करत-करत अभ्यास ते : भोजपुरी लोककथा
अनूदित साहित्य | अनूदित लोक कथा प्रभाकर पाण्डेय17 Jan 2009
बात उन दिनों की है जब काशी विद्या के केन्द्र के रूप में विश्व-प्रसिद्ध था। विद्याध्ययन के लिए, दूर-दूर से लोग यहाँ आते थे। विद्याध्ययन की ललक लिए एक गरीब ब्राह्मण कुमार काशी पहुँचा। वह एक योग्य गुरु के सानिध्य में विद्याध्ययन करने लगा। वह अपने गुरु का बहुत प्रिय था पर पढ़ाई में फिसड्डी था। कई सालों तक वह परीक्षा में अनुत्तीर्ण होता रहा। बार-बार परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने के कारण उसका मन पढ़ाई से उचट गया। एक दिन बोरिया-बिस्तर समेटकर वह अपने गाँव की ओर चल पड़ा। उसके दिमाग में अब एक ही बात चल रही थी, "पढ़ने नहीं जाऊँगा और भीख माँगकर खाऊँगा"। उस समय भिक्षाटन ब्राह्मणों का जन्मसिद्ध अधिकार समझा जाता था। आप इसका यह अर्थ कत्तई न निकालें कि उस समय ब्राह्मण आलसी होते थे।
चलते-चलते वह ब्राह्मण कुमार, दोपहर को एक गाँव में पहुँचा। कड़ी धूप थी और उसका पूरा शरीर पसीने में नहाया हुआ था। उसकी ज्ञान-पिपासा तो मर गई थी पर जल-पिपासा तेज हो गई थी। वह एक कुएँ पर पहुँचा और गठरी से लोटी-डोरी निकालकर पानी भरने लगा। पानी भरते समय अचानक उसके दिमाग में कुछ कौंधा। वह विस्मय से कभी रस्सी को देख रहा था तो कभी कुएँ की जगत को।
उसने सोचा कि जब इस घासफूस की रस्सी के बार-बार घर्षण से पत्थर (कुएँ की जगत) भी घिस जाता है। उसमें रस्सी के निशान भी पड़ जाते हैं तो विद्या के बार-बार अभ्यास से मेरा दिमाग क्यों नहीं घिस सकता। इसके बाद उसके कदम पुनः विद्या प्राप्ति के लिए काशी की ओर मुड़ गए। कालान्तर में उसकी मेहनत रंग लाई और उसकी गणना काशी के बड़े-बड़े विद्वानों में होने लगी।
सच ही कहा गया है-
करत-करत अभ्यास ते, जड़मति होत सुजान,
रसरी आवत जात ते, सिल पर परत निशान।
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