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जूते. . .

दीपावली का अवसर था। दस वर्षीय निशा अपनी माँ का हाथ पकड़ कर शहर के बाज़ार में चल रही थी। अचानक उसकी नज़र एक जूतों की दूकान पर पड़ी तो उसने अपनी माँ का हाथ खींचते हुए कहा, "माँ! ओ माँ, मुझे जूते दिला दोगी क्या?"

"लेकिन बेटा दो दिन पहले ही तो तेरे पापा तुम्हारे लिए जूते लेकर आए थे।"

"लेकिन माँ मुझे अपने लिए नहीं अपनी दोस्त के लिए चाहिए।"

"दोस्त के लिए! लेकिन उसे तो उसके पापा लाकर दे देंगे न।"

"नहीं माँ उसके पापा नहीं है। वो हमारे घर काम करने वाली सुमन ताई की बेटी है।"

"अच्छा! लेकिन. . ."

"लेकिन क्या माँ? अगर तुम चाहो तो मुझे इस दीवाली नए कपड़े मत दिलवाना लेकिन उसके लिए जूते दिला दो वरना उसे इन सर्दियों में ठण्ड लगेगी," निशा ने अपनी माँ को प्यार से कहा।

"अच्छा ठीक है, चल चलते हैं," इतना कहते हुए वह निशा को जूतों की दूकान की तरफ़ लेकर चल दी। निशा की माँ मन ही मन प्रसन्न थी क्योंकि आज उसके दिए हुए संस्कार सफल हो गए थे।

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टिप्पणियाँ

राजेश "छंदक" 2019/11/01 07:36 AM

बहुत सुदंर कहानी लिखी गयी। लेखक को साधुवाद

कृपया टिप्पणी दें

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