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बंद कमरे में

बंद कमरे में
सहमी सी
दुबकी पड़ी ज़िंदगी
अपने से लड़ती हुई जिदंगी
बचने को हाथ-पाँव मारती ज़िंदगी
यह सब कोरोना की सौगात 
या कि -
बेलगाम लालसा का उपहार?
जब देखो 
बस-
इसी सोच में फँसी है ज़िंदगी।


बाहर जो झाँको तो बंद बाज़ार है
न कोई ग्राहक न कोई दुकानदार है 
कहीं सजा तो बस मौत का दरबार है
यह देख कर सहमी है ज़िंदगी।


दूरदर्शन पर
जब भी कुछ आए तो केवल
मौत के आँकड़ों की आए ख़बर
तब ताबूत और क़ब्र ही आएँ नज़र


हे मानव!
तेरा ही निर्माण क्या तुझे खाएगा
यही सोच कर विमूढ़ हो रही ज़िंदगी।

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