के अधिकार हैं और इससे मानव को कभी भी विमुख न होना पड़े। इस तरह की भावना अपने मन में सँजोने वाले वे एक नागरिक भी हैं। उनकी कविताओं में विषयों की विविधता तो है ही साथ उनकी कविताओं में मानवाधिकारों की रक्षा तथा उसका समर्थन भी देखा जा सकता है।
संदर्भ:
- http://kavitakosh.org
- http://www.anubhuti-hindi.org
डॉ. अशोक मर्डे
यशवंतराव चव्हाण महाविद्यालय,
तुलजापुर 413601 मो. 00-91-8888448707
Email: mardeashok@gmail.com
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