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दुनिया की छत - 4 : गूँगे केरी सर्करा

हमारी ट्रेन गॉथनबर्ग सेंट्रल स्टेशन से सुबह छः बजे छूटने वाली है। उसे पकड़ने के लिए पाँच बजे की ट्राम लेनी है। स्टॉकहोम के लिए ट्रेन और होटल की बुकिंग बृजेश पहले ही कर चुके हैं। रात को ही अपना बैग-पैक कर हम जल्दी सो गए हैं। सुबह चार बजे उठ कर चाय पी जा रही है। पूरब की ओर खुलती खिड़की से बाहर झाँकने पर हैरानी होती है, इतनी सुबह भी बाहर दुनिया उजाले से सराबोर है। सितारों भरी रात देखने की ख़्वाहिश मन में ही रह गयी है। इतनी सिमटी-सिकुड़ी रात स्केंडेनेविया के देशों में ही अनुभव की जा सकती है, पर केवल गर्मियों में. . 

“सर्दियों में आना मौसी, आठ-नौ बजे से पहले उजाला नहीं होता और शाम चार बजे से अँधेरे का साम्राज्य शुरू होने लगता है” 

भारती अपना अनुभव बता रही है। मुझे तो गर्मियों के ये उजले-फैले दिन वरदान जैसे लग रहे हैं। गिने-चुने दिन बटोर कर लाई मेरी यात्राओं को अनुभव-संपन्न करने में इनकी बड़ी भूमिका है।

गॉथनबर्ग से स्टॉकहोम की दूरी तक़रीबन चार सौ सत्तर किलोमीटर है। स्वीडन के ये दो सबसे बड़े शहर दो अलग-अलग छोरों पर स्थित हैं। एक तरह से हम उत्तरी सागर के छोर से बाल्टिक सागर के तट की यात्रा पर निकले हैं। हवाई जहाज़ से यह दूरी एक घंटे से भी कम समय में तय की जा सकती है पर हमने रेल से जाना तय किया है। क़रीब चार घंटे के इस सफ़र में स्वीडन के एक बड़े हिस्से का नज़ारा लेने का लोभ कैसे छोड़ा जा सकता है. . .।

निर्धारित समय पर ट्रेन स्टेशन से निकल पड़ी है। खिड़की वाली सीट तो मैंने हथिया ली है। मुझे सफ़र में नींद नहीं आती। बचपन में जब हम दिल्ली से अल्मोड़ा जाने वाली रात की बस लेते थे, तब भी पूरी रात खिड़की से बाहर ताक कर बिता देती थी मैं। अँधेरे से घिरी उस बाहरी दुनिया में मेरे कल्पना लोक की दुनिया उजागर रहती। अब वैसी कल्पनाएँ तो नहीं जागतीं पर सचमुच की दुनिया को नज़र भर देख लेने का उत्साह अभी कम नहीं हुआ है।

अभी तो यह ख़्याल ही बहुत रोमांचित कर रहा है कि हम दुनिया की छत पर हैं। ग्लोब में घूमती दुनिया को देखो तो यही अहसास होता है कि स्केंडेनेविया के देश सचमुच दुनिया की छत पर टिके हैं। अभी अपने को यहाँ महसूस कर यह अनुभूति और गहरा रही है। तीव्र गति से चल रही रेल की खिड़की से दिख रहे हैं बाहर फैले असीम अनंत प्रतीत होते हरे-भरे मैदान, सघन वन और बड़ी बड़ी झीलें. .। इंसानों की बस्तियाँ और पशुओं के चारागाह कहीं-कहीं झलक दिखा कर लुप्त हो जाते हैं। दुनिया का यह हिस्सा सचमुच आपा-धापी से निर्लिप्त अपने प्रकृत रूप में विद्यमान है। 

मीलों का सुहाना सफ़र नज़रों में भर हम स्टॉकहोम पहुँचने वाले हैं। बाल्टिक सागर के पास मेलारेन नामक बड़ी सी झील पर बसा, चौदह द्वीपों का समूह है स्टॉकहोम। दुनिया के सबसे समृद्ध देश की सर्वाधिक संपन्न राजधानी। बारहवीं शताब्दी के आसपास अस्तित्व में आया यह शहर स्केंडेनेविया का सबसे बड़ा सांस्कृतिक, राजनैतिक और आर्थिक महत्त्व का शहर है। जनसंख्या की दृष्टि से भी यूरोप के अन्य शहरों से अपेक्षाकृत अधिक सघन आबादी वाला क्षेत्र। 

