कुण्डलिया – गोपेश कुमार – 001
काव्य साहित्य | कविता-मुक्तक गोपेश शुक्ल15 Jun 2021 (अंक: 183, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
(१)
आओ मेरे साजना, ढूँढ़े मेरा प्यार।
तेरे बिन बेरंग है, रंगों का त्यौहार॥
रंगों का त्यौहार, गाँव खेले है होली।
सुन सा-रा-रा शोर, लगे है मन को गोली।
उड़ा अबीर-गुलाल, गीत फागुन के गाओ।
बुला रही है प्रीत, पिया परदेसी आओ॥
(२)
पाई जीभ बर्तन ने, दीवारों ने कान।
नातों में नफ़रत घुली, सूना हुआ मकान॥
सूना हुआ मकान, करे दिन याद पुराने।
कहाँ गई वो प्रीत, और वो मधुर तराने।
हँसते आस-पड़ोस, लड़ें आपस में भाई।
पूछे बूढ़ा बाप, सज़ा क्यों हमने पाई।
(३)
बनकर बदली प्रेम की, फिर छाओ मन मीत।
नाच उठे मन मोर-सा, गाकर मधुरिम गीत॥
गाकर मधुरिम गीत, प्रिये मैं तुम्हें बुलाऊँ।
प्रेम राग को छेड़, पीर मन की बहलाऊँ॥
सुन लो मेरी पुकार, सुमुखि आओ छन-छन कर।
बुझा विरह की आग, प्रेम की बदली बनकर॥
(४)
हाला तेरे ताप से, जलते घर परिवार।
तुमसे बढ़े समाज में, लूट-पाट व्यभिचार॥
लूट-पाट व्यभिचार, पतन की राह दिखाते।
धर्म देश धन वंश, सभी का नाश कराते॥
डूब नशे में लोग, पियें ख़ुद विष का प्याला।
जीवन को अभिशाप, बना देती है हाला॥
(५)
महके तुलसी आँगना, झूमे द्वारे नीम।
गौरैया के सुर मधुर, दें आनंद असीम॥
दें आनंद असीम, तुहिन की बूँदें आली।
कर दे भाव विभोर, उषा की सुन्दर लाली॥
बजे शिवालय शंख, जाग जग- जीवन चहके।
करके तुझको याद, गाँव मन मेरा महके॥
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