जीवन का यथार्थ
काव्य साहित्य | कविता सुधेश20 Apr 2014
जीवन के काले यथार्थ ने उज्ज्वल सपनों में भटकाया।
जीवन अमृतघट से वंचित
उस की झलक मिली सपनों में
उसे छीन भागे दुश्मन जो
शामिल थे मेरे अपनों में।
सपनों में ही ख़ुश हो लो बस ऊपर वाले ने समझाया।
सपनों पर मेरा क्या क़ाबू
वे तो हैं बस मन की छलना
जीवन में ज्यों भटक रहा हूँ
वैसे ही सपनों में चलना ।
मंज़िल तो बस मृगतृष्णा है जीवन सन्ध्या ने बतलाया।
नहीं नियति में मेरी श्रद्धा
भाग्यविधाता होगा कोई
सपने तो शीशे के घर हैं
उन्हें तोड़ मुस्काता कोई।
मैं यथार्थ का पूजक चाहे जग ने मुझ को हिरण बनाया।
ठोस जगत है जीवन माया
लेकिन मन का शीशा कोमल
पाषाणों की वर्षा होती
जीवन शीशमहल का जंगल।
मरुथल में मृग भटक रहा है लेकिन जल का स्रोत न पाया।
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