छत पर कपड़े सुखा रही हूँ
काव्य साहित्य | गीत-नवगीत शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’15 Sep 2020 (अंक: 164, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
चार दिनों से
इन्द्रदेव की
बरस रही थीं रोज़ कृपाएँ
धूप हुई है,
छत पर कपड़े सुखा रही हूँ।
टिफ़िन बंद है, चार रोटियाँ,
थोड़ा ही है चावल नोना,
रखी पुदीने की चटनी है,
भुरता एक सँभाले कोना,
भरा हुआ बरखा का पानी,
फिसलन की है अजब कहानी,
छत का पानी,
अँजुरी-अँजुरी बहा रही हूँ,
छत पर कपड़े सुखा रही हूँ।
बादल रहते आते-जाते,
घबड़ाहट है इतनी मन की,
आँखमिचौनी खेल रही हैं,
सूरज की किरणें कुछ सनकी,
उलट-पुलटकर हाथ थके हैं,
काम ज़रूरी बहुत रुके हैं,
सूखे कपड़े,
धीरे-धीरे तहा रही हूँ
छत पर कपड़े सुखा रही हूँ।
रिक्शावाला ठीक समय पर,
‘रोहन’ को लेकर आएगा,
बँधा हुआ जो मासिक वेतन,
वह मंगल को ले जाएगा,
चिंता की भी बात नहीं है,
पूरा दिन है, रात नहीं है,
आकर नीचे,
अभी अभी मैं नहा रही हूँ,
छत पर कपड़े सुखा रही हूँ।
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