करघे का कबीर
काव्य साहित्य | गीत-नवगीत शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’1 Aug 2021 (अंक: 186, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
हथकरघे की साड़ी का
पीलापन हँसता है।
बैठा रहता है करघे संग
श्रम का सहज कबीर,
रोजीरोटी की तलाश का
निर्मल महज फकीर,
गाँवों के उद्योगों का
अपनापन हँसता है।
घरों घरों तक कुटी-शिल्प की
पहुँच रही है धूप,
ताने-बाने के तागों की
ख़ुशियों का प्रारूप,
खादी के उपहारों का
उद्घाटन हँसता है।
सूत कातने की रूई के
काव्यों का नव छंद,
भूख-प्यास का नया अंतरा,
नव प्रत्यय, नव चंद,
गांधीजी के सपनों का
परिचालन हँसता है।
सहकारी होने के अतुलित
भावों का यह गीत,
संवेदन के जलतरंग का
यह गुंजित संगीत,
भाई-चारे का अभिनव
अभिवादन हँसता है।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
अंतिम गीत लिखे जाता हूँ
गीत-नवगीत | स्व. राकेश खण्डेलवालविदित नहीं लेखनी उँगलियों का कल साथ निभाये…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
गीत-नवगीत
- अंतहीन टकराहट
- अनगिन बार पिसा है सूरज
- कथ्य पुराना गीत नया है
- कपड़े धोने की मशीन
- करघे का कबीर
- कवि जो कुछ लिखता है
- कहो कबीर!
- कोई साँझ अकेली होती
- कोयल है बोल गई
- कोहरा कोरोनिया है
- खेत पके होंगे गेहूँ के
- घिर रही कोई घटा फिर
- छत पर कपड़े सुखा रही हूँ
- जागो! गाँव बहुत पिछड़े हैं
- टंकी के शहरों में
- निकलेगा हल
- बन्धु बताओ!
- बादलों के बीच सूरज
- बूढ़ा चशमा
- विकट और जनहीन जगह में
- वे दिन बीत गए
- शब्द अपाहिज मौनीबाबा
- शहर में दंगा हुआ है
- संबोधन पद!
- सुख की रोटी
- सुनो बुलावा!
- हाँ! वह लड़की!!
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं
शिवानन्द सिंह 'सहयोगी' 2021/07/31 06:32 PM
आभार आदरणीय घई साहब