हमारी ट्रेन झील पर बने पुलों को पार करती सेंट्रेल स्टेशन पहुँच रही है। ट्रेन ने जहाँ उतारा है, वह धरती के नीचे बसा एक और शहर है, जिसका ओर-छोर ढूँढना मुश्किल लग रहा है। जहाँ अभी हम पहुँचकर खड़े हैं, वहाँ से कई दिशाओं के लिए रास्ते जा रहे हैं। जगह-जगह साइनबोर्ड चमक रहे हैं जिन पर बस, ट्राम, ट्रेन आदि की जानकारियाँ दी गयी हैं। हम दोनों चकित से खड़े हैं, किस ओर चला जाए. .। आखिर एक काउंटर पर जाकर हम जानकारी ले रहे हैं। वहाँ से हमने 72 घंटे तक चलने वाले दो टिकिट ख़रीद लिए हैं, जो ख़ासे महँगे हैं, पर हमें हर प्रकार के यातायात का उपयोग करने की छूट देते हैं। 

यहीं पर एक बर्गर शॉप में जाकर हमने अपना चाय-नाश्ता ऑर्डर कर दिया है। हमारा विचार है कि पेट-पूजा के बाद होटल में अपने पिट्ठू बैग पटककर हम नगर-भ्रमण करेंगे। बोझा जितना कम हो सफ़र का मज़ा उतना ही बढ़ जाता है। भारती होटल में फ़ोन करके जानकारी ले रही है। हमारा चेक-इन समय दो बजे का है, पर हम क्लॉक-रूम में अपना सामान रख सकते हैं। हमारे हाथ में शहर का नक़्शा है, जिसमें हरी-पीली और न जाने किन-किन रंगों की मैट्रो लाइंस का मकड़-जाल फैला हुआ है। हम उसे देख-देख कर अपने होटल तक पहुँचने की कोशिश कर रहे हैं। दो-तीन जगह पर मेट्रो, ट्राम बदलकर हम अपने होटल के पास पहुँचे हैं। गूगल की मदद से थोड़ा भटकते हुए होटल का रास्ता ढूँढ लिया है, वहाँ सामान रखवा अब बेफ़िक्र आज़ाद पंछियों की तरह हम निकल पड़े हैं। कहाँ जाना है, क्या देखना है, इसकी कोई ख़बर हमें नहीं है। यहाँ आस-पास सब कुछ तो नया है, सुन्दर है। दो दिन का यह हमारा ‘ड्रीम-ट्रिप’ बेहद ख़ास और यादगार रहने वाला है, यह हम दोनों को पता है। मुख्य सड़क पर आकर हम फिर से ट्राम के स्टॉप पर खड़े हैं। हमें उसी दिशा में वापस जाना है, जहाँ से हम अभी-अभी आए हैं। सेन्ट्रल स्टेशन के एकदम पास है, गैम-ला-स्तेन. . . वहाँ जाना तय कर लिया है।

गैम-ला-स्तेन यानी कि पुराना शहर, ‘ओल्ड टाउन’। पहले पहल यही स्टॉकहोम शहर था। राजधानी और प्रमुख व्यापारिक केंद्र। झीलों और पुलों से घिरा बेहद ख़ूबसूरत यह शहर, उन्नीसवी शताब्दी तक ‘स्तेदन मेलन बोअर्न’ यानी पुलों से घिरा नगर नाम से लोकप्रिय रहा। ‘गैम-ला-स्तेन’ नाम पहले पहल तब अस्तित्व में आया जब 1957 में यहाँ इसी नाम का मेट्रो स्टेशन बना। इसी स्टेशन पर उतर कर अब हम पुराने शहर के जादू को एक्सप्लोर करने निकल पड़े है। कोबल स्टोन यानि स्लेटी रंग की प्राकृतिक पत्थरों से बनी बेहद लम्बी और बेहद पतली गली में प्रवेश कर हम धीमी गति से उसके दोनों ओर बनी पुरानी इमारतों के स्थापत्य का नज़ारा ले रहे हैं। बहुत आगे जाकर एक और पतली लम्बी गली इस गली को काटती हुई निकल रही है। एकदम छोटे से चौराहे पर कुछ पल ठिठककर हम सोच रहे हैं, “कौन सी राह पकड़ी जाए. .?”

