अनन्त गन्तव्य
काव्य साहित्य | कविता भूपेन्द्र ’भावुक’26 Jun 2017
आँचल की छाँह में
वह नन्हा
जीवन के अनमोल लम्हों को
जी रहा था।
जीवन की जटिलता
और उसकी थाह से दूर
वह नन्हा
आँचल के भीतर से
माँ के धुँधले चेहरे को
तिरछी नज़रों से
तक रहा था।
ईंटें-बालू ढोने वाले हाथ
नन्हे का सिर सहलाते
किसी गुलाब से कम न थे।
बदन के पसीने की
सौंधी ख़ुशबू
उस नन्हे को
सुस्ता रही थी।
वह रह-रह कर
दूध पीना छोड़
झपकी ले लेता।
उसे नींद आते ही
धीरे से
माँ उसे सुला देती है
साड़ी के बने
अस्थायी घरौंदे में।
नन्हे को पल भर निहार
वह चल पड़ती है।
एक-एक करके
ईंटें रखी जाती हैं
उसके सिर पर
और फिर वह
निकल पड़ती है
अनंत गन्तव्य को।
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