छोटा नहीं है कोई
कथा साहित्य | सांस्कृतिक कथा विजय विक्रान्त3 May 2012
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के गणित के प्रोफ़ेसर श्री तुलसीराम को एक बार किसी काम से गंगा पार जाना था। वो प्रयाग पहुँचे और बुलाकी मल्लाह से बात करके उसकी नाव में बैठ गए। जैसे जैसे नाव चली तो प्रोफ़ेसर साहब ने बुलाकी से पूछा कि भाई कितना पढ़े हो। बुलाकी केकहने पर कि वो बिल्कुल नहीं पढ़ा है, तुलसीराम जी बोले कि भाई तुमने तो अपनी चौथाई ज़िन्दगी यूँ ही गँवा दी। मुझे देखो कि मैं कितना पढ़ा लिखा हूँ।
थोड़ा आगे चलकर प्रोफ़ेसर साहब ने फिर पूछा कि भाई तुमको नाव चलाने से कितनी आमदनी हो जाती है। मल्लाह के कहने पर कि बस घर का खर्चा निकल जाता है तो तुलसीराम जी अकड़ कर बोले कि बुलाकी भईया, तुम ने तो अपनी आधी ज़िन्दगी यों ही गरीबी में गँवा दी। मुझे देखो कि मैं कितना पैसा कमाता हूँ।
बुलाकी एक भोला भाला निष्कपट इंसान था। प्रोफ़ेसर की बातें उसको बुरी तो बहुत लगीं मगर उसने उसका कोई ज़वाब नहीं दिया।
जैसे ही नाव मंझदार में पहुँची, उसे एकाएक तूफ़ान ने घेर लिया और वो बहुत ज़ोर से हिचकोले खाने लगी। ऐसा लग रहा था कि अब डूबी और अब डूबी। तुलसीराम जी बहुत घबरा गए और मल्लाह से कुछ करने को कहा। मल्लाह ने उनकी यह हालत देखकर पूछा कि क्या उनको तैरना आता है। प्रोफ़ेसर साहब के कहने पर कि उनको तैरना नहीं आता तो बुलाकी बोला, "प्रोफ़ेसर साहिब अनपढ़ और गरीब होने के कारण मैं ने तो अपनी आधी ज़िन्दगी यों ही गँवा दी, मगर तैरना न आने पर तो अब आपकी पूरी जान ही जा रही है।"
प्रोफ़ेसर तुलसीराम को अपने घमण्ड और अहंकार पर बहुतपश्चाताप हुआ और उन्होंने बुलाकी के पैर पकड़ लिए और कहा कि मेरे से बहुत बड़ी ग़लती हो गई है और मुझे माफ़ कर दो।
किसी को छोटा मत कहो, छोटा नहीं है कोए
समय समय की बात है, छोटा बड़ा भी होए
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