 इसी डगर पर सीधे चलें तो सोलहवीं शताब्दी में निर्मित जर्मन चर्च देखा जा सकता है। दरअसल इस गली में क़दम रखते ही इस चर्च की 95 मीटर ऊँची तिकोनी मीनार नज़र आने लगती है। तो फ़ैसला हो गया। हम आगे बढ़कर चर्च के बड़े से द्वार से भीतर प्रवेश कर रहे हैं। इस चर्च का परिसर बहुत बड़ा नहीं है, पर सुरुचि संपन्न है। कलात्मक पच्चीकारी के आकर्षक नमूनों से समृद्ध। अभिरंजित काँच से बने चित्र यानि वह कला जो खिड़कियों के शीशों पर रंगीन काँच से विविध चित्र अंकित करती है, एक समय यूरोप के गिरिजाघरों में बेहद ख़ूबसूरती के साथ उकेरी जाती थीं, उसका सुन्दर उदहारण इस जर्मन चर्च में देखने को मिल रहा है। स्टॉकहोम पर मध्ययुग में जर्मन व्यापारियों का आधिपत्य रहा, यह जर्मन चर्च उसी युग की निशानी है। 

यह गली अब हल्की-सी ऊँचाई के साथ आगे बढ़ रही है। कहाँ ले जाएगी, इसका अंदाज़ा हमें भी नहीं है। आगे जाकर एक छोटा-सा तिकोना परिसर मिल रहा है। यहाँ कुछ लकड़ी के बेंच रखे हुए हैं, जिनमें से एक खाली है। मैं सुस्ताने के लिए वहाँ बैठ गयी हूँ। भारती आसपास का मुआयना करती घूम रही है। तीनों तरफ़ पुरानी इमारतें हैं, कुछ हल्की गुलाबी, कुछ पीली रंगत लिए। दरवाज़े लकड़ी के बने हैं और बंद है। हर इमारत पर नंबर प्लेट लगी है। ऊपर तीन-चार मंज़िलें हैं, रंग-बिरंगी पर सीधी-सपाट, जिन पर एक सी खिड़कियाँ जड़ी हैं, मध्यकालीन व्यापारियों का आवास रहीं ये इमारते अपनी बंद खिड़कियों के साथ कुछ उदासीन सी खड़ी प्रतीत हो रही हैं, लगता है आँखें मूँदें अपने स्वर्णिम अतीत के वैभव की स्मृतियों में डूबी हैं। 

. . . .घरों की निचली मंज़िल में खिड़कियों के आस-पास बेलें छितरी हुई हैं। मेरी बेंच के ठीक ऊपर पेड़ की घनी शाखें फ़ैली हैं। पास में दो पुरानी साइकिलें एक दूसरे के सहारे खड़ी हैं। पूरे परिवेश में सघन शान्ति है, जबकि एक फ़र्लांग दूरी पर एक रेस्तरां में काफ़ी लोग बैठे दिख रहे हैं। आसपास बिखरा पूरा परिवेश चित्र की तरह जड़ा हुआ महसूस हो रहा है। हम ख़ुद भी जैसे जीवित-जागृत प्राणी न होकर बहुत पुरानी किसी ख़ूबसूरत पेंटिंग का हिस्सा हो गए हैं। 

इस तिराहे से आगे बढ़ते हुए अब हम ऐसी जगह पहुँचे हैं जहाँ एक बहुत ऊँचे चबूतरे पर एक अद्भुत मूर्ति स्थापित है, ड्रेगन को फ़तह करता घोड़े पर सवार वीर. .। इस स्मारक का नाम है, ‘सेंट जॉर्ज एंड द ड्रेगन’। 1489 में बर्न्ट नोल्क द्वारा बनाई गयी यह भव्य मूर्ति डेनमार्क की सेना पर स्वीडन की विजय का प्रतीक मानी जाती है। चबूतरे से नीचे को ढलान है। सीढ़ियों से उतरकर आगे बढ़ते हैं तो सामने झील का लहराता पानी नज़र आता है। झील के किनारे सड़क के साथ पतला-सा फुटपाथ बना है। इस तरफ़ लोग नहीं हैं। सड़क के उस तरफ़ लाल, पीले, नीले, गुलाबी जैसे खिलते हुए रंगों की इमारतें हैं। उनके आगे बड़ा सा अहाता है. . . स्क्वॉयर. . वहाँ कई रेस्तरां हैं, बाहर टेबल-कुर्सियों पर काफ़ी लोग बैठे मौसम और भोज्य-पदार्थों का आनंद ले रहे हैं।

