होली के रंग में
काव्य साहित्य | कविता रीना गुप्ता15 Sep 2021 (अंक: 189, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
उन्मुक्त गगन में
विस्तृत विशाल बहुरंग,
उड़ते उड़ते खिलते बहते
मस्त चाल से झूमते हँसते।
फिर क्यों हो जाते हैं
क्षण भंगुर ख़ुशी का एहसास
दिलाकर
अदृश्य इस जीवन से।
जीवन वाच्या हैं ये
जीवन परिभाषित हैं क्या ये?
प्रत्येक अपनी अपनी विशालता
का दम्भ भरकर,
विलुप्त हो जाती हैं
अनदेखी राहों पर।
तो ये जीवन मिश्रित हैं क्या?
मनुष्य हैं क्या ये?
तुम इनका असली चेहरा
नहीं पहचानते
ये आदमख़ोर हैं,
ये आदिम भी हैं।
ये जो विभिन्न रंग
अपने चेहरे पर लगाए
विचरण कर रहे हैं
ये इनकी नियमित ज़िंदगी का
असली बहुरूप है।
यही हम हैं
यही तुम हो
यही आने वाला भविष्य का
इशारा है,
यही बिगढ़ता सँवरता
जीवन चक्र है।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं