मक्कार चोर धूर्त
शायरी | ग़ज़ल गंगाधर शर्मा 'हिन्दुस्तान'16 Mar 2017
मक्कार चोर धूर्त तथा बदचलन तमाम।
क्यों कर न कीजिये अब जेरे कफ़न तमाम॥
दाढ़ी बचा रही क़िबला अंजुमन तमाम।
हाथों में थाम उस्तरे फिरते बुज़न तमाम॥
बुज़न=कसाई
घोड़ा खड़ा हुआ है हुज़ूर देखिये जनाब।
कस-कर के जीन बैठ गये हैं विजन तमाम॥
पागल हो बादशाह वज़ीरों की क्या मजाल।
ख़ामोश ताकता हाँ बेचारा वतन तमाम॥
सूरत बड़ी भयानक आँखें थी ख़ौफ़नाक।
बेहोश इक नज़र में हुई अंजुमन तमाम॥
"हिन्दोस्ताँ" के नाम से जाना मैं जाऊँगा।
लिक्खा है भाग में मेरे सुन ले वतन तमाम॥
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