हम झील-किनारे के फ़ुटपाथ पर बैठ गए हैं। इधर किसी का ध्यान नहीं है। हो भी तो हमें किसी की परवाह नहीं। झील से बहती आती नम हवा और हलकी-गुनगुनी धूप इतनी भली लग रही है कि हम अपने जूते-चप्पल उतार और पैर पसार कर वहीं जम गए हैं। अलमस्त फ़क़ीरों की तरह. . .। ट्राम स्टेशन से हमने ताज़ी चेरी का डिब्बा ख़रीद लिया था, अब उस मीठी रसीली चेरी का आनंद लेते हम देर तक वहाँ बैठे रहे हैं।

झील के किनारे-किनारे चलती सड़क के संग-संग कुछ गुनगुनाते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं। धीर-धीरे सड़क का दायरा बढ़ रहा है और साथ-साथ लोगों की आवाजाही भी। दरअसल हम स्टॉकहोम के रायल पैलेस के क़रीब पहुँच गए हैं। यह इलाक़ा गैम-ला-स्तेन के दूसरे छोर पर है, पानी से घिरा हुआ कुछ खुला-खुला सा इलाक़ा। झील के उस पार नेशनल म्युज़ियम की इमारत देखी जा सकती है। किनारे पर बहुत सी छोटी-बड़ी नौकाएँ खड़ी हैं। इस तरफ़ सड़क चौड़ी है। उस पर यातायात भी चल रहा है। रंग-बिरंगी पर्यटक बसें और कारें. . लग रहा है किसी सुदूर इतिहास के गलियारों से निकल हम अचानक आधुनिक सभ्यता में प्रवेश कर गए हैं। एक बड़ी-सी मूर्ति के नीचे बने सीढ़ीदार चबूतरे पर बैठ हम यहाँ का नज़ारा ले रहे हैं। बड़ी संख्या में पर्यटक सुहावने मौसम का मज़ा लेते हुए इधर-उधर डोलते नज़र आ रहे हैं। कुछ अपने में डूबे बैठे हैं। कुछ अपनी तस्वीरें खिंचवाने में मस्त हैं। अब हम दोनों दृश्य से ज़्यादा दर्शकों की अदाओं और उनके क्रियाकलापों का आनंद ले रहे हैं। 

“चलो, ज़रा शाही महल का नज़ारा भी देखें”. . . सड़क पार करते ही एक चौड़ा रास्ता रॉयल पैलेस की ओर जा रहा है। सत्रहवीं शताब्दी के अंतिम दशक से स्वीडन के राजपरिवार का निवास रहा यह विशाल महल काफ़ी ऊँचाई पर है। इस महल के परिसर के आसपास स्वीडन-संसद की इमारत है और स्वीडन का सबसे पुराना ‘सेंट निकोलस चर्च’ भी। हम महल के अन्दर न जाकर बाहर से ही उसके पूरे परिसर की परिक्रमा-सी करते हुए दूसरी तरफ़ निकल आए हैं। काफ़ी आगे आने पर हमें फिर पुरानी संकरी गलियों का छोर मिल गया है और हमारे कदम उसी तरफ़ मुड़ गए हैं। इन गलियों से गुज़रने का एक और प्रबल आकर्षण हैं इनमें सजी-धजी छोटी-छोटी दुकानें, जिनमें भरी दुनियाभर की ख़ूबसूरत चीज़ें आपको ललचा सकती हैं। हम कई दुकानों में जाकर चीज़ें टटोल रहे हैं। उपहार या स्मृति-चिन्ह के रूप में दी जा सकने वाली कुछ वस्तुएँ हमने ख़रीद भी ली हैं। इन मोहक गलियों में ख़ुद को भटका लेने में जो मज़ा मिल रहा है वह महलों और अजायबघरों के सजे-सँवरे कक्षों में कहाँ. . .!! 

कल अगर कोई पूछेगा कि स्टॉकहोम में क्या-क्या देखा तो हम सिवाय मुस्कराने के और क्या बताएँगें। “गूँगे केरी सर्करा, बैठ खाय मुसकाय” कबीर की इस बानी जैसा ही अनुभव है इन लम्बी-संकरी गलियों से गुज़रना . . .।  

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