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पसीने की ताक़त

बात पुराने ज़माने की है जब जवान लोग कठिन परिश्रम करते थे और बालक पढ़ाई-लिखाई के साथ खेल-कूद और घर के छोटे-मोटे काम करने की ओर ध्यान देते थे। उस समय बीमारियाँ जहाँ जातीं वहीं दुत्कारी जातीं। तंग आकर आख़िर वे वन देवता के पास गईं और उनसे अपना दुखड़ा रोया, "हे वन देवता! हम जहाँ भी जाती हैं लोग हमें दुत्कार कर भगा देते हैं, पास तक नहीं फटकने देते। आपकी उदारता और सहनशीलता विख्यात है। आप हमें आश्रय दें तो यहीं रहकर हम कुछ दिन गुज़ार लें।"

वन देवता को उन पर दया आ गई। परंतु बीमारियों से सावधान रहना ज़रूरी था। उन्हें मुँह तो कतई नहीं लगाना था। यह सब सोचकर वन देवता ने कहा, "ठीक है, मैं तुम्हें शरण दूँगा पर मेरी दो शर्तें हैं जिनका तुम्हें पालन करना होगा। पहली शर्त यह कि तुम वन में कोई प्रदूषण नहीं फैलाओगी और दूसरी शर्त के अनुसार तुम सिर्फ़ फल-हीन और छायाविहीन पेड़ों पर रहोगी।"

अब मरता क्या न करता । बीमारियों ने वन देवता की शर्तें मान लीं और वन की अंतिम सीमा पर उगे बबूल के पेड़ों पर रहने चली गईं।

समय बीतने लगा और इसी के साथ जब मानवी-जनसंख्या बढ़ने लगी तो मनुष्यों को रहने का स्थान और खेत कम पड़ने लगे। उस समय लोग उद्यमशील और कर्मठ थे इसलिए आपस में छीना-झपटी करने के बजाए उन्होंने सोचा कि वनों को काटकर, ज़मीन चौरस कर उन पर मकान और खेत बना लिए जायें। कुछ लोगों ने वन काटने का काम शुरू कर दिया। पेड़ कटने लगे और चौरस मैदान निकलने लगे।

पहले तो वन देवता ने सोचा कि मनुष्यों को कुछ लकड़ी की ज़रूरत होगी पर जब वन का बहुत बड़ा हिस्सा कट गया और कटाई फिर भी जारी रही तो वन देवता को चिंता हुई। आख़िर इन मनुष्यों को कैसे रोका जाए? सीधे सरल उपायों से या विनती करने से तो वे मानेंगे नहीं। फिर? तभी उन्हें बीमारियों का ध्यान आया। पवन को भेजकर बीमारियों को बुलवाया। वे तत्काल आ गईं। वन देवता ने उनसे कहा, "तुम हमेशा मुझसे काम माँगती रहती हो। लो, अब तुम्हारे लिए एक काम आ गया है। जाओ, इन पेड़ काटने वालों के शरीर में घुस जाओ जिससे ये लोग शिथिल होकर वन की कटाई रोक दें।"

बीमारियाँ अपना काम करने चली गईं। दिन पर दिन बीतते रहे लेकिन वन की कटाई फिर भी चलती रही। अपनी असफलता से शर्मसार होकर बीमारियाँ मुँह छिपाकर एक अँधेरी गुफा में जाकर छिप गईं। वन देवता के कहने पर पवन बड़ी कठिनाई से उन्हें ढूँढकर ला पाया। वन देवता ने उनसे पूछा, "इतने दिनों तक तुमने क्या किया! कोई बीमार नहीं पड़ा। वन तो अब भी धड़ल्ले से कट रहे हैं।"

बीमारियों ने अपनी असफलता पर लज्जित होते हुए कहा, "क्या बताएँ वन देवता! हम सब वन काटने वालों के शरीर में घुस गईं परंतु वे इतना पसीना बहाते हैं कि हम उसी के साथ बाहर निकल आईं। निरंतर श्रम से उनका शरीर इतना दृढ़ रहता है कि हमें उनके किसी अंग में ठहरने का कोई स्थान ही नहीं मिलता। हमें तो निष्क्रिय, निढाल और आरामतलब शरीर चाहिए।"

वन देवता ने कहा, "तुम ठीक कहती हो। तुम तो तुम पसीने की ताक़त के सामने मैं भी निरुपाय हो उठा हूँ। इस ताक़त में स्वार्थ की गंध और घुल गई है। लगता है मेरा अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। अब तो मनुष्यों की स्वार्थबुद्धि ठिकाने पर आए तभी कुछ बात बनें।"

इतना कहकर वन देवता ने चिंतित मुद्रा में सिर झुका लिया।

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