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गुब्बारे वाला

"बाबूजी, गुब्बारा ले लीजये," अचानक वही दुबला-पतला लड़का एक बार फिर सामने आकर खड़ा हो गया।

"मुझे नहीं लेना। चलो भागो यहाँ से," मैंने झल्लाते हुये उसे डपट दिया।

"ले लीजये न बाबूजी, देखिये कितने अच्छे गुब्बारे हैं। लाल, हरे, नीले-पीले हर रंग के प्यारे-प्यारे गुब्बारे। बिटिया को बहुत पसंद आयेंगे," उसने ज़ोर देते हुये कहा।

मैं उसे दोबारा डपटने जा ही रहा था कि रचना तुतलाते हुये बोली, "पापा, जे पीला वाला गुब्बाला बौत अच्छा है। इछे दिला दीजये।"

मैं रचना की कोई बात नहीं टाल सकता था। अतः न चाहते हुये भी उसे गुब्बारा दिलवाना पड़ा। वो लड़का एक रुपया लेकर ख़ुशी-ख़ुशी वहाँ से चला गया।

पिछले महीने पत्नी दीप्ति की मौत के बाद रचना की पूरी ज़िम्मेदारी मेरे ऊपर आ गयी थी। मैं रोज़ शाम उसे गोद में लेकर इस पार्क में आ जाता था। पार्क की इस बेंच पर बैठ कर मुझे बहुत शांति मिलती थी क्योंकि दीप्ति की यह पसंदीदा जगह थी। यहाँ आकर मुझे ऐसा लगता था जैसे वो मेरे साथ बैठी हो। मैं घंटों उसकी याद में खोया रहता था। 

पिछले कुछ दिनों से इस गुब्बारे वाले के कारण मुझे बहुत दिक्क़त हो रही थी। मैं इस बेंच पर आकर बैठता ही था कि यमदूत की तरह वह आ धमकता। बिना गुब्बारे बेचे टलता ही न था। उसे देख कर ही मुझे परेशानी होने लगती थी।

मैंने तय कर लिया था कि कल से इस बेंच पर बैठूँगा ही नहीं। मैंने पेड़ों के झुरमुट के पीछे एक दूसरी जगह तलाश ली थी। वहाँ लोगों की दृष्टि नहीं पड़ती थी इसलिये वहाँ काफ़ी शांति थी।

अगले दिन मैं रचना के साथ वहाँ जाकर बैठ गया। धीरे-धीरे आधा घंटा बीत गया। मैं मन ही मन ख़ुश था कि आज गुब्बारे वाले ने मेरी शांति भंग नहीं की।

"अरे, बाबूजी, आप यहाँ बैठे हैं। मैं समझा कि आज आप आयेंगे ही नहीं," तभी वह लड़का भूत जैसा वहाँ आ टपका और अपने गुब्बारों का झुंड रचना की तरफ बढ़ाते हुये बोला, "बिटिया रानी, कौन सा गुब्बारा दूँ?"

"अबे, बिटिया रानी की दुम। तू मुझे चैन से जीने क्यों नहीं देता। जहाँ जाता हूँ वहाँ आ धमकता है। क्या तेरे पास और कोई काम नहीं है?" मैंने उसे बुरी तरह फटकार दिया।

डाँट खा उस लड़के की आँखें छलछला आयीं। वह उन्हें पोंछते हुये बोला, "बाबूजी, माफ़ करियेगा। आपको दुख पहुँचाने का मेरा कोई इरादा नहीं था। कुछ दिनों पहले एक दुर्घटना में मेरे माता-पिता की मृत्यु हो गयी है। मेरे पास स्कूल की फ़ीस भरने के लिये पैसे नहीं है। इसीलिये रोज़ शाम पार्क में गुब्बारे बेचने चला आता हूँ। जिनकी गोद में बच्चे होते हैं वे आसानी से गुब्बारे ख़रीद लेते हैं। इसीलिये आपके पास आ जाता था।"

इतना कह कर वह लड़का वहाँ से चल दिया। मुझे अपने व्यवहार पर बहुत आत्मग्लानि हुई। मेरे दुख से उसका दुख ज़्यादा बड़ा था। मैंने उसे आवाज़ देकर बुलाया और 100 का नोट उसकी तरफ़ बढ़ाते हुये कहा, "इसे रख लो।"

"यह किस लिये," उस लड़के का स्वर काँप उठा।

"तुम्हारी फ़ीस के काम आयेंगे," मैंने समझाया।

यह सुन उस लड़के की आँखें एक बार फिर छलछला आयीं। वह भर्राये स्वर में बोला, "बाबूजी, मैं बेसहारा ज़रूर हूँ। मगर भिखारी नहीं।"

"मेरा यह मतलब नहीं था। मैं तो सिर्फ़ तुम्हारी मदद करना चाहता था," मैंने बात सँभालने की कोशिश की।

उस लड़के ने पल भर के लिये मेरी ओर देखा फिर बोला, "अगर आप मदद करना चाहते हैं तो सिर्फ़ इतना वादा कर दीजये कि आज के बाद किसी ग़रीब को दुत्कारेंगे नहीं।"

इतना कह कर वह तेज़ी से वहाँ से चला गया। मैं चुपचाप बैठा रहा। मेरे अंदर इतना साहस नहीं बचा था कि उसे रोक सकूँ। उसके आगे मैं अपने को बहुत छोटा महसूस कर रहा था।

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टिप्पणियाँ

गौरव वाजपेयी "स्वप्निल" 2019/11/22 05:17 AM

प्रभाव छोड़ने वाली बेहतरीन लघुकथा। हार्दिक साधुवाद आदरणीय।

सन्ध्या गोयल सुगम्या 2019/09/04 06:08 PM

सुन्दर कहानी

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