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दादी माँ की सीख

किशनपुरा में राधा नाम की एक ग़रीब औरत अपने पोते मोहन के साथ रहती थी। मोहन के माता-पिता की गाँव में फैली महामारी में मृत्यु हो गई थी। राधा वृद्ध होने पर भी मेहनत-मज़दूरी करके अपने पोते का लालन-पालन कर रही थी। बहुत अधिक मेहनत करने पर भी दो जून रोटी का जुगाड़ बड़ी मुश्किल से हो पाता था।

अवस्था ज़्यादा हो जाने के कारण राधा बीमार रहने लगी और फिर एक दिन लाचार होकर उसने बिस्तर ही पकड़ लिया। राधा को लगने लगा था कि "वह अब ज़्यादा दिनों तक जीवित न रहेगी।" उसे सबसे अधिक चिंता अपने पोते मोहन की रहती थी, क्योंकि अभी वह बहुत छोटा था, इसलिए वह कोई काम भी नहीं कर सकता था।

एक दिन राधा ने मोहन को अपने पास बुलाया और कहा, "बेटा अब मैं ठीक न हो पाऊँगी। मेरे पास कुछ धन भी नहीं है, जो मैं तुम्हें दे देती। बस, इतना ही कहती हूँ कि तुम मेरी तीन बातें हमेशा ध्यान रखना- "चोरी न करना, झूठ मत बोलना, किसी को धोखा न देना। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। भगवान तुम्हारा कल्याण करें।"

इतना कहकर वह स्वर्ग सिधार गई। राधा की मृत्यु के बाद अकेला हो गया। जो थोड़ा-बहुत अन्न घर में था, वह बहुत शीघ्र ही ख़त्म हो गया। अंत में एक दिन उसने घर छोड़ दिया और काम की तलाश में इधर-उधर घूमने लगा। घूमते-घूमते वह गाँव के बाहर बने "राधा-कृष्ण" क मंदिर में पहुँच गया। भूख-प्यास ने उसका बुरा हाल था। मूर्ति पर चढ़े फल-मिठाई देखकर उसकी भूख और भी बढ़ गई। वह सोचने लगा कि "भगवान पर चढ़े हुए फलों में से एक फल लेकर खा लूँ।" उसने जैसे ही फल लेने के लिए हाथ बढ़ाया उसे अपनी दादी की बात याद आई, "बेटा, चोरी न करना"। मोहन ने अपने बढ़े हुए हाथ खींच लिए और चुपचाप मंदिर की सीढ़ियों पर लेट गया।

तभी उस मंदिर के महन्त "सोमेश्वर" अपनी शिष्य मंडली के साथ उधर से गुज़रे। नन्हें मोहन को खाने के लिए भगवान का प्रसाद दिया और मोहन को अनाथ जानकर मंदिर में ही रख लिया। मोहन मंदिर की साफ़-सफ़ाई के काम में हाथ बटाने लगा। उसकी मेहनत व ईमानदारी से पुजारी उस पर बड़े प्रसन्न रहते थे।

"राधा-कृष्ण" मंदिर गाँव का काफ़ी बड़ा मंदिर था। उसकी बहुत मान्यता थी। इसलिए बहुत दूर-दूर से भक्त जन वहाँ आते रहते थे। दिन-भर में उस मंदिर में काफ़ी "चढ़ावा" एकत्र हो जाता था। मंदिर में चढ़ने वाली खाद्य सामग्री तो मंदिर में रहने वाले पुजारियों के भोजन व दर्शन के लिए आने वाले भक्तों में प्रसाद के रूप में बाँटने के काम आ जाती थी, परन्तु रुपये-पैसे व आभूषण आदि को मुख्य पुजारी एक बड़ी तिजोरी में रख देते थे। वह तिजोरी राधा-कृष्ण की मूर्ति के पीछे बने एक खाली स्थान में रखी रहती थी और देखने पर बिल्कुल भी पता नहीं चलता था कि वहाँ पर कोई रिक्त स्थान भी हो सकता है।

एक रात को उस मंदिर में चोरों ने चोरी करने की नीयत से सेंध लगाई। खटर-पटर की आवाज़ सुनकर वही बरामदे में सोये मोहन की नींद खुल गई। उसे जगा हुआ देखकर चोरों ने पूछा, "पुजारी ने धन कहाँ पर छुपाया है?"

मोहन को मालूम था कि सारा धन भगवान की मूर्ति के पीछे बने खाली स्थान पर रखा हुआ है। मोहन को माँ की सीख याद आई कि झूठ नहीं बोलना चाहिए, इसलिए उसने चोरों को धन छुपाने का सही स्थान बता दिया। उसकी बात सुनकर चोरों को विश्वास नहीं हुआ कि बालक इतनी जल्दी धन छिपाने की जगह बता देगा। उन्होंने सोचा, "यह छोटा सा बालक उन्हें बेवकूफ़ बना रहा है।" उन्होंने मोहन को मंदिर के ही एक खंभे से बाँध दिया और मोहन के बताए स्थान को छोड़कर बाक़ी सभी स्थानों पर धन ढूँढते रहे। अंत में जब चोर मोहन के बताए स्थान पर धन खोजने पहुँचे, तब तक सुबह हो गई जिसके कारण उन्हें भागना पड़ा।

सुबह महन्त सोमेश्वर ने मोहन को बंधन मुक्त किया और सारी बात जानकर मोहन पर बहुत अधिक प्रसन्न हुए। उन्होंने मोहन को मंदिर की सफ़ाई के काम से हटाकर मंदिर रसोईये के साथ लगा दिया। उसकी ईमानदारी व सत्य वादिता का मंहत पर काफ़ी प्रभाव पड़ा।

उसी मंदिर में महन्त का "राजनाथ" नाम का एक शिष्य भी था, जो बहुत ही दुष्ट और लालची था। उसने मंदिर के ख़ज़ाने पर अधिकार करने के लिए महन्त को मारने की योजना बनाई और मोहन को एक काग़ज़ की पुड़िया देकर कहा "यह ज़हर महन्त के भोजन में मिला दो। महन्त के मरने के बाद मैं महन्त बन जाऊँगा और मंदिर का जो धन मिलेगा, उसका आधा भाग तुम्हें दे दूँगा।

मोहन ने उसकी बात को सुनकर कहा, "मैं ऐसा हरग़िज न करूँगा। मेरी दादी माँ ने मरते वक़्त मुझसे कहा था कि कभी किसी को धोखा न देना।" यह कह कर वह महन्त सोमेश्वर के पास गया और सारी बात उन्हें बता दी।

महन्त जी उसकी हत्या का षड़यंत्र रचने वाले शिष्य "राजनाथ" को पुलिस को सौंप दिया तथा मोहन को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।

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