अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

अपराध बोध

अगस्त की उमस भरी शाम। पीछे रेलवे क्वार्टर की सिगड़ियों से उठते कोयले के धुएँ की खुशबू पूरे माहौल मे भरी हुई थी। ये महक मुझे शुरू से बहुत भाती है।

हवा खाने के लिये मैं अपने दूसरी मंजिल के फ्लैट की पीछे वाली बालकनी में निकल आता हूँ। सिगरेट जलाते ही मेरी नज़र उन दो आँखों से टकरा जाती है, जो पिछवाड़े के क्वार्टर के आँगन से मुझे ही ताक रहीं थी। मैं चाह कर भी उसकी नज़रों से अपनी नजरें नही हटा पाया और एकटक उसे देखने लगा।

कितनी गहरी और बोलती हुई आँखें हैं। माथे पर अल्हड़ता से बिखरी जुल्फ़ें और पसीने से बेतरतीब हो गई वो सिंदुरी बिंदिया। एक पुरानी सी धानी रंग की सूती साड़ी मे लिपटी वो बला की खुबसूरत लग रही थी।

ऐसा नहीं कि मैंने पहले कभी उसे नहीं देखा मगर आज पहिली बार नज़रें चार हुईं थी। उसकी आँखों मे एक अजब सा प्रश्न चिन्ह और चेहरे पर आंतरिक वेदना की एक परत।

वो शायद सिगड़ी उठाने ही बाहर निकली थी। नज़रों के मिलते ही वो जड़वत जहाँ की तहाँ खड़ी रह गई। काँपते होंठ जैसे कुछ कह देने को आतुर और आँखें अपने भीतर छिपी असंख्य वेदनाओं का इज़हार करने को बेकरार।

एकाएक उँगलियों के बीच जलन से बिना पिये सिगरेट खत्म होने की तरफ जैसे ही ध्यान गया, हाथ जोर से झटक कर सिगरेट फेंकी। मेरी हालात देख वो बस धीरे से मुस्कराई। हमारी नज़रें फिर भी एक दूसरे को ही देखती रहीं। कब शाम ढल गई और अंधियारा घिर आया, पता ही नही लगा।

एकाएक उसके घर के दरवाजे पर उसके पति की दस्तक सुनते ही घबड़ा कर वो अंदर भाग गई। मै वहीं बालकनी मे कुर्सी खींच कर बैठ गया। मन अभी भी उसके आँगन मे ही विचर रहा था।

उसके घर से चिल्लाने की आवाज आ रही थी। शायद उसका पति पीकर नशे मे घर लौटा था।

वो चिल्ला रहा था.. स्स्साआली, दिन भर पड़ी पड़ी आराम करती रहती है और अब कह रही है अभी खाना बनने में समय लगेगा... वो बुरी बुरी गालियाँ बकता जाये और उसे बुरी कदर मारता जाये। उसके रोने की आवाज़ भी मेरे कानों को भेद रही थी।

न जाने वो कब तक उसे मारता और चिल्लाता रहा। मुझसे सहा ना गया। मैं उठकर भीतर चला आया, एक आत्मग्लानि का एहसास लिये कि मेरी वजह से बेचारी की क्या हालत हो रही है। न मैं बालकनी में निकलता, न उससे नज़रें टकराती और न ही खाना बनाने में उसे देर होती... मैं अपराधबोध से घिरता चला गया।

इस वाकये को दो हफ़्ते बीत गये हैं। आज फिर बहुत उमस है। शाम हो रही है, अभी अभी दफ़्तर से लौटा हूँ। कुछ ताजी हवा खाने का मन है लेकिन आज मैं घर की सामने वाली बालकनी मे आकर बैठ जाता हूँ।

उस रोज का सिगरेट से जलने का घाव तो भर गया है, मगर उसकी जलन और अपराधबोध, दोनों अब तक ताज़े हैं।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

कविता

दोहे

कविता-मुक्तक

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

स्मृति लेख

आप-बीती

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं